अखिलेश श्रीवास्तव हिन्द-युग्म के ऐसे यूनिकवि हैं जो हर दफ़ा प्रतियोगिता का हिस्सा बनते हैं और हर बार ही निर्णायकों का ध्यान खींचते हैं। अक्टूबर महीने में इनकी एक कविता तीसरे स्थान पर रही।
पुरस्कृत कविता
संरचना: असंघनित अणुओं के रूप में
रंग: रंगहीन
सुगंध: गंधरहित
स्वाद: आंशिक क्षारीय
स्थान: चाँद के मस्तक के ठीक नीचे
वैज्ञानिको, मत चिल्लाओ
यूरेका यूरेका
जो मिला है वो पानी नहीं है।
ढाई सौ टन का जो उपग्रह टकराया है सतह से
उसी से रुआँसा हो गया चाँद
निकल पड़े है आँखों से आँसू।
आये दिन कोई न कोई
रपटईया आता चाँद को
देखो जरा
चाँद का मुँह टेढ़ा हो गया है।
जब तक बूढ़ा चाँद
कला के साथ रहता था
खुश था
कभी चमक उठता था कवियों की आँखों में
कभी छुप जाता था महबूब के गेसुओं में
जब मन तब
उतर आता था
बच्चों की थाली में।
विज्ञान के वादों में आकर
चाँद फँस गया है
उलझ गया है हजारों टन उपग्रहीय कचरे में
कभी कभी तो बेचारा
मुँह भी नहीं देख पता
धरती का।
पिछले दिनों
एक उपग्रह टकरा गया
सप्त ऋषियों से
जब वो जा रहे थे सुबह को बुलाने
चटक गया अगस्त ऋषि का कमंडल
लहूलुहान हो गए अत्री
और टांग तुड़वा बैठे है ऋषि गौतम
चिड़चिड़े हो गए सप्त ऋषि
क्रोध में बड़बड़ाते रहते हैं
और
बढ़ जाती है धरती पर सुनामियाँ।
उधर ग्राम भुसना में
परसु कहार
सुबह से इंतज़ार में है
कि जुठारे ठाकुर कुएँ का पानी
बना दे गंगा जल
तो हमहू तर करे गला।
चाँद पर पानी मिलने की खबर से
कहार मगन है
पर कहारिन उतार देती है नशा
'मिली पानी त
पहिले पिहे ब्रह्मण
फिर पिहे ठाकुर
औ जबले तोहार
लम्बर आई
ओरा जाई पानी।'
पुरस्कार- रामदास अकेला की ओर से इनके ही कविता-संग्रह 'आईने बोलते हैं' की एक प्रति।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
9 कविताप्रेमियों का कहना है :
नया तरकीब और विषय अच्छा लगा | बधाई |
लेकिन कविता के नज़र से कोई भी बात नहीं है रचना में :( कविता है भी या नहीं ?
आपसे नए विषय लिए और अच्छी रचना की चाह है |
आपका
अवनीश तिवारी
manchan ke liye achcha kathya hai par kavita jaisa shaayad ????
मिली पानी त
पहिले पिहे ब्रह्मण
फिर पिहे ठाकुर
औ जबले तोहार
लम्बर आई
ओरा जाई पानी।'
..........बेमिसाल
विग्यान कितना भी तरक्की कर ले..
देश जितना भी गर्व करे कि हमने चांद पर पानी ढूंढ लिया..
पर आज भी
हमारे देश में फैला जातिवाद
सारा नशा उतार देता है..
मिली पानी त....
वाकई इस बार हिन्दयुग्म की यूनिकवि प्रतियोगिता में कविता चयन में
जजों को काफी मेहनत करनी पड़ी होगी
bahut sundar...badhiya rachana ..
एक नया प्रयोग दिखता है इस अद्भु्त कविता मे..प्रचिलित प्रतीकों से बाहर जा कर आज के स्पेस-एज की फ़तांसियों मे रोज-मर्रा के सामान्य जीवन की सामंती विडम्बनाओं का संयोजन और संबन्ध अद्भुत ढंग से दर्शाया गया है इस कविता मे..छायावाद से ले कर प्रगतिवाद और फिर प्रयोगवाद के सारे तत्वों को मिला कर बेहतरीन प्रस्तुति करने के लिये बधाई, अखिलेश जी !!
पिछले दिनों
एक उपग्रह टकरा गया
सप्त ऋषियों से
जब वो जा रहे थे सुबह को बुलाने
चटक गया अगस्त ऋषि का कमंडल
बहुत खूब..
क्या कविता है क्या नहीं , सच कहू तो मैं आज तक समझ ही नहीं पाया. सैलेश जी क गोष्ठी इस पर होनी चाहिए. मैं क्या कोई भी शायद सोच कर कविता नहीं लिखता होगा की इसमें प्रतीक , भावः , कथ्य डाला जाये , यह तो हर रचना का अपना भाग्य होता है कि उसके हिस्से में कितना कविता तत्त्व आ पाया है, इसी क्रम में यह रचना इक नए विषय ( जिसमे कुछ नए प्रतीक भी आ गए गए ) कुछ सास्वत समीकरणों के न बदले जाने वाले हल की तरफ इशारा है.अवनीश जी/नीलम जी समेत सभी सुधि पाठको को धन्यबाद, हो सकता है अगली कविता के भाग्य में कुछ ज्यादा हो, इतना की सबको अपने अपने रंग मिले..
अखिलेश
कविता अच्छी लगी | 'चाँद का मुंह टेढा है '(मुक्तिबोध) 'बुढा चाँद' और 'ठाकुर का कुआ' अच्छा आज के परिवेश पर अच्छा व्यंग्य है|
My cousin recommended this blog and she was totally right keep up the fantastic work!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)