जैसाकि मैंने वादा किया था कि मैं समय-समय पर ऐसी कविताओं से भी रूबरू करवाता रहूँगा जो इसी कालखंड में लिखी जा रही हैं, लेकिन उनके रचनाकारों का संबंध इंटरनेट से थोड़ा का कम जुड़ा है। कई बार अपने दृष्टि-फ़लक को फैलाने में इन रचानाओं की भूमिका अहम हो जाती है।
पिछले सप्ताह इस शृंखला में आपने युवा कवयित्री अंजना बख्शी की कविताएँ पढ़ी। हरेप्रकाश उपाध्याय की कविताओं से भी हम हाल में ही जुड़े। ऐसे ही एक कवि हैं रामजी यादव।
13 अगस्त 1963 को वाराणसी में जन्मे रामजी यादव अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करने के बाद राजनैतिक संगठनों के साथ काम करने लगे। पत्रकारिता का चस्का लगा, दिल्ली आ गये और डाक्यूमेंट्री फिल्मों के निर्माण में जुट गये। 'समय की शिला पे', 'एक औरत की अपनी यादें', 'सफ़रनामा', 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'द कास्ट मैटर्स', 'पानीवालियाँ', 'खिड़कियाँ हैं, बैल चाहिए' जैसी उल्लेखनीय वृत्तचित्रों का निर्माण किया। 60 से अधिक असंपादित डाक्यूमेंट्रियाँ बनाई हैं, उसे पूरा करना शेष है। इन दिनों दैनिक भास्कर, नई दुनिया, अमर उजाला जैसे अखबारों के लिए स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। इनकी साहित्यिक यात्रा भी लम्बी है। बहुत सी कहानियाँ कथादेश, हंस, नया ज्ञानोदय जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 'अथकथा-इतिकथा' नाम का उपन्यास भी पूरा कर लिया है। कविताएँ भी लगातर लिख रहे हैं। आलोचना भी हाथ आजमा चुके हैं।
हिन्द-युग्म पर बहुत सी प्रेम कविताओं को अलग-अलग मौकों पर आप पढ़ते आये हैं। प्रेम की एक अलग ही छवि रामजी यादव की 'प्रेम' कविता में आपको देखने को मिलेगी।
'प्रेम'
अक्सर मैं सोचता हूँ क्या ज़रूरत थी महिवाल को दूर देश से आने की चिनाब की ओर
फरहाद पगले को तस्वीर बनाने को किसने कहा था शीरीं का और उसकी आँखों में इस कदर डूब जाने का कि निकल न सका जीवन भर
आशनाई तो चंद्रमोहन विश्नोई भी करते हैं पहले चाँद मोहम्मद बन जाते हैं फिर गायब होकर वही बन जाते है जो थे और फिजाएँ यूँ ही बदहवास बदलती रहती हैं रोज़-ब-रोज़
प्रेम एक ऐसा पारदर्शी आकाश है कि सिर कटाओ तो रंगीन बना देता है हवा, पानी, धरती, समाज, देश, घर, राजनीति अर्थव्यवस्था, जंगल, पहाड़, नदी, समुन्दर और भाषा को नहीं तो संगीन बनते देर नहीं लगती दुनिया प्रेम में एक बूँद चालाक होकर तो देख लो!
प्रेम तिरोहित होने का नाम है गोया सभ्यता की ओर बढ़ाते लोग पत्थरों में बदल गए हों मनुष्यता के सबक भूलते चले गए हों याद नहीं रहता सौन्दर्य, राग बेसुरे हुए जाते हों भंग होती जाती है एकाग्रता और जीवन में आती-जाती है अलाय-बलाय सामग्री समझ में नहीं आता कुछ कि क्या मतलब है दुनिया का इतने अकेले और अलफनंग होते हैं अपने आप में लोग
पहले विचार मरते हैं फिर वियाग्रा चली आती है दिमाग में और लोग क्या समझते हैं? बिंदास होकर कंडोम बोलने से वे सच के करीब पहुँच जाएँगे?
मैं जानता हूँ वे बहुत दूर बहुत देर बाद देखेंगे अपने आपको भी एकदम निराश और कुछ न छोड़ पाने की कुंठा लिए तरसते हुए जीवन को पल-पल न लौटना मुमकिन, न मौत के सामने ठट्ठा मारने की हिम्मत इतना कमज़र्फ़, इतना कमज़ोर, इतना लाचार बनाती हैं सभ्यताएँ
दोस्त! केवल प्रेम खड़ा है ऐसी हर सभ्यता के खिलाफ़
क्या तुमने बासी रोटी को कुतर-कुतर खाया है प्रेम में पानी को आहलाद की तरह पीया है यूँ हाथ फड़फड़ाकर उड़ जाने के सपने देखे हैं पहाड़ को दो टुकड़ों में काट देने की हिम्मत पाई है अपने अंदर क्या किसी की दो आँखें चमकती हैं तुम्हारी आत्मा में अगर महरूम हो तुम इन सबसे तो देखना ध्यान से कहीं तुम्हारे भीतर कोई तालिबानी तो नहीं बैठा है तुम्हें केसरिया रंग तो नहीं पसंद आता तुम पीछे तो नहीं भाग रहे शाश्वतता के नाम पर तुम देश को माँ समझते हुए पितृसत्ता का झंडा तो नहीं उठाए हुए हो
एक बार सोचना चुपचाप कि प्रेम ही क्यों तोड़ता दीवारें सारी जाति की, धर्म की, अमीरी की, गरीबी की, रंग की रूप की, उम्र की, जन्म की, देश की मटियामेट क्यों कर देता है प्रेम ही हर बार
तुम दाम्पत्य में प्रेम का गेमेक्सीन छिड़कते हो और सोचते हो कि ठीक हो गया सबकुछ मर गए नफरत के कीटाणु लेकिन तुम हद से हद एक चौकन्ने पति हो सकते हो ध्यान से देखो अभी भी तुम्हारी पत्नी को विश्वास नहीं है तुम पर
एक दिन थमाओ उसे एक गिलास पानी दबाओ उसके पाँव और सहलाओ सिर और खोल दो जुल्फ़ें महसूस करो कि तुम सदियों से जानते हो उसे लेकिन एक संवाद न हुआ अब तक
ठीक है अभी पूछ लो हाल-चाल उसका हवा के रंग पूछो उससे और क्या वह जानती है उड़ान के बारे में
पोछा लगाओ ठीक से ध्यान रखना कोने-अंतरे का बेसिन में पड़े बर्तन धो दो यूँ नाक-भौं मत सिकोड़ो इनमें से ज्यादातर तुम्हारे ही जूठे हैं और सब्जी ठीक से काटो भात कच्चे ही मत उतार देना दूध में नमक न पड़ जाय कहीं
मैं जानता तुम्हारा प्रेम पहुँचेगा किस मुकाम पर हो सकता है तुम नकली मर्यादाओं के पत्थर ढोते पुरुष न रह जाओ हो सकता है वह डरी हुई स्त्री न रहे प्रेम में इंसान हो जाती है स्त्री
प्रेम में निर्भय होता है समाज निर्भय होती हैं लड़कियाँ एक सम्पत्तिशील और बर्बर समाज भर जाता है रचनात्मकता से प्रेम में गोल नहीं होतीं आँखें जैसे छिछोरों और दृश्य रतिकों की होती हैं प्रेम में रस भर आता है उनमें और वे भरोसे से दीप्त हो उठती हैं
प्रेम एक मिट्टी है जैसे वह होती है चाक पर रखे जाने के ठीक पहले।
माँ नहीं है बस मां की पेंटिंग है, पर उसकी चश्मे से झाँकती आँखें देख रही हैं बेटे के दुख
बेटा अपने ही घर में अजनबी हो गया है।
वह अल सुबह उठता है पत्नी के खर्राटों के बीच अपने दुखों की कविताएं लिखता है रसोई में जाकर चाय बनाता है तो मुन्डू आवाज सुनता है कुनमुनाता है फिर करवट बदल कर सो जाता है जब तक घर जागता है बेटा शेव कर नहा चुका होता है
नौकर ब्रेड और चाय का नाश्ता टेबुल पर पटक जाता है क्योंकि उसे जागे हुए घर को बेड टी देनी है
बेड टी पीकर बेटे की पत्नी नहीं? घर की मालकिन उठती है। हाय सुरू ! सुरेश भी नहीं कह बाथरूम में घुस जाती है
मां सोचती है वह तो हर सुबह उठकर पति के पैर छूती थी वे उन्नीदें से उसे भींचते थे चूमते थे फिर सो जाते थे पर उसके घर में, उसके बेटे के साथ यह सब क्या हो रहा है
बेटा ब्रेड चबाता काली चाय के लंबे घूंट भरता तथा सफेद नीली-पीली तीन चार गोली निगलता अपना ब्रीफकेस उठाता है
कमरे से निकलते-निकलते उसकी तस्वीर के पास खड़ा होता है उसे प्रणाम करता है और लपक कर कार में चला जाता है।
माँ की आंखें कार में भी उसके साथ हैं बेटे का सेल फोन मिमियाता है माँ डर जाती है क्योंकि रोज ही ऐसा होता है अब बेटे का एक हाथ स्टीयरिंग पर है एक में सेल फोन है एक कान सेलफोन सुन रहा है दूसरा ट्रेफिक की चिल्लियाँ, एक आँख फोन पर बोलते व्यक्ति को देख रही है दूसरी ट्रेफिक पर लगी है माँ डरती है सड़क भीड़ भरी है। कहीं कुछ अघटित न घट जाए?
