दोहा दे शुभकामना, रहिये सदा प्रसन्न.
कीर्ति सफलता लाई है, बैसाखी आसन्न.
आभारी हैं हम सभी, हुए उपस्थित श्याम.
शोभा कक्षा की बड़ी, है सुझाव अभिराम.
छंदत्रयी से दिल लगा, जिसका वह है धन्य.
ध्वज फहरातीं अजित जी, प्रतिभापुंज अनन्य.
अजित जी! 'दयी' का उपयोग करना अपरिहार्य तो नहीं है...शेष सही, बधाई. कुंडली लेखन का अच्छा प्रयास... लय क्रमशः सधेगी. सोरठा है तो सही पर अजित जैसी प्रतिभावान रचनाकार के प्रयास में कथ्य का दोहराव क्यों? आपके पास तो विषयों और शब्दों का भंडार है.
विदुषी कक्षा-नायिका, शन्नो जिसका नाम.
उत्साहित सबको करें, करें निरंतर काम.
शन्नो जी! दोहा बिलकुल सही है...शत-प्रतिशत अंक. 'मनन चिंतन जतन करके' मात्रा १४, लय भंग...मनु जी का संशोधन सही... किन्तु तीसरी पंक्ति का उत्तरार्ध आपका सही है...कुल मिलकर आप और मनु जी बहुत शीघ्रता न कर एक बार दोहरा लें तो छंद की त्रुटियां समाप्त हो जायेंगी.
पूजा-मनु भी छंद को, रहे निरंतर साध.
कोशिश जारी रखें तो, पायें कीर्ति अबाध.
तपन न मात्रा से डरें, लय का रखिये ध्यान.
छंद स्वयं सध जायेगा, करें निरंतर गान.
शोभा सीमा दिवाकर, रश्मि निखिल देवेन्द्र.
संगीता साहिल तपन, तनहा औ' भूपेन्द्र.
तनहा औ' भूपेंद्र, रंजना अरुण न दिखते.
किसलय विनय सुलभ शैलेश अर्श क्यों छिपते?
मानोशी अवनीश सहर हरिहर-मन को भा.
आजायें रविकांत सुनीता को ले शोभा.
दोहा, सोरठा, रोला और कुण्डली के अभ्यास के इन पलों में अनुपस्थित सहभागी उपस्थित होकर साथ चलें तो आनंद शतगुना बढ़ जायेगा... आगामी कक्षा से दोहा के २३ प्रकारों की चर्चा के साथ-साथ दोहा के वैशिष्ट्य और योगदान पर बातें होंगी. आप उक्त चरों छंदों में स्वरचित या आपको पसंद रचनाएं लाइए ताकि हम सभी उनका आनंद ले सकें.
गोष्ठी के समापन से पूर्व एक रोचक प्रसंग
एक बार सद्गुरु रामानंद के शिष्य कबीर दास सत्संग की चाह में अपने ज्येष्ठ गुरुभाई रैदास के पास पहुंचे. रैदास अपनी कुटिया के बहार पेड़ की छंह में चमडा पका रहे थे. उनहोंने कबीर के लिए निकट ही पीढा बिछा दिया और चमडा पकाने का कार्य करते-करते बातचीत प्रारंभ कर दी. कुछ देर बाद कबीर को प्यास लगी. उनहोंने रैदास से पानी माँगा. रैदास उठकर जाते तो चमडा खराब हो जाता, न जाते तो कबीर प्यासे रह जाते...उन्होंने आव देखा न ताव समीप रखा लोटा उठाया और चंदा पकाने की हन्दी में भरे पानी में डुबाया, भरा और पीने के लिए कबीर को दे दिया. कबीर यह देखकर भौंचक्के रह गए किन्तु रैदास के प्रति आदर और संकोच के कारन कुछ कह नहीं सके. उन्हें चंदे का पनी पीने में हिचक हुई, न पीते तो रैदास के नाराज होने का भय... कबीर ने हाथों की अंजुरी बनाकर होठों के नीचे न लगाकर ठुड्डी के नीचे लगाली तथा पानी को मुंह में न जाने दिया. पानी अंगरखे की बांह में समा गया, बांह लाल हो गयी. कुछ देर बाद रैदास से बिदा लेके कबीर घर वापिस लौट गए और अंगरखे को उतारकर अपनी पत्नी लोई को दे दिया. लोई भोजन पकाने में व्यस्त थी, उसने अपनी पुत्री कमाली को वह अंगरखा धोने के लिए कहा. अंगरखा दोहे समय कमाली ने देख की उसकी बांह लाल थी... उसने देख की लाल रंग छूट नहीं रहा तो उसने मुंह से चूस-चूस कर सारा लाल रंग निकाल दिया...इससे उसका गला लाल हो गया. कुछ दिनों बाद कमाली मायके से बिदा होकर अपनी ससुराल चली गयी.
