तमाम गैरजरूरी चीजें
गुम होती जाती हैं घर में, दबे पाँव
हमारी बेखबर नज़रों की मसरूफ़ियत से परे
जैसे बाबू जी की एच एम टी घड़ी
अम्मा का मोटा चश्मा
उनके जाने के बाद
खो जाते हैं कहीं
पुराने जूते, बूढ़े फ़ाउन्टेन पेन, पुरानी बारिशों की गंध
हमारी जिंदगी की अंधी गलियों में
हर जगह कब्जा करती जाती हैं
हमारी चौकन्नी जरूरतें, लालसायें
अलमारी में
पीछे खिसकते जाते हैं
करीने से रखे कॉमिक्स, जीती हुई गेंदे,
पुरानी डायरीज्, मर्फ़ी का रेडियो
बिस्मिला खाँ
शायद
किसी भूली हुई पुरानी किताब में सहेजे रखे हों
किसी बसंत के सूखे फूल, तितलियों के रंगीन पर, एक मोरपंख,
बचपन की उम्र
किसी कोने में औंधा लेटा हो, रूठा हुआ
धूल भरा गंदला टैडी बियर
सालों लम्बी उम्मीद में
कि कोई मना लेगा आ कर उसे
या अभी भी किसी बंद दराज में रखे हों, सुरक्षित
कँवारे डाकटिकट, एंग्री यंग-मैन के स्टिकर्स, टूटी बाँसुरी
पच्चीस पैसे के सिक्के,
ढूँढ़ लिये जाने की बाट जोहते हुए
शायद किसी गुफ़ा में आज भी टंगा हो
सोने के पिँजड़े में बन्द तोता
जिसमे थी उस भयानक राक्षस की जान
जिससे डरना हमें अच्छा लगता था
दुनियादारी के मेले में
एक-एक कर बिछड़ते जाते हैं हमसे
बचपन के दोस्त, लूटी हुई पतंगें, जीते हुए कंचे
रंगीन फ़िरकियाँ, शरारती गुलेलें
परी की जादुई छड़ियाँ
मकानों के कंधों पे सवार मकानों के झुण्ड में
अब नहीं उझकता है, छत पर से चालाक चंदा
अब नहीं पसरती आँगन में, जाड़े की आलसी धूप
धुँधले होते जाते हैं धीरे-धीरे
बाबा की तस्वीर के चटख रंग
दादी की नज़र की तरह
हमारी आँखों को परिधि से परे
ख्वाबों के रंग बदलते जाते हैं एक-एक कर
बदलते मौसमों के साथ
बदलती ज़रूरतों के साथ
और एक-एक कर
आँखों की देहलीज से बाहर चले जाते हैं, सिर झुकाए
गुजिश्ता मौसमों के रंग
कुछ महकते हुए रूमाल
खट्टी इमली का चरपरा स्वाद
हमें घेर कर रखता है टी वी का कर्कश शोर
और हमारे जेहन की साँकलें बजा कर लौट जाती हैं वापस
न जाने कितनी पूनम की रातें
पूरब की कितनी हवाएं
चैत्र की कितनी ओस-भीगी सुबहें
बेसाख्ता बारिशें
लाल घेरों में कैद रह जाती हैं तारीखें
और बदल दिये जाते हैं कैलेंडर
दरअस्ल
यह विस्मृति का गहरा रिसाइकल बिन है
आपाधापी का गहन ब्लैक-होल
जिसमे समाती जाती हैं सारी गैर-जरूरी चीज़ें
और हमें ख़बर नहीं होती
हमें पता नहीं चलता
और किसी दिन यूँ ही
विस्मृति के गहरे रिसाइकिल बिन में
आपाधापी के गहन ब्लैक-होल में
समा जाएंगे हम भी
और दुनिया को खबर नहीं होगी
दुनिया को पता नहीं चलेगा
और बदल दिया जाएगा कैलेंडर।
यूनिकवि- अपूर्व शुक्ल
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
yaadein acchi ho buri rulati hi hain...
"शायद किसी गुफ़ा में आज भी टंगा हो
सोने के पिँजड़े में बन्द तोता
जिसमे थी उस भयानक राक्षस की जान
जिससे डरना हमें अच्छा लगता था"
bachpan ke wo rang sacchai aur kalpana ke beech wo barlin ki deewar....