पर शुक्र है बेटा दफ्तर पहुँच जाता है कोट उतार कर टाँगता है टाई ढीली करता है फाइलों के ढेर में डूब जाता है
उसकी सेक्रेटरी बहुत सुन्दर लड़की है वह कितनी ही बार बेटे के केबिन में आती है पर बेटा उसे नहीं देखता फाइलों में डूबा हुआ बस सुनता है कहता है, आंख ऊपर नहीं उठाता
मां की आंखें सब देख रही हैं बेटे को क्या हो गया है?
बेटा दफ्तर की मीटिंग में जाता है, तो उसका मुखौटा बदल जाता है वह थकान औ ऊब उतार कर नकली मुस्कान औढ़ लेता है; बातें करते हुए जान बूझ कर मुस्कराता है फिर दफ्तर खत्म करके घर लौट आता है।
पहले वह नियम से क्लब जाता था बेडमिंटन खेलता था दारू पीता था खिलखिलाता था उसके घर जो पार्टियां होती थीं उनमें जिन्दगी का शोर होता था
पार्टियां अब भी होती हैं पर जैसे कम्प्यूटर पर प्लान की गई हों। चुप चाप स्कॉच पीते मर्द, सोफ्ट ड्रिक्स लेती औरतें बतियाते हैं मगर जैसे नाटक में रटे रटाए संवाद बोल रहे हों सब बेजान सब नाटक, जिन्दगी नहीं
बेटा लौटकर टीवी खोलता है खबर सुनता है फिर अकेला पैग लेकर बैठ जाता है
पत्नी बाहर क्लब से लौटती है हाय सुरू! कहकर अपना मुखौटा तथा साज सिंगार उतार कर चोगे सा गाऊन पहन लेती है पहले पत्नियाँ पति के लिए सजती संवरती थी अब वे पति के सामने लामाओं जैसी आती हैं किस के लिए सज संवर कर क्लब जाती हैं? मां समझ नहीं पाती है
बेटा पैग और लेपटाप में डूबा है खाना लग गया है नौकर कहता है; घर-डाइनिंग टेबुल पर आ जमा है हाय डैडी! हाय पापा! उसके बेटे के बेटी-बेटे मिनमिनाते हैं और अपनी अपनी प्लेटों में डूब जाते हैं बेटा बेमन से कुछ निगलता है फिर बिस्तर में आ घुसता है
कभी अखबार कभी पत्रिका उलटता है
फिर दराज़ से निकाल कर गोली खाता है मुँह ढक कर सोने की कोशिश में जागता है बेड के दूसरे कोने पर बहू-बेटे की पत्नी के खर्राटे गूंजने लगते हैं
बेटा साइड लैंप जला कर डायरी में अपने दुख समेटने बैठ जाता है
मां नहीं है उसकी पेंटिंग है उस पेंटिंग के चश्मे के पीछे से झांकती मां की आंखे देख रही हैं घर-घर नहीं रहा है होटल हो गया है और उसका अपना बेटा महज एक अजनबी।
--------------------- अंत ..... ------------------------------ कुछ ऐसा अजीब रिश्ता था वह जैसे मेरी दो हथेलियों को मिलाकर बने चाँद का उसमें रखे दो घूँट चंचल पानी से ....
जिसे गर मैं पी भी लेता तो प्यास न बुझती ... या जिसमें गर मैं अपना प्रतिबिंब ढूंढता तो जब तक वो नज़र आता मेरी ही उँगलियों के बीच की दरारों से होकर मेरा अस्तित्व बूँद-बूँद गिरता नज़र आता ...!
उस पानी को न गिरने से रोक सकता था न उन हथेलियाँ अलग कर सकता था जो तेरे लिये मैंने जोड़ लीं थीं
गर ऐसे निर्मल प्रेम का अंत क़तरा......क़तरा ..... गिर कर ही होना है तो वो उसी निर्गुण, निराकार के लिये गिरे जिसने इस रिश्ते को बनाया था
अपने ही डूबते सूरज की तरफ़ ये हथेलियों का चाँद उठाकर अब उंगलियाँ खोल दी है मैंने और उस रिश्ते को ... बूँद-बूँद कविताओं में गिरने दे रहा हूँ ...
आज सुबह का अख़बार देख मैं जरा सकपकाई चार पांच खबरें पढ़ डाली, और माथे पर एक शिकन नहीं आई
जैसे-जैसे उन्हें पढ़ती जा रही थी, दिल की धड़कन बढती जा रही थी सब और है शांति, कहीं नहीं झगडे, आज पुलिस ने कोई चोर नहीं पकडे, न कहीं धमाका, न हत्या, न रेप लड़कियों के लिए अब सिटी हुई सेफ़ नेताजी के मुहं से भी निकली सच्चाई नहीं किये वादे, उपलब्धियां गिनाईं न कोई आरोप, न कोई जातिवाद, उनके भाषण में थी आज 'प्रगती की बात'
फ़िल्मी खबरों का भी बदला हुआ था भेष, लिखा था 'मनोरंजन के साथ होगा सामाजिक सन्देश' बॉलीवूड एक है, नहीं है कोई ब्रेक-अप आमिर-शाहरुख का भी हो गया है पेच-अप (patch-up)
और ये खबर तो सबसे जरूरी हो गयी, सरकारी टेबलों की सारी फाइलें पूरी हो गयी आज बाबू ने नहीं ली रिश्वत, और काम भी कर दिया बिना किसी खटपट
आर्थिक मंदी का भी खत्म हुआ दौर, शेयर मार्केट में हुई नयी भोर खाली हाथों को फिर मिल गया काम बाजारों में लौटी रौनक, स्थिर हुए दाम
मेरी चिंता तो बढती जा रही थी, अचानक इतनी तब्दिली कहाँ से आ रही थी. यूँ लगा जैसे दुनिया बदल गयी है, हर बिगड़ी स्थिती संभल गयी है
लेकिन जैसे ही अख़बार के निचले हिस्से पर नज़र दौडाई वहां ये पंक्तियाँ लिखी हुई पाईं, "ऊपर लिखी सारी खबरें, झूठ हैं, फजूल हैं, गुस्ताखी माफ़ हो आज अप्रैल फूल है "
आज ज़मीन पर बिखरे टेसू देखे तो एहसास हुआ, कि बसंत कब का आ चुका है और होली मुँह बाए खड़ी है, पर शायद कुछ उमंगों की कमी है या हालातों की कुछ है साज़िश, कि ना बसंत ने मन में पग धरे, ना ही होली देती कोई दस्तक.