कुछ दिनों के बाद गुरु रामानंद तथा कबीर का काबुल-पेशावर जाने का कार्यकरण बना. दोनों परा विद्या (उड़ने की कला) में निष्णात थे. मार्ग में कबीर-पुत्री कमाली की ससुराल थी. कबीर के अनुरोध पर गुरु ने कमाली के घर रुकने की सहमति दे दी. वे जब कमाली के घर पहुंचे तो उन्हें घर के आगन में दो खाटों पर स्वच्छ गद्दे-तकिये तथा दो बाजोट-गद्दी लगे मिले. समीप ही हाथ-मुंह धोने के लिए बाल्टी में ताज़ा-ठंडा पानी रखा था. यही नहीं उनहोंने कमाली को हाथ में लोटा लिए हाथ-मुंह धुलाने के लिए तत्पर पाया. कबीर यह देखकर अचंभित रह गए की हाथ-मुंह धुलाने के तुंरत बाद कमाली गरमागरम खाना परोसकर ले आयी.
भोजन कर गुरु आराम फरमाने लगे तो मौका देखकर कबीर ने कमाली अब पूछ की उसे कैसे पता चला कि वे दोनों आने वाले हैं? वह बिना किसी सूचना के उनके स्वागत के लिए तैयार कैसे थी? कमाली ने बताया कि रंगा लगा कुरता चूस-चूसकर साफ़ करने के बाद अब उसे भावी घटनाओं का आभास हो जाता है. तब कबीर समझ सके कि उस दिन गुरुभाई रैदास उन्हें कितनी बड़ी सिद्धि बिना बताये दे रहे थे तथा वे नादानी में वंचित रह गए.
कमाली के घर अब वापिस लौटने के कुछ दिन बाद कबीर पुनः रैदास के पास गए...प्यास लगी तो पानी माँगा...इस बार रैदास ने कुटिया में जाकर स्वच्छ लोटे में पानी लाके दिया तो कबीर बोल पड़े कि पानी तो यहाँ कूदी में ही भरा था, वही दे देते. तब रैदास ने एक दोहा कहा-
जब पाया पीया नहीं, था मन में अभिमान.
अब पछताए होत क्या नीर गया मुल्तान.
कबीर ने इस घटना अब सबक सीखकर अपने अहम् को तिलांजलि दे दी तथा मन में अन्तर्निहित प्रेम-कस्तूरी की गंध पाकर ढाई आखर की दुनिया में मस्त हो गए और दोहा को साखी का रूप देकर भव-मुक्ति की राह बताई -
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढें बन मांहि.
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नांहि.
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25 कविताप्रेमियों का कहना है :
आचार्य जी
नमन। मैंने उदाहरण के रूप में दोहे का उल्टा सोरठा लिखा था, अब आपका सान्न्ध्यि मिला है तो नवीन भी लिखना आ ही जाएगा। एक कुण्डली लिखी है कृपया देखें -
लोकतन्त्र की गूँज है, लोक मिले ना खोज
राजतन्त्र ही रह गया, वोट बिके हैं रोज
वोट बिके हैं रोज, देश की चिन्ता किसको
भाषण पढ़ते आज, बोलते नेता इनको
हाथ हिलाते देख, यह मनसा राजतंत्र की
लोक कहाँ है सोच, हार है लोकतन्त्र की।
सभी वरिष्ठ जानो को प्रणाम ,
दोहे और उसके भाई सोरठा के बारे में पढ़कर बहुत कुछ सीखने को मिला | आपके चरणों में अपने लिखे 2 दोहे पेश कर रहा हूँ ..
