माँ, मुझे नजर लग गयी है किसी की...
मेरी नज़र उतार दे।
अब मुझे लगने लगा है
कि बेकार नहीं थीं तेरी वो मिर्चें जो तू जला देती थी,
मुझ पर न्योंछावर करके, जब-जब बीमार हो जाता था मैं।
अब लगता है पुराने नहीं थे तेरे वो रिवाज,
जब मेरे माथे पर काली टिपकी लगाकर,
दूर रखती थी तू मुझे बुरी नजरों से।
माँ मुझे नजर लग गयी है किसी की,
दिल्ली भर की नजरें घूरती रहती हैं, सुबह से शाम तक।
सबकी हाय है शायद, घुटा-लुटा-पिटा सा बैठ जाता हूँ हर शाम,
थक हार कर, कोई काम नहीं बन रहा आजकल।
माँ! इस बार पंडित जी के पास नहीं जायेगी पूछने,
कौन सा राहू बैठा है पकडकर....?
तू बडी आस से क्यों कहती है चहककर-
" बेटा कब ले चलेगा दिल्ली 'घुमाने' "
माँ! मर जायेगी तू देखकर कि तेरा लाड़ला,
जिसके हर नखरे को तूने हमेशा संभाला है,
बार बार गिर जाता है,
जख्मी घुटने को कोई नहीं सहलाता माँ!
यहाँ कोई नहीं उठाता माँ!
आजकल तेरे हाथ की बनी चाय नहीं,
ताजे गरम गरम आँसू पी लेता हूँ,
क्योंकि इस शहर में रोने पर मनाही है।
यहाँ हर वक्त मुस्कुराना पड़ता है माँ!
तू कैसे कर पायेगी ये फरेब खुद से ही?
पहचान लेगी तू मेरी हर मुस्कान के आँसू को,
कैसे छिपाऊँगा तुझसे मैं..?
माँ, तू मत आ यहाँ!
माँ! तू सिसक उठेगी देखकर उस गन्दे कमरे को,
जहाँ चार दोस्तों के साथ रहता हूँ,
घबरा जायेगी, चिल्ल पों करती सड़क पार करने में,
कहाँ- कहाँ भटकेगी मेरे साथ?
यहाँ दूरियाँ उतनी कम नही हैं, जहाँ हर शाम
तू मेरे साथ बड़ी मंड़ी से सब्जी ले आती थी,
यहाँ किसी को नहीं दिखा पायेगी बार-बार
वो बूटे वाली साड़ी, जो मैंने पहली दफा तुझे दी थी।
माँ! ये तंग दिल वालों का बहुत बडा शहर है।
इन्हीं तंग गलियों में मुझे भी खपना है।
माँ! तू यहाँ मत आना,
या आंखें बंद कर लेना आते वक्त।
मां, मुझे नजर लग गयी है,
इक बार जला दे यहाँ थोडी लाल मिर्च-
मुझ पर न्योंछावर करके,
और काली टिपकी मेरे दोस्तों के माथे पर,
उन्हैं भी बहुत याद आती है मां की!
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
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23 कविताप्रेमियों का कहना है :
इतवार का इन्तज़ार खत्म हो गया ।
"क्योंकि इस शहर में रोने पर भी मनाही है"
रोम रोम खडा हो गया है इस व़क्त़, समझ नही आ रहा कि क्या टिप्पणी दूँ , आपकी इस रचना पर?
जब कविता शुरु हुई तो लगा जैसे मेरा ही बचपन आपकी ज़ुबानी चल रहा है ।
फिर धीरे धीरे हर उस एक नौजवान की क़सक सम्मुख आ खडी हुई, जिससे वह रोज़ रुब़रु होता है इन बेतुके शहरों में ।
मेरा आपसे निवेदन है ख़बरी भैया, माँ को भूल से भी "दिल्ली" ना दिखाना, वरना सारी ममता रो पडेगी ।
आपकी कलम को नमन करता हूँ भैया,
एक बार फिर आप छा गये ।
आर्यमनु ।
देवेश भाई, नज़र तुम्हें नहीं लगी है और अगर लग जाती तो इतना सुन्दर कैसे लिख सकते थे?