और मन में ख्यालों की सुगबुगाहट होने लगी कि, हर बार की तरह अबीर गुलाल तो खूब फैलाएंगे रंग इस बार भी, और खिलखिलाहट और कहकहे गूँजा जायेंगे हर कोना, शैफालियाँ भी होंगी आच्छादित चारों ओर, और बाजेंगे चंग-मृदंग और ढोल भी, गुझिया और मिठाईयों की भी होगी होड़, भंग-ठन्डई भी कर जायेंगी सब को सराबोर, फिर सब नाचेंगे हो मस्त, और छलक जायेंगे जाम भी। मगर क्या होगा दिलों का भीतर से भी मेल? या रंगीन परत के नीचे होगा सिर्फ काला रंग, क्या होगा सिर्फ एक दिन का इन्द्रधनुष और फिर सब स्याह, या होगा झूठ सर्वव्यापि जिसमें सच का होगा ‘एक दाग’ लगा.
होली और दिवाली साल में आती है बस एक बार, मगर होते बम धमाके देश में बारम्बार, माँएँ अभी भी हैं रोती और लज्जित होती हैं अबलाएँ, बुजुर्गों और बच्चों की होती हैं रोज हत्याएँ, और कुछ की नौकरी छूटी, कुछ की घटी हैं तनख्वाएँ। नेता आते और जाते सिर्फ कर जाते अपनी बात, और बाकि हम सब भूला दिये जाते वोट के बाद , स्लम से आस्कर तक पहूंचें जरूर, लेकिन स्लम हैं वहीं के वहीं, और अब तो ’जै हो’ का नारा भी लिया है छीन इन नेताओं ने।
बस और नहीं! नहीं चाहिये यह एक दिन की होली अब, अब होली कुछ ऐसी चाहिये, जो लाये उमंग हर दिन हर पल, प्यार अपार हो और हो सुख सब दिन, रंग छलकें और हों सब दिल प्रेम-रंगों से सराबोर, और सौहार्द और प्रेम से गूंजे हर कोना, हर कण, द्वेष, घृणा और अपराध रूपी होलिका दहन होगी जब, सुख-शांति और चैन से दमकेगा जीवन सबों का जब, तभी कहलायेगी आज की होली सच्ची और सुरम्य होली।
आज पूरी दुनिया अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मना रही है। दुनिया कि महिलाओं के महत्व दिखाने और इसका एहसास महिलाओं को भी कराने के लिए दुनिया भर में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं। पिछले वर्ष इस विषय पर हिन्द-युग्म ने ढेरों कविताएँ प्रकाशित की थी (सभी कविताएँ पढ़ें)। आज हम बाल-उद्यान की सबसे सक्रिय लेखिका सीमा सचदेव द्वारा लिखित कुछ नारे और कविता प्रकाशित कर रहे हैं। सीमा हर महत्वपूर्ण दिवसों पर नारे तैयार करके भेजती रही हैं, जो संबंधित गैर-सरकारी-संगठनों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं।
नारी दिवस का नारा
१. जब नारी में शक्ति सारी फिर क्यों नारी हो बेचारी २. नारी का जो करे अपमान जान उसे नर पशु समान ३. हर आंगन की शोभा नारी उससे ही बसे दुनिया प्यारी ४. राजाओं की भी जो माता क्यों हीन उसे समझा जाता ५. अबला नहीं नारी है सबला करती रहती जो सबका भला ६. नारी को जो शक्ति मानो सुख मिले बात सच्ची जानो ७. क्यों नारी पर ही सब बंधन वह मानवी, नहीं व्यक्तिगत धन ८. सुता-बहू कभी माँ बनकर सबके ही सुख-दुख को सहकर अपने सब फर्ज़ निभाती है तभी तो नारी कहलाती है ९. आंचल में ममता लिए हुए नैनों से आंसु पिए हुए सौंप दे जो पूरा जीवन फिर क्यों आहत हो उसका मन १०. नारी ही शक्ति है नर की नारी ही है शोभा घर की जो उसे उचित सम्मान मिले घर में खुशियों के फूल खिलें ११. नारी सीता नारी काली नारी ही प्रेम करने वाली नारी कोमल नारी कठोर नारी बिन नर का कहाँ छोर १२. नर सम अधिकारिणी है नारी वो भी जीने की अधिकारी कुछ उसके भी अपने सपने क्यों रौंदें उन्हें उसके अपने १३. क्यों त्याग करे नारी केवल क्यों नर दिखलाए झूठा बल नारी जो जिद्द पर आ जाए अबला से चण्डी बन जाए उस पर न करो कोई अत्याचार तो सुखी रहेगा घर-परिवार १४. जिसने बस त्याग ही त्याग किए जो बस दूसरों के लिए जिए फिर क्यों उसको धिक्कार दो उसे जीने का अधिकार दो १५. नारी दिवस बस एक दिवस क्यों नारी के नाम मनाना है हर दिन हर पल नारी उत्तम मानो , यह नया ज़माना है | *****************************
मैं नारी.........
मैं नारी सदियों से स्व अस्तित्व की खोज में फिरती हूँ मारी-मारी कोई न मुझको माने जन सब ने समझा व्यक्तिगत धन जनक के घर में कन्या धन दान दे मुझको किया अर्पण जब जन्मी मुझको समझा कर्ज़ दानी बन अपना निभाया फर्ज़ साथ में कुछ उपहार दिए अपने सब कर्ज़ उतार दिए सौंप दिया किसी को जीवन कन्या से बन गई पत्नी धन समझा जहां पैरों की दासी अवांछित ज्यों कोई खाना बासी जब चाहा मुझको अपनाया मन न माना तो ठुकराया मेरी चाहत को भुला दिया कांटों की सेज़ पे सुला दिया मार दी मेरी हर चाहत हर क्षण ही होती रही आहत माँ बनकर जब मैनें जाना थोडा तो खुद को पहिचाना फिर भी बन गई मैं मातृ धन नहीं रहा कोई खुद का जीवन चलती रही पर पथ अनजाना बस गुमनामी में खो जाना कभी आई थी सीता बनकर पछताई मृगेच्छा कर कर लांघी क्या इक सीमा मैंने हर युग में मिले मुझको ताने राधा बनकर मैं ही रोई भटकी वन वन खोई खोई कभी पांचाली बनकर रोई पतियों ने मर्यादा खोई दांव पे मुझको लगा दिया अपना छोटापन दिखा दिया मैं रोती रही चिल्लाती रही पतिव्रता स्वयं को बताती रही भरी सभा में बैठे पांच पति की गई मेरी ऐसी दुर्गति नहीं किसी का पुरुषत्व जागा बस मुझ पर ही कलंक लागा फिर बन आई झांसी रानी नारी से बन गई मर्दानी अब गीत मेरे सब गाते हैं किस्से लिख-लिख के सुनाते हैं मैने तो उठा लिया बीड़ा पर नहीं दिखी मेरी पीड़ा न देखा मैनें स्व यौवन विधवापन में खोया बचपन न माँ बनी मैं माँ बनकर सोई कांटों की सेज़ जाकर हर युग ने मुझको तरसाया भावना ने मुझे मेरी बहकाया कभी कटु कभी मैं बेचारी हर युग में मैं भटकी नारी |
सहरा की धूप में जो जल रहा था, वेदना के गरल से जो गल रहा था, काल के निर्मोह हाथों पल रहा था, सुधा का प्याला उसे तुमने पिलाया । मौत के आगोश से तुमने बचाया ॥
जीवन का संघर्ष जिसको छल रहा था, भरी जवानी में भी जो ढ़ल रहा था, स्वयं का जीवन जिसको खल रहा था, अंधकार में उर्मिल बन कर तुम आयीं । जीवन में जलनिधि बन कर तुम छायीं ॥
दुश्मन का कुचक्र हर पल चल रहा था, चुपचाप वह हाथ अपने मल रहा था, गिराया हर बार जब भी संभल रहा था, करुणा को द्रावित कर आनंद बनाया । गहन वेदना को तुमने मधु रस पिलाया ॥
नयनों से अविरल कितना नीर बहाया, शून्य गगन में निर्जन मन बिखरा पाया, दग्ध दुख अभिशापित कर हृदय बसाया, तप्त उर को अंक भर तुमने सहलाया । नयनों में भर छवि उसे अपना बनाया ॥
सुख की निर्मल छाया का भान कराया । गीत प्रीत का मीत बना कर उसे सुनाया ॥
............................................................ और एक दिन वो मेरी गाड़ी के नीचे आ गया! एक हादसा मेरे रोज़मर्रा के रास्ते पर हो गया था !