मैं अपने को जप रहा चादर से निकले पॉंव |
अभिमानी जन के होवे नहीं कोई नाम और गाँव ||
झूठ झूठ में जग रमा सांचा न दिखया कोई |
सच जो बोलन मैं चला सब जग बैरी होई ||
आचार्य जी, प्रणाम
दोहे लिखने का कोई भी ज्ञान न होने पर भी लिखने में क्यों रूचि हो गयी मुझे अब तक समझ नहीं पायी हूँ अपने को. अनेकों त्रुटियों को आपने ठीक किया है, और मेरा हौसला भी बढ़ाते रहे कभी प्रोत्साहन देकर तो कभी प्रशंशा कर के जिसके काबिल मैं हूँ कि नहीं, सोचकर संकोच लगता है. लेकिन मन को बहुत अच्छा लगा और तभी मैं साहस करती रही हर बार कुछ लिखने का. यह आपकी महानता है कि आपके शब्द मुझे प्रेरणा देते रहे और तभी मैं कुछ न कुछ लिखने का प्रयास करती रही और आपकी सलाह पाकर मैं सम्मानित हुई. इस विषय में आरम्भ में डर सा लगा क्योंकि कोई नियम नहीं पता थे. अब भी किसी नयी चीज़ को पढ़कर वही डर सताने लगता है लेकिन थोड़ा सा आत्मविश्वास आ जाता है कुछ जानकर तो फिर मन में उमंग आ जाती है. अजीब सा हाल है मेरा. पर फिर भी मैदान में डटी हुई हूँ. आज एक कुंडली लिखी है और इस पर भी आपके बिचार जानना बहुत आवश्यक है.
जहाँ हों गुरु के चरन, चंदन बनती धूल
पाकर चरनो में सरन, मिले शांति का कूल
मिले शांति का कूल, सफल उसका जीवन हो
किंचित करे न सोच, तभी मन भी पावन हो
मिले सीख की लीक, मान 'शन्नो' का कहना
भूल-भाल अभिमान, दया का पहनो गहना.
आपकी विनीत शिष्या ~
शन्नो
क्या बात है,
आज तो आचार्य ने सारे के सारे लापता विद्यार्थियों की हाजिरी तलब की है,,,
अब तो कक्षा नायिका , के भी पकडे कान
फुटक रहे हैं छात्र सब , देती क्यूं ना ध्यान
:::::)))
अभिनंदन है अजित जी!, रची कुण्डली खूब।
लोकतंत्र की नाव सच, लगता जाए न डूब।।
लगता जाए न डूब, बचाता हरदम विधना
शायद ऐसे ही पूरा हो अपना सपना।
रहें अजित यह देश 'सलिल' करता है वन्दन।
रची कुण्डली खूब अजित जी है अभिनन्दन ।
अभिषेक जी! दोहा-दरबार में आपका हार्दिक स्वागत। दावेदारी को मजबूत करने के लिए पिछले पाठ समझ लीजिये। आपका प्रयास अच्छा है पर इसे बहुत अच्छा बनने के लिए कुछ परिवर्तन करें। एक उदाहरण देखें-
मैं अपने को जप रहा चादर से निकले पॉंव | चरण २ -लय दोष।
अभिमानी जन के होवे नहीं कोई नाम और गाँव || चरण ३-४ मात्राधिक्य।
मैं अपने को जप रहा, चादर-बाहर पाँव।
अभिमानी जन का नहीं, कहीं नाम या गाँव।
झूठ झूठ में जग रमा सांचा न दिखया कोई |
सच जो बोलन मैं चला सब जग बैरी होई ||
मित्र यह भाषा सदियों पहले की लगती है, आजकल होई, बोलन, दिखया जैसे प्रयोग अशुद्धि कहे जाते हैं, इनसे बचना बेहतर है। दोहा के पदांत में दीर्घ मात्रा वर्जित है।
झूठ-झूठ में जग रमा इसका आशय यह हुआ की वह झूठ जो झूठा है अर्थात सत्य...अंगरेजी में भी दो नेगेटिव मिलकर अफर्मेटिव होते हैं... जबकि आपका आशय यह नहीं है। अतः, झूठ का दो बार प्रयोग यहाँ न करें। इन दोहों को दुबारा लिखें. आपमें क्षमता है...सफलता हेतु शुभकामना...
