कृष्णकांत की काव्यप्रतिभा से हमारे पाठक परिचित हैं। फरवरी 2010 के यूनिकवि कृष्णकांत अपनी कविताओं में समाज के गरीब, किसान, स्त्री, दलित और बहुत से उपेक्षितों का दुःख-दर्द समेटते हैं। ऐसी ही एक कविता, आपकी नज़र----
विदर्भकन्या की मौत पर
सूर्यकान्ता राधेश्याम पटेल!
तुम नहीं दे सकी
उन मुर्दा कंकालों का साथ
जो बिलबिलाते फिरते हैं
विदर्भ की धरती पर
तुम जी सकती थी
उनके साथ
संसद की बहसें और
घोषणाएँ सुनते हुए
और गोबर से दाने बीनकर भी तो
पेट भरा जा सकता था
तुमने क्यों न किया
भूख से तड़पने और जीते जाने की
परंपरा का निर्वाह?
तुम जी सकती थी
अरबपतियों की संख्या पर इतराकर
विकास-दर पर कूल्हा पीटते हुए
तुम जी सकती थीं
इस देश की
टुकड़ा-टुकड़ा अस्मिताओं पर
गर्व से फूली हुई
बुजदिल!
तुमने क्यों नहीं किया इंतजार
कि आयेंगे इक दिन
‘युवराज'
तुम्हारे अंगना
तुम्हारी खटिया पर बैठकर
रोटी खायेंगे
लोटे में पानी पियेंगे
और हर लेंगे सारे दुःख
जैसे कृष्ण ने हर लिया था
सुदामा का
वैसे सच कहूँ
तुम्हें जीने का हक ही नहीं था
जब पूरा हिन्दुस्तान
झूम रहा है
चीयर लीडर्स के साथ
तब तुम क्यों विचलित हुईं
अपनी झुलसी फसलें देखकर
सूर्यकान्ता
तुम नहीं हो तो क्या
विदर्भ की धरती तो तब भी
मनाती रहेगी
तमाम भूखे मरियल वसन्त का उल्लास
आगे भी।
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3 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही गंभीर कटाक्ष, यह सच है की जहाँ एक और गरीब जनता गरीबी और भूख से मरती है तो वही दूसरी और देश को चलाने का ढिंढोरा पीटने वाले अपनी ही मस्ती और अपनी ही विकास दर में मस्त मिलते है,
धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
कृष्णकान्त की कवितायेँ समाज के एक ऐसे हिस्स्से की कवितायेँ हैं जिसे किसान कहते हैं .
पूरे देश का पेट भरने वाले इस समुदाय पर ऐसी बेधक कवितायेँ कम देखने को मिल रही हैं .
कृष्णकांत आशा बंधाने वाले युवा हैं ,शहरों की चकाचौंध में यदि यह कवि खो न गया तो कुछ अच्छा करेगा .
Great hai ye aapki soch aapki subhkamnao ke pusp wahan tak jakar jaroor mahke aasha karta hoon
Gangesh Kumar Thakur
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