उसका ज़ख्म गहरा था मुझे दिख रहा था उसका खून बह रहा है मगर मैं वहां से चल दिया क्योंकि .... ग़लती उसकी थी उस दिन के बाद मैं हर रोज़ उसे देखता वहीँ सड़क के किनारे वो बैठा रहता अपने खुले घाव लेकर
उसे दर्द होता था ................. और शायद .... ....... मुझे भी
फिर उसके ज़ख्म नासूर होने लगे पकने लगे ........ रिसने लगे
उसे चुभने लगे और शायद ....... मुझे भी
उसका दर्द मुझसे देखा न गया कुछ करना ज़रूरी था .... हाँ .... कुछ करना ज़रूरी था इसलिए ... मैंने अपना रास्ता बदल दिया !
अब उसके ज़ख्मों में दर्द नहीं है .............. ........ अब मुझे भी दर्द नहीं होता
काव्य-पल्लवन का अठारहवाँ अंक लेकर हम प्रस्तुत हैं। इस बार हमने विषय को 'ईद/रमज़ान/भाईचारा' को समर्पित किया है। पिछले महीने इस प्रस्ताव पर लम्बी चर्चा हुई थी कि इसे विषय विशेष से बदलकर विधा विशेष कर देना चाहिए, इस चर्चा में लम्बा समय बीता और निर्णय लेने तक कई तारीखें बदल गई थीं। समय कम दिया गया, फिर भी हमें १२ कविताएँ प्राप्त हो गईं। और दो कविताएँ (एक जय कुमार की और दूसरी ) भी प्राप्त हुई थीं, लेकिन उसमें लिखे शब्दों को समझ पाना कठिन था। रचनाकारों को इस बाबत सम्पर्क किया गया, लेकिन हमें उत्तर नहीं मिला, इसलिए हम उन्हें शामिल नहीं कर रहे है।
सबसे अच्छी बात है कि सभी कलमकारों ने सौहार्द और शांति का पैगाम दिया है। इनका पैगाम दुनिया को पहुँचे, हमारी तो यही कामना है।
आपको यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतावें।
ईद हो हर दिन हमारा, दिवाली हर रात हो. दिल को दिल से जीत लें हम, नहीं दिल की मात हो..... भूलकर शिकवे शिकायत, आओ हम मिल लें गले. स्नेह सलिला में नहायें, सुबह से संझा ढले. आंख तेरी ख्वाब मेरे, खुशी की बारात हो..... दर्द मुझको हो तो तेरी आंख से आंसू बहे मेरे लब पर गजल तेरे अधर पर दोहा रहे जय कहें जम्हूरियत की खुदी वह हालात हो..... छोड दें फिरकापरस्ती तोड नफरत की दिवाल. दूध पानी की तरह हों एक ऊंचा रहे भाल. "सलिल" की शहनाई, सबकी खुशी के नग्मात हो.....
खुशियों के त्यौहार
ईद दिवाली ओणम क्रिसमस खुशियों के त्यौहार. लगकर गले बधाई दें लें झूमें नाचें यार. हम सब भारत मां के बेटे सबके सुख दुख एक. सभी सुखी हों यही मनाते, तजें न अपनी टेक. भाईचारा मजहब अपना मानवता ईमान. आंसू पोछें हर पीडित के बन सच्चे इंसान. नूर खुदाई सबमें देखा कोई दिखा न गैर. हाथ जोडकर रब से मांगें सबकी रखना खैर . दहशतगर्दी से लडना है हर इंसां का फर्ज. बहा पसीना चुका सकेंगे भारत मां का कर्ज गुझिया सिंवई खिकायें खायें हों साझे त्यौहार. अंतर से अंतर का अंतर मिटा लुटायें प्यार.
आसमां में गुफ्तगू है चल रही , चाँद की आये खबर तो ईद हुई अम्मी बनातीं थीं सिंवईयाँ दूध में , स्वाद वह याद आया लो ईद हुई नमाज हो मन से अदा, जकात भी दिल से बँटे, मजहब महज किताब नहीं पूरे हुये रमजान के रोजों के दिन , सौगात जो खुदा की, वो ईद हुई आतंक होता अंधा जुनूनी बेइंतिहाँ , मकसद है क्या इसका भला गांधी जयंती ईद है इस दफा , जो अंत हो आतंक का तो ईद हुई नजाकत नफासत और तहजीब की पहचान है मुसलमानी जमात, आतंक का नाम अब और मुस्लिम न हो, फैले रहमत तो ईद हुई कुरान को समझें, समझें जिहाद का मतलब, ईद का पैगाम है मोहब्बत दिल मिलें,भूल कर शिकवे गिले , गले रस्मी भर नहीं ,तो ईद हुई रौनक बाजारों की , मन का उल्लास , नये कपड़े ,और छुट्टी पढ़ाई की उम्मीद से और ज्यादा मिले , ईदी बचपन , और बड़प्पन को ईद हुई
ईद के चाँद की खोज में हर बरस , दिखती दुनियाँ बराबर ये बेजार है बाँटने को मगर सब पे अपनी खुशी, कम ही दिखता कहीं कोई तैयार है ईद दौलत नहीं ,कोई दिखावा नहीं , ईद जज्बा है दिल का ,खुशी की घड़ी रस्म कोरी नहीं ,जो कि केवल निभे , ईद का दिल से गहरा सरोकार है !! १!! अपने को औरों को और कुदरत को भी , समझने को खुदा के ये फरमान है है मुबारक घड़ी ,करने एहसास ये - रिश्ता है हरेक का , हरेक इंसान से है गुँथीं साथ सबकी यहाँ जिंदगी , सबका मिल जुल के रहना है लाजिम यहाँ सबके ही मेल से दुनियाँ रंगीन है , प्यार से खूबसूरत ये संसार है !!२!! मोहब्बत, आदमीयत , मेल मिल्लत ही तो सिखाते हैं सभी मजहब संसार में हो अमीरी, गरीबी या कि मुफलिसी , कोई झुलसे न नफरत के अंगार में सिर्फ घर-गाँव -शहरों ही तक में नहीं , देश दुनियां में खुशियों की खुश्बू बसे है खुदा से दुआ उसे सदबुद्धि दें, जो जहां भी कहीं कोई गुनहगार है !!३!! ईद सबको खुशी से गले से लगा, सिखाती बाँटना आपसी प्यार है है मसर्रत की पुरनूर ऐसी घड़ी, जिसको दिल से मनाने की दरकार है दी खुदा ने मोहब्बत की नेमत मगर, आदमी भूल नफरत रहा बाँटता राह ईमान की चलने का वायदा, खुद से करने का ईद एक तेवहार है !!४!! जो भी कुछ है यहां सब खुदा का दिया, वह है सबका किसी एक का है नहीं बस जरूरत है ले सब खुशी से जियें, सभी हिल मिल जहाँ पर भी हों जो कहीं खुदा सबका है सब पर मेहरबांन है, जो भी खुदगर्ज है वह ही बेईमान है भाईचारा बढ़े औ मोहब्बत पले , ईद का यही पैगाम , इसरार है !!५!!