औरों का तो पता नहीं, पर मुझे तो कम से कम रुला ही दिया तुमने...
कुछ पंक्तियाँ चुनता पर मुझे लगा ये माँ और तुम्हारे साथ नाइंसाफ़ी होगी क्योंकि हर शब्द सीधा दिल से निकला है और दिल की बात में कम अच्छा अंश कुछ भी नहीं होता।
एक और गुज़ारिश...मेरा मन है कि मैं इसे गाऊं..तो जब तक मैं ना गाऊं, इसे मेरे लिये आरक्षित रखना...
"माँ, मुझे नजर लग गयी है किसी की...
मेरी नज़र उतार दे।"
देवेश जी, आपकी यह रचना बताती है कि आपका लेखन परिपक्व हो चुका है।
"माँ मुझे नजर लग गयी है किसी की,
दिल्ली भर की नजरें घूरती रहती हैं, सुबह से शाम तक।"
"आजकल तेरे हाथ की बनी चाय नहीं,
ताजे गरम गरम आँसू पी लेता हूँ,
क्योंकि इस शहर में रोने पर मनाही है।"
"माँ! तू यहाँ मत आना,
या आंखें बंद कर लेना आते वक्त।"
देवेश तुमपर नजर पडनी ही है, तुम देदीप्यमान जो हो..बहुत सुन्दर रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
भाई,
मर्मस्पर्शी रचना है।
मां की साडी यहां के बाज़ार में नहीं चलेगी। यह बहुत करारा तमाचा है वर्तमान पर।
बहुत अच्छे।
निखिल
प्रिय बन्धु देवेश जी
वाह अतिसुन्दर
'मां मेरी नजर उतार दो' अत्यंत ही मर्म स्पर्शी रचना है. शब्द नहीं हैं प्रशंसा के लिये. हिन्द युग्म पर आते ही दिनोदिन बिलुप्त हो रही मानवीय संवेदनाओं की जो बयार मिलती है वह सराहनीय है. आप सब मित्रों का प्रयास अभिभूत करता है.
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
आपकर रचना को पढ़ कर लगा कि एक पुत्र किस प्रकार अपनी माँ में ममता को पाता है। हर छोटी सी उसे समक्ष रखता है। कितना सटीक है कि आज के आधुनिक दौर में यह बाते एकव्यक्ति आपने मॉं से ही कह सकता है।
देवेश जी, मां के प्यार, गांव के व्यवहार और शहर की दुतकार का सजीव चित्रण कर दिया आपने
बधायी.
देवेश जी नजर आपकी नहीं इस कविता की उतारी जानी चाहिए
बहुत ही भावुक कविता है
very intense and touching .
your poetry has evolved with superior maturity clearly seen in it.
keep it up!
[maaf karen software me kuch prob hai devnagri me nahi type kar paya]
एक बहुत ही भाव -पूर्ण, सशक्त एवम परिपक्व रचना है.
मित्र, अब आपको किसी पारखी पथक के नज़र लगना जरूरी है.
शुभ कामनायें
देवेश जी,
कविता बहुत सुंदर और भावपूर्ण है. रही बात नज़र की तो हम तो कहेंगे- ’चश्मेबद्दूर’.
बहुत ही भावुक कविता...देवेश जी ..माँ लफ़ज़ ख़ुद में ही इतना बड़ा है की इस पर जितना लिखा जाए उतना ही कम लगता है ...दिल को छू लेने वाली इस रचना के लिए बधाई!!
