जुलाई २००९ मे यूनिकवि रह चुके अखिलेश कुमार श्रीवास्तव यूनिप्रतियोगिता के स्थाई प्रतिभागियों मे से हैं. जमीनी सरोकारों से जुड़ी उनकी कविताएं अपनी गम्भीरता के कारण हर बार निर्णायकों और पाठकों का ध्यान आकृष्ट करती हैं. गत दिसम्बर माह की यूनिप्रतियोगिता मे उनकी कविता ने दूसरा स्थान प्राप्र्त किया.
पुरस्कृत कविता- विदर्भ: कर्जे में कोंपल
मैं इक खेतिहर बाप हूँ
पर कहाँ से छीन कर लाऊँ रोटी.
सुना है कुछ लोग लौटे है कल चाँद से
रोटी जैसा दिखता था कमीना
पत्थर निकला.
बरसों हुए खेत में
बिना कर्जे की कोपल फूटे.
धरती चीर कर निकले
छोटे छोटे अंकुर
मेड पर साहुकार देखते ही
सहम जाते है.
अंकुर की पहली दो पत्तियाँ
सीना ताने आकाश से बाते नहीं करती
वो मिट्टी की तरफ झुकी रहती है
मेरे कंधे की तरह.
हर पिछली पत्ती
नयी निकलने वाली कोंपल को
बता देती है पहले ही
तेरे उपर जिम्मेदारी ज्यादे है
ब्याज बढ़ चुका है पिछले दस दिनों में.
अपने बच्चे का बचपन बचा पाने की कोशिश में
हर किसान देखना चाहता है अपने पौधों को
समय से पहले बूढ़ा.
प्रधान के लहलहाते खेतों को देखकर
जाने क्या बतियाते रहते है मेरे पौधे
कल निराई करते समय सुनी थी मैंने
दो की बात
इस जलालत की जिंदगी से मौत अच्छी है
मेरे राम
दयालु राम सुनते है उनकी प्रार्थना
एक साल अगन बरसा ले लेते है अग्नि परीक्षा
दुसरे साल दे देते है जल समाधि अपने भक्तो को
अपनी तरह.
मेरा लंगोटिया यार बरखू किसान भी मेरे जैसा ही है
उसके यहाँ भी कोई नहीं मना करता बच्चो को
मिट्टी खाने से.
विज्ञान औंधे मुंह गिरा है विदर्भ में
वहाँ मिट्टी खाने से मर जाते है पेट की कीड़े.
कुँआ कूद कल मरा है बरखू
घर में सब डरे हैं कि
अपने घर में सब के सब जिन्दा है अब तक.
बीजों पर कर्जा
रेहन पर खेत
अब क्या बेचूँ
मुह में पल्लू ठूँस लेती है मेरी बीवी
मेरा सवाल सुनकर
रोने की आवाज़ सुनकर जाग गए बच्चे
तो फिर जपने लगेंगे
नारद की तरह रोटी-रोटी
अपने बालो को बिखराए
चेहरे पर खून के खरोंचे लिए
मुह से फेन गिराती
पिपरा के पेड़ के नीचे
कल शाम से खिल खिला कर हँस रही है
मेरी घरतिया
दो माह के दूधमुँहे छुटके को
दो सौ में बेच कर आयी है डायन
आज मेरे चारो बच्चे भात और रोटी
दोनो खा रहे है
पांचवा मैं खा लूँ गर
थोडा सा भात
पांच लोगो को श्राद्ध खिलाने की
पंडित जी की आज्ञा पूरी हो
मिल जाये छुटके को जीते जी मोक्ष .
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
"मेरी घरतियादो माह के दूधमुँहे छुटके को दो सौ में बेच कर आयी है डायनआज मेरे चारो बच्चे भात और रोटीदोनो खा रहे है पांचवा मैं खा लूँ गर थोडा सा भात पांच लोगो को श्राद्ध खिलाने की पंडित जी की आज्ञा पूरी हो मिल जाये छुटके को जीते जी मोक्ष" - ऐसा भी होता है. किसानो और खेतिहरों के दर्दों को उजागर करती रचना. अखिलेश कुमार श्रीवास्तव जी, समसामयिक विषय और सुंदर रचना.
बेहद मार्मिक कविता..एक किसान के मन की व्यथा दर्शाती ...बहुत सुंदर कविता..अखिलेश जी बधाई!!
कर्जे से दबे किसानो और उनके परिवार की व्यथा की बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति ...!!
अखिलेश जी की कविताएं अक्सर जमीन के उन उपेक्षित कोनों पर मशाल बनती हैं जहाँ तक उम्मीद के सूरज की किरणे भी अक्सर मुश्किल से ही पहुंच पाती हैं..यह कविता भी कर्जे मे डूबे किसान के दर्द को सबसे साझा करने का माध्यम बनती है..खासकर अंतिम पंक्तियाँ तो प्रेमचंद जी की कफ़न की याद दिला देती हैं.
अखिलेश भैया
प्रेमचंद जी के कथाओं और उपन्यासों के बाद किसानो की व्यथा पर कोई काव्य रचना मुझे पहली बार इतनी या यूँ कहें सबसे खूबसूरत लगी है |
आपकी इस लेखनी में छुपा दर्द ही इसकी खूबसूरती है |
बहुत ही ज्यादा मार्मिक और उतनी ही ज़मीनी और बेहद खुबसूरत | गाँव का रहने वाला हूँ सो मैं तो इस रचना को १०० में १०० अंक देता हूँ |
बधाई स्वीकारें
दो माह के दूधमुँहे छुटके को
दो सौ में बेच कर आयी है डायन
आज मेरे चारो बच्चे भात और रोटी
दोनो खा रहे है
बेहद मार्मिक कविता और आज के किसानों की दुर्दशा को दर्शाति सफ़ल और विचारणीय अभिव्यक्ति..बहुत-बहुत बधाई अखिलेश जी!
aap ki kavita mujhko rula gai kitni achchhi tarah se aap ne likha hai
badhai
rachana
aap sab ko itni prasansa ke liye dhanyabaad.
itni prasansa pacha nahi pa raha hoon.
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