भारत वर्ष में हम भारतीय सम्भवतः सभी पर्व मनाते हैं। धर्म निरपेक्षता पहचान इसकी धरती आनन्द मग्न सदा रहती अनेक त्यौहार कभी कभार माह दो माह के भीतर-भीतर हर धर्म में मनाए जाते हैं। कभी ईद,दिवाली इकट्ठे हुए कभी आनन्द चौदस और गणेश-चतुर्दशी पोंगल और लोहड़ी हैं कभी गुरू पर्व क्रिसमस जुड़ जाते हैं। श्रृंखला बद्ध तरीके से जब हम बड़े-बड़े उत्सव मनाते हैं। फूलों की बौछार आसमाँ करते हृदय आनन्द विभोर हो जाते हैं। हमारी राष्टीय एकता और अखंडता इसी सहारे जीवित है सब धर्म यहाँ उपस्थित हैं सब धर्म की राह दिखाते हैं भारत वर्ष को शत-शत नमन हन तभी भारतीय कहलाते हैं।
है रमजान प्रेम-मुहब्बत का महीना। है रमजान मज़हब याद दिलाने का महीना॥ है रमजान ज़श्न मनाने का महीना। है रमजान ज़श्न मनाने का महीना॥ पाक रखेंगे इसे अल्लाह के नाम। नहीं करेंगे हम इसे बदनाम॥ है प्रेम का महीना रमजान। है प्रेम का महीना रमजान॥ आया है ईद प्रेम-भाईचारा का सौगात लेकर। मनाएंगे इसे वैर व कटुता का भाव भुलाकर॥ मिलजुल मनाएंगे ईद। नहीं करेंगे मांस खाने की जिद॥ तोड़ेंगे हिंसा का रश्म। मनाएंगे मिलकर ज़श्न॥ हम सब लें आज ये कसम। हम सब लें आज ये कसम॥
अबके ईद मनाऊँ कैसे जश्ने ईद मनाऊँ कैसे दहल गए है कलेजे सब के , शोर धमाकों का सुन सुन कर हैरान हूँ मै क्यों नही मारता, ये बम हिन्दुओं को चुन चुन कर वहाँ मुस्लमान भी मरते है ये बम भेदभाव नही करते है शोर धमाकों का गूँज रहा है पटाखे फिर मै चलाऊँ कैसे अबके ईद मनाऊँ कैसे जश्ने ईद मनाऊँ कैसे गले लगो गर लग सको भुलाके मजहब ईमान सभी न हिंदू कहो न मुस्लिम कहो बन जाओ जरा इंसान सभी सब भारत माँ की संतान है ये देश तो बड़ा महान है सदभावना की अजान सुनाऊँ कैसे अबके ईद मनाऊँ कैसे जश्ने ईद मनाऊँ कैसे
रमजाने-पैगाम याद रखना। हर वक्त हो नमाज याद रखना॥ आयतें उतरी जमीं पे जिस रोज, अनवरे-इलाही आयी उस रोज; इनायत खुदा की न कभी भूलना। हर वक्त हो नमाज याद रखना॥ खयानत का ख्याल तू दिल से निकाल दे, खुदी को मिटा खुदाई में तस्लीम कर दे; क़यामत के कहर में भी ये कलाम न छोड़ना। हर वक्त हो नमाज याद रखना॥ अदावत का गुल ना खिल पाये कभी, हबीबों की हस्ती ना हिल पाये कभी; जुर्मों की जहाँ से सदा परहेज करना। हर वक्त हो नमाज याद रखना॥ पीर-फकीर, मौलाना हुए इसी राह पे चलकर, उतारा आयतों को दिल में जुल्मों-सितम सहकर; हर मर्ज की दवा है, वल्लाह , ना भूलना। हर वक्त हो नमाज याद रखना॥ हम हैं नूर खुदा के, सबसे प्यारे हैं खुदा के, मोमिनों अहिंसक बनो, कह गए पैगम्बर सबसे; जख्म ना पाये कोई जीव हमसे, सदा रहम करना। हर वक्त हो नमाज याद रखना॥
इक नया इतिहास अब चलो नया इतिहास लिखें हम स्नेह, मिलन के अध्यायों का आपस के संघर्षों की परम्परा मिटाने का सुख दुःख साथ निभाने का
युद्ध नहीं हो कोई अब से सत्ता और किसानों में द्वन्द्व नहीं हो कोई अब से धर्म के नाम पर आपस में मानवता है धर्म सर्वोपरि सबको गले लगाने का पग पग नेह लुटाने का अब चलो नया... सम्प्रदायगत भावनाओं को पैरों तले दबाना है भ्रष्ट जनों के पुण्य कर्म को, सिर पर नहीं बिठाना है सबको यही सिखाना है कि मिलकर बोझ उठाना है समाधान हो ऐसे अपनी राष्ट्र समाज की समस्याओं का अब चलो नया....
आनंद-उल्लास से भरा है पलकों का गागर प्रेम-आश से छलका है धड़कनों का सागर इस नज़र में उस नज़र में चाहे देखो जिस नज़र से एक नई खुशी है एक नई है मुस्कराहट ईद -मुबारक ईद -मुबारक सबको ईद -मुबारक!
आसमान के सुनहरी लाल-लाल किरणें समायी हुयी है सबके मासूम चेहरे पे. चांदनी भी कुछ कम नहीं फलक पे दिख रही निखरी-निखरी से ये चिड़ियों की चहचहाहट, वो पत्तों की सरसराहट ईद -मुबारक ईद -मुबारक सबको ईद -मुबारक!
सजदे दुआओं तेरे सहज कबूल हों रहें जिंदगी में तेरे जलज फूल हों खुदा की असीम कृपा तेरे साथ रहे भटकाव न आए कभी लक्ष्य पे तेरे आँख रहे ये दुआ हमारी तरफ़ से, कही जो अब तक ईद -मुबारक ईद -मुबारक सबको ईद -मुबारक !
स्याह बादल छंट गये, आसमाँ भी धुल गये, कल की आँधी भूल सब आगे निकल गये.
धरती हुई थी लाल, लपटें उठी थीं विकराल, अनदेखों ने अनजानों से खेली थी होली लाल, न तुमको चेहरा मिला, ना ही कोई नाम मिला, फिर क्यों किया मौत का तान्डव, ये ज़लज़ला...?
कोई भाई ढूंढता मिला, किसी को न दोस्त मिला, बदहवास से समेटते रहे, वो दहशत का सिलसिला, माँएँ बिलखती रहीं, बेटियाँ सिसकती रहीं, कुछ वहशी पलों में, जीवन बेल टूटती रहीं,
रूपहले स्वप्न टूट गये, मोती सारे बिखर गये, बिन चाहे वो तो अपना, अंतिम सफर कर गये, लाचार हो खडे सब तमाशा देखते रहे, और तूफानों में मुस्काते फूल बिखरते रहे.
देश अन्धेरे में डूबता रहा, सियासत अनजान रही, हिन्द की धरती पर आज अपनों की साजिश रही, आज यहाँ कल वहाँ बस यही सवाल रह गये, कब तुम कब हम, बस अब यही हाल रह गये.
स्याह बादल छंट गये, आसमाँ भी धुल गये, कल की आन्धी भूल सब आगे निकल गये...
