छोड़िये बेकार की बातें हैं सब,
मेरी सारी चाय ठंडी हो गई
अपना काला मुँह लिये
सूरज निकल आता है रोज़
हाल रहता है वही
बस दिन बदल जाता है रोज़
रोज़ एक कालिख-पुता अख़बार
आ जाता है घर
काग़ज़ों में छुप के अत्याचार
आ जाता है घर
बस इसी को मान लेते हैं
सवेरा हम सभी
सोच लेते हैं कि शायद
छंट गए हैं ग़म सभी
रात की साज़िश
पहन लेती है फिर उजले लिबास
जाम भी मुँह धो के
बन जाते हैं चाय का गिलास
मंदिरों और मस्जिदों से
माफ़ करवा कर गुनाह
खोलते हैं राम और रहमान
फिर अपनी दुकाँ
ज़ुल्म का बाज़ार सज जाता है
पूरी शान से
फिर निकलता है घरों से
डर किसी हैजान से
दौड़ कर बाज़ार से
माबूद ले आते हैं लोग
घर में आटे की जगह
बारूद ले आते हैं लोग
अब बहस का वक़्त है
न और किसी राय का है
ऐसे आलम में सहारा
बस इसी चाय का है
छोड़िये अब गुफ़्तुगू की
क्या ज़रूरत रह गई
ज़िम्मेदारी अम्न की
तोपों के सर पर आ गई
जिंदगी बनकर तबाही
अपने घर पर आ गई
अब वही करतार है
जिस हाथ में तलवार है
छीनकर इस्मत सरे-बाज़ार
जो आज़ाद है
कल रहा होगा दरिंदा
अब वही फ़रहाद है
तालिबे-बंदूक़ कल
हमने बनाया था जिन्हें
अब जो है नाटक का हिस्सा
उसमें मरना है उन्हें
सच तो बस
सच का ही ताबेदार है
झूठ का
ज़्यादा बड़ा बाज़ार है
खेल सारा बस यूँही
चलता रहेगा रोज़ो-शब
कल भी कुछ बदला नहीं था
और न कुछ बदलेगा अब
फ़िक्र करने के सिवा
क्या आपसे हो पायेगा
आपके चक्कर में
चाय का मज़ा भी जायेगा
छोड़िये बेकार की बातें हैं सब
मेरी सारी चाय ठंडी हो गई
---------------------
माबूद- ख़ुदा, भगवान
कवि- नाज़िम नक़वी
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
9 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह..अद्भुत शब्दों की इतनी सुंदर संरचना और सुंदर व्यंग के साथ..
संदेश देती हुई भावपूर्ण कविता..बधाई....
नाजिम जी ,
आपकी कविता पढ़ते पढ़ते हमारी चाय भी ठंडी हो गयी ,सटीक व्यंग है ,पर सूरजको क्योँ घसीट लिया बेकार में और उसका मुहँ भी काला ,समझ में नहीं आया ,
अपना काला मुँह लिये
सूरज निकल आता है रोज़
सूरज की क्या खता है समझ में नहीं आया
जाम भी मुँह धो के
बन जाते हैं चाय का गिलास
मंदिरों और मस्जिदों से
माफ़ करवा कर गुनाह
खोलते हैं राम और रहमान
फिर अपनी दुकाँ
ज़ुल्म का बाज़ार सज जाता है
पूरी शान से
फिर निकलता है घरों से
डर किसी हैजान से
दौड़ कर बाज़ार से
माबूद ले आते हैं लोग
पंक्तियाँ इस कविता की रूह है ,जो हमे बेहद पसंद आई
नाज़िम की नज़्म पर कई चाय कुर्बान।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
व्यंगात्मक संदेशयुक्त कविता बढिया लगी .
वाकई मेरी भी चाय ठंडी हो गयी .
आप चायकी बात करते हैं... आपकी लफ्जों के तीर देख मेरी साँसें ठंडी हो गयी
जिंदगी बनकर तबाही
अपने घर पर आ गई
अब वही करतार है
जिस हाथ में तलवार है
छीनकर इस्मत सरे-बाज़ार
जो आज़ाद है
कल रहा होगा दरिंदा
अब वही फ़रहाद है
तालिबे-बंदूक़ कल
हमने बनाया था जिन्हें
अब जो है नाटक का हिस्सा
उसमें मरना है उन्हें
सहीं है आज की यही तस्वीर है आप के सुंदर तरीके से लिखा है
सादर
रचना
जिंदगी बनकर तबाही
अपने घर पर आ गई
और
छोड़िये बेकार की बातें हैं सब,
मेरी सारी चाय ठंडी हो गई
इन दो एक्स्ट्रीम्स के बीच बँधे रस्से पर चलती जिंदगी की हक़ीक़त बयाँ करती है आपकी कविता..
क्या बात है नाजिम जी.. गजब... बहुत अच्छा...
नकवी जी ,
आपको मेरा हार्दिक नमन .
लगता है दौड़ कर आपके लिए एक और गरम चाय लाउन .
.हरेक शब्द काफी असरदार हैं.
'अब वही करतार है
जिसके हाथ में तलवार है '
कह कर आपने मेरी एक पंक्ति को सहमति दे दी -
मैंने कहा - ' जो कर सके भयभीत वह भगवान होता है ,
जो मिले सब से गले ,वह महज इंसान होता है.'
सादर
कमल किशोर सिंह
अमेरिका
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)