1993 main gir thi naa?
yaad nahi hai...
"यह विस्मृति का गहरा रिसाइकल बिन है
आपाधापी का गहन ब्लैक-होल"
kehte hain agar black hole hai to 'warm hole' bhi hoga hi?
'Satatus Quo actually !!'
(asha karta hoon mantavya samajh gaye honge...)
aur haan pichle saat dino main ye teesra comment hai....
teeno tumhari post main (ehsaan jata raha hoon)
:)
samay ke sath sath sab kuch badal jata hai aur yaad rah jati hai wo sab purani yaaden..jo jiwan me baar baar uth uth kar hame yaad dilati hai ki ham piche kya chhod aaye hain..bahut sundar abhivyakti...badhayi apurv ji..
Sach hai,.
Sahi samaya par sahi vastu nahi milati.
Sahi sahaayata mile to khoob ho.
Parantu khoyuee huyee baatein , yaadein,,,sab kuch kho jaati hain.
बहुत ही सरल , रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को शब्दों की माला से सुशोभित किया है
सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों से उपजती विडंबनाओं को ढोती पात्रों की बेबसी और असहायता के साथ-साथ अनकी मानवीय दुर्बलताओं को भी रेखांकित किया गया है। अंत तक पठनीयता से भरपूर होना ही इसकी सार्थकता है जिसके जरिये "गुमशुदा चीजों के प्रति"
... विषय को समझने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है और यही इसका निहितार्थ भी है।
जब हम कविताओं में वही सच देखते हैं जो टुकड़ों-टुकड़ों में महसूस कर रहे होते हैं तो हमें वे कविताएँ दिल को छू जाती हैं। आपकी कविता हमारी स्मृतियों की पटरी पर सफर करती है।
आपके पास एक सशक्त भाषा है जिसका प्रयोग आप बहुत सटीक करते हैं।
कविता इतनी सशक्त है कि हर पाठक को
गुजरे जमाने में डूबा देने में सक्षम है ।
आपका ब्लॉग देखा ...
सुन्दर रचना ........
बहुत सुंदर रचना... जितनी धैर्यता के साथ इस कविता का समापन हुआ है वो स्वागत योग्य है...
behtareen rachna
aap ke aane se hind yugm ka munch aur sasakt hua hai
अच्छे भाव हैं , और अच्छा चित्रण भी |
बधाई |
पर, केवल व्यंजना और लक्षणा से ही काव्य बनती है तो मान लेते हैं कि यह कविता है |
अवनीश तिवारी
कविता दिल को छूती है, सच है. सरल और सहज भाषा है, सत्य है. विषय वस्तु, सन्देश, समापन आदि हर तरह से लगता है सब कुछ सराहनीय है. कवि मेरी तरफ बधाई और शुभकामनाएं स्वाकारें.
परन्तु सत प्रतिशत सच कहूँ तो लगता है कुछ कमी है? कविता "एक कविता" नहीं लगती.
हमें घेर कर रखता है टी वी का कर्कश शोर
और हमारे जेहन की साँकलें बजा कर लौट जाती हैं वापस
न जाने कितनी पूनम की रातें
पूरब की कितनी हवाएं
चैत्र की कितनी ओस-भीगी सुबहें
बेसाख्ता बारिशें
लाल घेरों में कैद रह जाती हैं तारीखें
और बदल दिये जाते हैं कैलेंडर
Sach me dil ko chhu jaate hai ye shabd...... jo badi bariki se bune hue hai.... aankhe bhar aai aapki poem padke.....
haan....bahut si aisi hi cheejein ...abhi bhi rakhi hain mere bhi paas...bas thodi dhool pad gayee hai....apne sahi samay par sudh dila di...main bhi chaloon...dhool saf kar aaoon un par se...abhi samay hai...kahin gum hi na ho jayein.....
ये जज्बात` का इको है.... या शब्दों की गूंज ..... बस यही लगता है "वो गुन-गुनाता हुआ निकला तो लगा मेरा हमखयाल गुजरा "|
मुझे लगता रहा है की रचनाओ के स्टाइल को लेकर मै अकेला हूँ और धुंध रहा हूँ.... तुम्हारी कविताओं की अनुगूँज अपनी सी लग रही है|
अद्वितीय कविता के लिए बेहद शुक्रिया|
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)