****************************************** हाथ खाली हों तो आँखें भर लाना अच्छा नहीं लगता उनकी दुनिया लुट गई, उन पर गाना अच्छा नहीं लगता माना सबके खिरजो-जज्बात* के अपने तरीके हैं मगर मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
माँ होकर क्यों देखती हूँ वही तमाशा जो बरहा लगता है क्यों यतीम बच्चे देख मेरा खून खौलता नहीं पिघलता है क्यों जागती हूँ तब ही जब कोई 'बापू' या 'बोस' जगता है क्यों हरदम "मुझे" किसी रहनुमा* का इंतज़ार रहता है उन शहीदों को यूँ नज्मों में मारना अच्छा नहीं लगता मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
मशहर-सा* माहौल है हरसू, दिल भी उदास ख़राब है उठे हुए सवालों ने ऐसी 'सुखन' पाई के सब लाजवाब है** अब लिखने को नहीं, करने को, उठने को हाथ बेताब हैं क्यों लिख रही हूँ फिर, क्यों मेरी बगावत में हिजाब* है कुछ कर नहीं सकती और 'कुछ न करना' अच्छा नहीं लगता मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
शायद कुछ मिनिट लगते हैं एक नज़्म लिखने में और शायद कुछ मिनिट लगे थे वो जानें जाने में कुछ मिनिट लगेंगे मॉल्स की 'सेक्युरिटी' परखने में कुछ मिनिट लगेंगे हमें हरसू एहतियात बरतने में 'दानव बड़ा है' सोच कुछ पल लगेंगे सबको डरने में 'दानव बड़ा है' जान गुंजाइश घटेगी निशाने-तीर चूकने में जागो तो कुछ पल लगेंगे सबको थोड़ा-थोड़ा जगने में समझो तो पल भी नहीं लगेंगे मेरी बात समझने में 'चूड़ी-कंगन पहने' यूँ बैठे रहना अब अच्छा नहीं लगता मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
- रूपम चोपडा (RC)
(**सुखन = यहाँ दो मतलब लिए हैं - बातचीत और कविता खिरजो-जज्बात = खिरज और जज्बात = श्रद्धांजलि और भावनाएं मशहर = प्रलय, हिजाब = सुशीलता/नम्रता, रहनुमा = मार्गदर्शक, लीडर ) *******************************************************
इस दुनिया की छोटी से छोटी ईकाई भी अपना पृथक अस्तित्व रखती है, लेकिन वहीं उसका ब्रह्माण्ड की शेष-सत्ता से विशिष्ट सम्बंध भी है। मनुष्य का जीवन भी इन्हीं विशिष्ट और विविध रिश्तों से पटा हुआ है। एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध विशिष्ट है। हिन्द-युग्म का हिन्दी से, तकनीक से, इंटरनेट से, कवियों से, पाठकों से, प्रतिभागियों से, लेखकों से, चित्रकारों से, गायकों से, संगीतकारों से, गीतों से, ग़ज़लों से, कहानियों से और पता नहीं किस-किस से गहरा नाता है।
सम्बन्धों की इसी ख़ासियत को ध्यान में रखते हुए हमने इस बार का काव्य-पल्लवन 'रिश्ते' विषय पर आयोजित किया है। २४ विविध रंगों से काव्य-पल्लवन की नई महफिल सजी है। हमें उम्मीद है कि पाठक इन कविताओं से अपना नाता जोड़ेंगे। यदि रस मिला, भाव मिला, कथ्य-तथ्य मिला तो हमारा आयोजन सफल भी हो जायेगा।
आपको यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतावें।
उनके सवालों जवाबात से अब आगे चला आया हूँ कमजोरी-ऐ-जज़्बात से अब आगे चला आया हूँ मुद्दई,मुंसिफ,कचहरी, छूट गए पीछे सब तहरीर औ तकरार से अब आगे चला आया हूँ उस दुनिया से तो हूँ दूर अभी भी यारों इस दुनिया से ज़रूर आगे चला आया हूँ बीच मंझधार खड़ा हूँ है भंवर आहों का पुल हरेक रिश्ते का मैं आज जला आया हूँ।
रिश्ते कुछ खास होते हैं शायद उनकी डोर उस प्रभु के पास होती है जो वहां है जहां थोड़ी सी हवा है,थोड़ा सा आसमान है अक्सर राह चलते कुछ रिश्ते हमें पकड़ कर ले जाते हैं वहां जहां हम कभी नहीं गये होते हम चीखते हैं कि नहीं जाना चाहते इस जहां को छोड़ कर मगर एक हवशी ला पटकता है नए दरख्तों के तले चिल्लप-पों के बीच अपनी ही आवाज लौट कर दे जाती है दस्तक आखिर क्यों हमें आज हर रिश्ते से डर लगता है? रिश्ते तो रुई के फाहे है फिर क्यों हम उन्हें नासूर समझ कर ठुकरा देते हैं? शायद यह समय ही ऐसा है कि- 'हमें अपनी ही परछाईं से डर लगता है' बदहवास से हम घूमते हैं नंगे पांव शीशे की दीवारों में अपना माथा लटकाए हम टहलते हैं सिर्फ अपने पुरवे की ओर अजीब सी खलल मथ डालती है और उसकी तपिश में हम सोचते हैं- काश! कोई अपना भी होता !
सरोकार छूट जायें नज़रें बदलती हैं रास्ते बदल जायें तो सूरतें बदलती हैं मुलाक़ात फिर हो जाए शायद किसी मोड़ पर नीयतें आज तो बदलने को मचलती हैं हट गयीं जो बंदिशें खुल गए हैं रास्ते ज़रूरारें तो आज सभी किसी और रुख फिसलतीं हैं
दिन हवाएं हो गए और बंधनों के रास्ते जज्बात की आंधी कहीं मोम सी पिघलती है देख कर पहचान पाएं ये ताब नहीं रही उन में पहचान कर भी देख जाएं मजबूरियां बदलतीं हैं सरोकार छूट जायें नज़रें बदलतीं हैं रास्ते बदल जायें सूरतें बदलतीं हैं
आकाश से पटल तक जीव चलता मात्र रिश्तों पर कुछ लंबे समय तक टिकते हैं कुछ बीच में दम तोड़ देते हैं कुछ रिश्ते पैसों से बनते हैं कुछ प्रेम प्रतीक भी होते हैं कुछ क्षण भर के,कुछ युग-युग के रिश्तों पर जीवन टिकता है रिश्तों से जीवन बनता है रिश्तों में दरार, विश्वास की कमी रिश्तों में मिठास, प्रेम अनुभूति एक जीवन, अनेक रिश्ते जीवन से जुड़े सारे रिश्ते निर्जीव सजीव सभी रिश्ते रिश्तों का प्रतीक, स्वयं रिश्ते
किसी से दर्द का रिश्ता होता है, किसी से प्यार का रिश्ता होता है, फर्क क्या है, दोनों में क्या है, अन्तर 'रिश्ता' तो होता है| किसी को याद करते है, जखम जैसे किसी को याद करते है, दवा जैसे फर्क है, कुछ तो बोलो बतलाओ क्या है, अन्तर याद तो करते है दोनों को ही| कोई दिल में रहता है, दुश्मन की तरह कोई दिल में रहता है, दोस्त की तरह कुछ भी फरक नही इसमे| ना ही है कोई अन्तर| दिल में तो रहते है दोनों ही| याद करते है, सोचते है सबको एक साँस से.... दूसरी साँस तक और फिर अन्तिम साँस तक| तानाबाना बुनते रहते है, रिश्तों के सभी एक दुसरे के पूरक इसके बिना वो नही, उसके बिना ये नहीं सब एक ही माला के मोती कोई सुंदर, कोई बदसूरत कोई कठोर, कोई नरम कोई कड़वा, कोई मधुर फर्क क्या है? इसमे कुछ क्या है? कुछ अन्तर 'रिश्ता' तो सबसे है यादें तो सबसे जुड़ी है, कुछ भयानक, कुछ सुंदर इसके बिना वो नहीं, उसके बिना ये नहीं|
पता नहीं चलता ये रिश्ता चीज होती है क्या अरे कोई तो बताए ये रिश्ता चीज होती क्या था कभी भाई-भाई का रिश्ता कभी न बिछुड़ने वाला रिश्ता जो हमेशा साथ-साथ खेलता हमेशा साथ-साथ पढ़ता हमेशा साथ-साथ खाता हमेशा साथ-साथ रहता पर आज जब वे बड़ा व समझदार हुए तो दोनों एक-दूसरे के दुश्मन हुए हथियार लेकर दोनों आमने-सामने हुए भाई-भाई का रिश्ता दुश्मनी में बदल गया पता नहीं चलता ये रिश्ता चीज होती है क्या अरे कोई तो बताए ये रिश्ता चीज होती क्या किया था शादी पति-पत्नी के रिश्ता के साथ जीवन भर साथ निभाने को पर रह गयी दहेज़ में कमी तो न दिया उसे साथ रहने को और जिन्दा ही पत्नी को जला डाला क्योंकि था वह दहेज़ के पीछे मतवाला था वह दहेज़ के पीछे मतवाला जीवन भर साथ निभाने का रिश्ता दुश्मनी में बदल गया पता नहीं चलता ये रिश्ता चीज होती है क्या अरे कोई तो बताए ये रिश्ता चीज होती क्या था पिता-पुत्र का रिश्ता पिता ने उसे अपने बुढ़ापे का सहारा समझा पर उसने तो दुश्मन से भी भयंकर निकला निकाल दिया पिता को घर से भूखे-प्यासे छोड़ दिया नहीं मारा पिता तो उसने जहर देकर मार दिया बुढ़ापे का सहारा आज उसी का कातिल बना था इन्सान पर आज वह हैवान बना पता नहीं चलता ये रिश्ता चीज होती है क्या अरे कोई तो बताए ये रिश्ता चीज होती क्या ये रिश्ता चीज होती है क्या
मुलायम दूब पर, शबनमी अहसास हैं रिश्ते निभें तो सात जन्मों का, अटल विश्वास हैं रिश्ते जिस बरतन में रख्खा हो, वैसी शक्ल ले पानी कुछ ऐसा ही, प्यार का अहसास हैं रिश्ते कभी सिंदूर चुटकी भर, कहीं बस काँच की चूड़ी किसी रिश्ते में धागे सूत के, इक इकरार हैं रिश्ते कभी बेवजह रूठें, कभी खुद ही मना भी लें नया ही रंग हैं हर बार , प्यार का मनुहार हैं रिश्ते अदालत में बहुत तोड़ो, कानूनी दाँव पेंचों से लेकिन पुरानी याद के झकोरों में, बसा संसार हैं रिश्ते किसी को चोट पहुँचे तो , किसी को दर्द होता है लगीं हैं जान की बाजी, बचाने को महज रिश्ते हमीं को हम ज्यादा तुम, समझती हो मेरी हमदम तुम्हीं बंधन तुम्हीं मुक्ती, अजब विस्तार हैं रिश्ते रिश्ते दिल का दर्पण हैं , बिना शर्तों समर्पण हैं खरीदे से नहीं मिलते, बड़े अनमोल हैं रिश्ते जो टूटे तो बिखर जाते हैं, फूलों के परागों से पँखुरी पँखुरी सहेजे गये, सतत व्यवहार हैं रिश्ते
कई रंग में रंगे दिखते हैं , निश्छल प्राण के रिश्ते कई हैं खून के रिश्ते, कई सम्मान के रिश्ते !! जो सबको बाँधे रखते हैं, मधुर संबँध बंधन में वे होते प्रेम के रिश्ते, सरल इंसान के रिश्ते !! भरा है एक रस मीठा, प्रकृति ने मधुर वाणी में जिन्हें सुन मन हुलस उठता, हैं मेहमान के रिश्ते !! जो हुलसाते हैं मन को , हर्ष की शुभ भावनाओ से वे होते यकायक उद्भूत, नये अरमान के रिश्ते !! कभी होती भी देखी हैं, अचानक यूँ मुलाकातें बना जाती जो जीवन में, मधुर वरदान के रिश्ते !! मगर इस नये जमाने में, चला है एक चलन बेढ़ब जहाँ आतंक ने फैलाये, बिन पहचान के रिश्ते !! सभी भयभीत हैं जिनसे, न मिलती कोई खबर जिनकी जो हैं आतंकवादी दुश्मनों से, जान के रिश्ते !!