"आजकल तेरे हाथ की बनी चाय नहीं,
ताजे गरम गरम आँसू पी लेता हूँ,
क्योंकि इस शहर में रोने पर मनाही है।"
खबरी जी, संवेदनायें कूट कूट कर भर दी हैं आपने
बहुत अच्छा लिखा आपने
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
'ख़बरी' जी,
मैं पिछले १३ महीनों से अपनी माँ के पास नहीं गया हूँ, क्योंकि समय नहीं निकाल पाया। आज आपकी कविता पढ़कर मुझे माँ की बात और माँ याद आ गई। भावपूर्ण कविता।
ख़बरीजी,
भावपूर्ण कविता!
मगर बहते भावों के साथ ही आपकी कविता में बहुत कुछ ऐसे सत्य भी बह आयें है जो अंतर्मन को गहरी चोट पहूँचा रहे हैं। जैसे -
क्योंकि इस शहर में रोने पर मनाही है।
यहाँ हर वक्त मुस्कुराना पड़ता है माँ!
घबरा जायेगी, चिल्ल पों करती सड़क पार करने में,
कहाँ- कहाँ भटकेगी मेरे साथ?
माँ! ये तंग दिल वालों का बहुत बडा शहर है।
इन्हीं तंग गलियों में मुझे भी खपना है।
आस-पास घटने वाली साधारण बातें/घटनाएँ/परिस्थितियाँ असाधारण रूप में उभरकर आयी है।
बधाई स्वीकार करें।
क्योंकि इस शहर में रोने पर मनाही है।
यहाँ हर वक्त मुस्कुराना पड़ता है माँ!
घबरा जायेगी, चिल्ल पों करती सड़क पार करने में, कहाँ- कहाँ भटकेगी मेरे साथ?
माँ! ये तंग दिल वालों का बहुत बडा शहर है।
इन्हीं तंग गलियों में मुझे भी खपना है।
Shri Devesh ji, its a great poem, aaj ke waqt maha nagaron ki kya maha dasha hai, aap ne bahot bakhoobi bataya hai, and really najar aap ke saath hi aap ki kavita ki bhi utar lena, apne aap hi, realy its a great kavita, actually mere paas devnagiri lipi ki vyavastha na hone ke karan english mein devnagri ka prayog kiya hai, maaf kar dena
khabari ji, kya marmsparsi jordar rachna kar daali aapne. hila diya aapne to.
aapki kavita padh kar maa ki yaad aa gayi,
bahut bahut sadhuwaad
alok singh "Sahil"
अगर मुस्कान इतनी महँगी है तो अपनी माँ को डेल्ही जैसे शहर के बारे में बताना भी ठीक नही होगा माँ की याद किसको नही आती, हर माँ को उसका बच्चा अच्छा लगता है , देवेश जी आपका ये प्रयाश अच्छा लगा , पुत्र के विचार आपनी माँ के बारे में अनिल शर्मा
hum ise aajtak gaurav ki kavita samjh kar iska jikr karte the sabhi se ,aaj pata laga ki yah to gaurav nahi koi aur par yahi kavita hi humaara maadhyam bani thi is hindyugm tak pahunchne ka
tah-e dil se shukriya karti hoon is kavita ka aur is kavita ko likhne waale ka .
khabri ji....bahut hi achha likha he.
such me dil jeet liya.
बहुत ही सुंदर लिखा है. आपकी कविता ने रुला दिया लगा माँ से ही बात कर रही हूँ. बहुत अच्छा लिखा है.
प्रिये देवेश जी,
लिखने को अब कुछ बाकी रह ही नहीं गया, अभी - अभी सुबह कॉलेज में क्लास पढ़ने आया था, और आपकी कविता पढ़ी और सच में रो दिया. बहुत ही मर्म स्पर्शी रचना. आपको कॉल कि मगर शःयद मशरूफियत के वजह से आप मेरी कॉल पिक नहीं कर पाए, सो अपनी प्रतिक्रिया छोड़ रहा हूँ.
शाहिद 'अजनबी"
9044510836
Aapne likhne ko kuchh chhoda jahah .bas itna kah sakta hoon bahoot khoob..........
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