दिल को दिल से जोड़ते रिश्ते मिलते हाथ अपनी मंजिल पा सकें कदम अगर हों साथ 'सलिल' समूची ज़िन्दगी रिश्तों की जागीर रिश्तों से ही आदमी बने गरीब-अमीर रिश्ते-नाते घोलते प्रति पल मधुर मिठास दाना रिश्ते पालते नादां करें खलास रिश्ते ही इंसान की लिखते हैं तकदीर रिश्ते बिन नाकाम ही होती हर तदबीर बिगड़ी बात बने नहीं बिन रिश्ते लो मान रिश्ते हैं तो लुटा दो एक दूजे पर जान रिश्ते हैं रसनिधि अमर रिश्ते हैं रसखान रिश्ते ही रसलीन हो हो जाते भगवान रिश्ते ही करते अता आन- बान औ' शान रिश्ते हित शैतान भी बन जाता इंसान रिश्ते होली दिवाली रिश्ते क्रिसमस ईद रिश्ते-नाते निभाना सचमुच 'सलिल' मुफीद रिश्ते मधुर न रख सके लडे हिंद औ' पाक रिश्तों में बिखराव गर तो रिश्ते नापाक धर्म दीन मजहब नहीं आदम की पहचान जो रिश्तों को निभाता सलिल वही गुणवान नेह नर्मदा में नहा नित्य नवल जज-धार रिश्ते सच्चे पलकर सलिल लुटा दे प्यार
रिश्ते कहते है किसको अब तक समझ न पाया रिश्तो के रेलमपेल में बस स्वार्थ ही स्वार्थ नजर आया । जग ने पाया क्या बना के रिश्तों की लड़ियाँ मिल न सका कभी आपस में संबंधो की बेमेल कड़ियाँ । तू मेरा है मै तेरा हूँ बस इतना कहना ही क्या रिश्ता है ? संग न चल पाता दो पग भी हाय ! ये कैसा रिश्ता-नाता है । क्या करूँ कवायद इन रिश्तों की रूप इनके है बड़े निराले देते तोहफे कामयाबी के कहीं तो बरसाते कहीं हार के पाले । रिश्तो की गहराई का अब तक थाह ना ले पाया है कोई अपनापन का मुखौटा पहने शोषण करता है हर कोई । साधू हो या दुर्जन कोई मतलब के रिश्ते निभाते है दिल की चंद खुशी के खातिर रिश्तो का बलिदान चढाते है । रिश्तो के चक्रव्यूह में फँसकर ही आज "चमन "का ये हाल है अपना-अपना कहके सबने लुटा अपनी हस्ती ही यारों बदहाल है ।।
हर रिश्ते के पास हमने अलग कहानी देखी अपने दुख-सुख देखे, अपनी हंसी-खुशी देखी प्रेम के हिस्से में आया महान दुख और छोटी खुशियाँ देखी खून के रिश्ते में कम होता खून देखा एक रिश्ता जो हमने बडे मनोयोग से बनाया उनमें नमक कुछ ज्यादा था जब वो रिश्ता टूटा तो दिल में ही नहीं, आँखों तक में नमक उतर आया माना हमारे हाथ बंधे हुए हैं पर आँखें तो पूरी तरह से खुली हुई हैं हम खुली आँखों से एक के बाद एक सपनें के टुटनें को देखते हुए अपनी बेबसी को कोसते रहे जिन रिश्तों में खाली जगह थी उन खाली जगहों में झाडियाँ बेशुमार उग आयी थी उन खरपतवारों की मात्रा हर बारिश में बढती ही गयी और हमारी उनकी नजदीक आने की सम्भावना लगभग खत्म होती चली गई हर रिश्ता अपना दाना पानी ले कर आता है और तमाम उमर उसी पर गुजर बसर करता है हर रिश्ते की अलग परिभाषा तैयार की हमने और उसी पर चलते रहे तमाम रूकावटों के बावजूद।
दिल में छिपी जो बात ,वो ज़ाहिर न कीजिये | राज बे-परदा न हो , रुसबा न कीजिये || रिश्ता हो अपना कोई भी, हमराज ही रहो रिश्तों की बात है यही , न बदनाम कीजिये || चाहे रहो रकीब पर, रिश्ता तो है सही , इस दुश्मनी को भी "रिश्ता" नाम दीजिये || पाकीज़गी खुसूसियत रिश्तों में ये रहे , ता-उम्र ज़िंदगी में, निभाया ही कीजिये || रूह से बनते हैं ये , सांस में मौजूद हैं , कहना ज़रूरी हो तो , रिश्ता उसे कह दीजिये || हैं मुख्तलिफ से नाम मगर काम दो ही हैं , रिश्तों में या नफरत करो , या प्यार कीजिये || मिट जाए ये नफरत सदा सारे जहान से , हो प्यार बस चारों तरफ़ बस प्यार कीजिये ||
*रकीब = दुश्मन , पाकीज़गी =पवित्रता, खुसूसियत = विशेषता , मुख्तलिफ = विभिन्न
तिनके तिनके से मिल कर हुए एक हैं ! चन्द कागज़ के टुकडों पे हम बंट गए !!
सारी धरती को परिवार कहते रहे , फिर भी नक्शों ने बांधे हमारे कदम ! रोक हम तो परिंदों को पाए नहीं .. तेरे मेरे जहाजों पर हम डट गए !! चन्द कागज़ के टुकडों पर हम बंट गए !
कुछ ना सूझा, बे-मतलब का मजहब लिखा जब था काँटा सुमन, सांप चन्दन का संग ! बेर केले के संग का हवाला दिया बे बचे रह गए और हम फट गए !! चन्द कागज़ के टुकडों पे हम बंट गए !! चन्द कागज़ के टुकडों पे हम बंट गए !!
बिखर रहे हैं देखो रिश्ते, परिवार पुरानी चीज हुई। नर नारी का सौदा करता, नारी नर से दूर हुई।। बचपन बच्चों का छिनता है। भ्रूण हत्या कैसी ममता है? बच्चा घर पर रहे अकेला, नर-नारी की ये समता है? बाप तो नौकरी करता ही था, मां भी अब मजदूर हुई। नर नारी का सौदा करता, नारी नर से दूर हुई।। कुटुंब पुरानी बात हुई है। रिश्ते देखो, छुई-मुई हैं। वृद्धाश्रम में बुजुर्ग है पहुंचे, पति-पत्नी में तलाक हुई है। नर-नारी अब नहीं है पूरक, भावुकता काफूर हुई। नर नारी का सौदा करता, नारी नर से दूर हुई।। नर नारी, वश रहे जरूरत। कहीं रहो, दुनिया¡ खुबसूरत। शादी की तुम बात करो मत, फिगर सजाओ, बन जाओ मूरत। मुझको पति नहीं जरूरी, नारी तन कर खड़ी हुई। नर नारी का सौदा करता, नारी नर से दूर हुई।। वैयक्तिक स्वतंत्रता ने है तोड़ा। बिखर रहा है, प्राकृतिक जोड़ा। शादी अब बंधन लगती है, बिन शादी ही, बिस्तर तोड़ा। समलैंगिक सम्बन्ध बढ़ रहे, एड्स आज सामान्य हुई। नर नारी का सौदा करता, नारी नर से दूर हुई।। बहन-भाई का रिश्ता टूटा। गुरू-शिष्या का भांडा फूटा। वासना आज है प्रेम कहाती, जमीन किसी की,गाढ़ो खूंटा। रिश्ते आज मखोल बन रहे, मानवता बेजार हुई। नर नारी का सौदा करता, नारी नर से दूर हुई।।
वो बोले तुमसे मेरे सारे रिश्ते नाते हैं, मुझे वो शोला भी शबनम नज़र आते हैं, दो तरफा ज़ुबां का चलन जान गये हम, मैं दूरी रखना चाहता हूँ वो क़रीब आते हैं, दौलत-ओ-हुस्न खींच लाता है सबको, वरना कौन किसी को अपना बनाते हैं, पलकों पे बिठाने का इरादा था मेरा, वो हर बार ही हमें दगा दे जाते हैं, रिश्ते क़ायम रखनें की नसीहत देते हैं, रिश्ते जोड़नेवाले, तोड़ने की जहमत उठाते हैं ख़ून के रिश्ते पे यक़ीं था भरोसा था "रत्ती" दौलत की ख़ातिर बाप-बेटे उलझ जाते हैं
क्यों नहीं सुनाई पडती हैं मेरी अजन्मी धडकनें तुमको माँ, क्यों नही महसूस होती मेरी अजन्मी अठखेलियाँ तुमको माँ. क्या सोच पाती हो कि मुझे तुम से भी हैं कुछ आशाएँ माँ, तुम्हारी गोद में प्यार पाने की उत्सुकता है मुझमें भी माँ. और पिता की बाहों मे झूलने की चाह मुझको है अभी माँ, तुम्हारे आंगन में पाजेब की झंकार मुझे है गुंजानी अभी माँ. और भैय्या की राखी अभी से मेरे नन्हे दिल में रखी है माँ, उसकी सूनी कलाई अभी से मुझको दिखाई पडती है माँ. क्यों सोचती हो मेरी मौत अभी से मेरी प्यारी सी माँ, थोडा तो झाँक लेने दो मुझे अपने सुनहरे आंगन में माँ. क्यों तोड डालना चाह्ती हो तुम इस पावन रिश्ते को मेरी माँ, क्यों मेरी अबोध निशब्द चीख तुम तक पहूँचती नही है मेरी माँ
रिश्ते खून के होते जा रहे हैं धूमिल! छोटे-छोटे शुद्र स्वार्थ की पत्तलें-दोने चाटने की ललक जीवन में जब से हो गई है शामिल! हुजूर यह एक अरब से भी अधिक आबादी का देश है, जहाँ सभी की अपनी-अपनी परेशानियाँ हैं; निहायत घटियापन का परिवेश है. कभी-कभी तो लगता है, संबंध अब स्याही नहीं रहे, पेंसिल की लिखावट हो गए हैं. जिन्हें जब चाहे रबड़ से मिटा सकते हैं. नाते-रिश्ते अपने जीवन से हटा सकते हैं, और सिमट सकते हैं अपने खोल में. इसके लिए घोल लेते हैं, खूबसूरती से कडुवापन अपने दो मीठे बनावटी बोल में. पर जानता हूँ मैं और जानते हैं आप भी कि यह एक ख़तरनाक साजिश है, जो खून के रिश्तों के बीच रची जा रही है और साजिश रचने वाले गैर नहीं, आपना ही खून है. तो फिर यह कैसा जुनून है? इसे आप क्या कहेंगे? निरक्षर हैं इसलिए? ज्यादा पढे-लिखे हैं इसलिए? जी नहीं, यह खून की निरर्थक गरमी है. इसलिए रिश्तों के नाम पर इतनी बेशर्मी है. जब तक पिता, बेटे में खोजेगा दोष, धारावाहिक सीरियल देख-देख, सास-बहू निकालेंगी आपसी खोट. छूटेंगे एक-दूजे पर व्यंग्य के तीर. तब तक जारी रहेगी रिश्तों के धूमिल होने की पीर. यह हमारे भीतर के अहँकार का मसला है. इसीलिए जारी यह सिलसिला है.
यूँ तो मानव का जब से हुआ अस्तित्व और शुरू हुआ विकास तभी से शुरू हुआ, उसके चाहतो का संसार हर चीज उसने बनाई ताकि थोड़ा मिल सके आराम हर वस्तु से, हर जिन्दगी से क्षणिक ही सही पर उसने चाहा थोड़ा सा प्यार
जब होश संभाली और बुद्धि विकसित हुई तब पता चला इससे पहले रह चुकी हूं बंद दीवारों के बीच किसी तरुणी के गर्भ-गृह में उस वक़्त, जब मस्तिष्क न था न थी कोई स्मृति दुनिया से न लगाव था न विरक्ति उसने मुझे पाला उसी ने दिया मुझे आकार समर्पित है उसको ये साभार जिसने दिया सबसे पहले थोड़ा सा प्यार
सोचती हूं कभी-कभी सबसे पहले, शुरू हुआ होगा उर में सांसो का आना-जाना जिससे हुआ पहला मिलन वो रहा होगा पवन खुला जब होगा पलकों का शामियाना वो अवस्था होगी अवचेतन सामने होगी सृष्टि और अचंभित रही होगी दृष्टि जिसने जिन्दगी का आगे किया प्रसार उसकी भी निवेदित हैं थोड़ा सा प्यार
जाने किन-किन हाथों के स्पर्श में प्यार मिला कैसे-कैसे शैशव ढला किस-किस ने दुआए की कैसे मिली जीने की शक्ति किसकी लगी मुझे भक्ति ये तो मालूम नहीं पर, जिस-जिस स्पर्श ने मेरे जीने के बढ़ाये आसार उन्हें कर रही याद है थोड़ा सा प्यार
याद तो नहीं पर शायद सुनी-सुनायी बातों का असर हें गोद ही होता था बिस्तर और लोरियों में बीतती रातें कभी सोते तो कभी जागते अद्भुत होता है वो रिश्ता शिशु और ममता का लोरी और निद्रा का कि अभी भी कभी यूँ लगता हें जैसे जेहन में गूंज रही है झंकार वो छिपा हुआ थोड़ा सा प्यार
'पहली कविता' के आयोजन के बाद प्रतिभागियों और सहयोगियों दोनों का आगे बढ़कर के आने ने हमें बल दिया और २० की संख्या से आगे निकलकर पिछले गुरुवार को १०० की संख्या पर पहुँच गये। 'पहली कविता' के तीसरे अंक के प्रकाशन के साथ हमने यह उद्घोषणा की थी कि मई माह ३० भाग्यशाली प्रतिभागियों को डॉ॰ अहिल्या मिश्रा और डॉ॰ रमा द्विवेदी द्वारा संपादित साहित्यिक पत्रिका 'पुष्पक' की एक-एक प्रति भेंट करेंगे। हमने निम्नलिखित प्रतिभागियों को यह पुस्तक भेंट करने का निश्चय किया है-