आचार्य जी,
आप नाराज़ नहीं होंगें ऐसी आशा करती हूँ क्योंकि कल एक कुंडली लिख कर भेजी थी, उसमे कुछ गड़बडी हो गयी है. उसे सुधारकर भेज रही हूँ. वह पहले वाली भूल जाइये. गलती करने की क्षमा मांगती हूँ. इसके बारे में भी पक्का नहीं कह सकती कि ठीक लिखी है कि नहीं. फिर भी प्रस्तुत है:
जहाँ पड़ते गुरु-चरन, चंदन बनती धूल
पाकर चरनों में सरन, मिले शांति का कूल
मिले शांति का कूल, सफल उसका जीवन हो
किंचित करे न सोच, साथ में मन पावन हो
मिले सीख की लीक, कहे बात 'शन्नो' यहाँ
मन को अपने लगा, सच्चा नेह मिले जहाँ.
शन्नो जी!
कुण्डली की संसद में दमदारी से प्रवेश मरने के लिए बधाई. 'जहाँ पड़ते गुरु-चरन' मात्रा१२, १३ चाहिए, 'जहाँ पड़ें गुरु के चरण' करने में आपत्ति न हो तो मात्रा १३ होंगी, अर्थ भी नहीं बदलेगा. शेष कुण्डली सही है.
'जहाँ पड़ें गुरु के चरण, चंदन बनती धूल
पाकर चरणों में शरण, मिले शांति का कूल
मिले शांति का कूल, सफल उसका जीवन हो
किंचित करे न सोच, साथ में मन पावन हो
मिले सीख की लीक, कहे बात 'शन्नो' यहाँ
मन को अपने लगा, सच्चा नेह मिले जहाँ.
आचार्य जी,
आपका बहुत धन्यबाद कि आपने मेरी लिखी कुंडली को पढ़ा और उसे सही किया. लेकिन जो दोहा का प्रथम चरण जिसे आपने सही किया है वहाँ मैंने भी बिलकुल यही शब्द लिखे थे आप विश्वाश कीजिये. पर मुझे लगा उसमें १४ मात्राएँ हैं. इसीलिये मैंने बदलाव किया. आप कृपा करके explain करें कि मैं कहाँ पर मात्रा में धोखा खा गयी.
जहाँ पड़ें गुरु के चरण
१ २ १ २ १ २ २ १ १ १ = १४
अब आप बताइये कि गुरु में रु में एक मात्रा है या दो? मैंने दो count करीं थीं.
पूजा जी!
कुण्डलीकार के रूप में आपको बधाई...मुझे निम्न रूप अधिक भाया,शेष आप देख लें
रचना रोला भूमिका, दोहे के संग साथ ,
बना रहे हैं कुण्डलिनी, लिये हाथ में हाथ ,
लिये हाथ में हाथ, सूर्य चंदा नभ तारे,
जग उजियारा करें, उल्लसित मन हों सारे,
पूजा गति-यति जानकर, हमराही इनको बना ,
मिला कदम से कदम, भूमिका रोला रचना .
मनु जी,
मेरे तो कान खिंच गए आपके दोहे में लेकिन आप कहाँ फुदक रहें हैं? पहेली की कक्षा में मिलते हैं फिर जल्दी ही.
शन्नो जी!
वन्दे मातरम.
'गुरु' में १+१ =२ मात्राएँ है. 'गुरू' १ + २ + ३ का आशय गुरु घंटालों से है. शिक्षक का समानार्थी गुरु का 'रु' लघु है. व्यंगार्थ में 'रू' करना आंचलिक प्रभाव है. कहो गुरू, वो तो गुरू है, गुरू से दूर रहना, गुरू ने किसी को नहीं छोडा.. आदि प्रयोग द्रष्टव्य हैं. एक दोहा देखिये
प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर.
चीटी ले शक्कर चली, हाथी के सर धूर.
शायद इसीलिये गुरु जी भी लघु 'रु' से संतुष्ट हैं, दीर्घ 'रू' के चक्कर में नहीं पड़े. अस्तु...
goshthee 12 -ke pahale hee dohe ke teesare charan main 14 maatraayen hain.
hind yugm se kaise jud sakate hain?
आचार्य जी,
शत-शत प्रणाम
आपने शीघ्र ही कृपा की और मेरी समस्या का उपचार किया जिसका बहुत धन्यबाद. आगे भी आपकी सहायता से सीखती रहूंगी.
दुखी बहुत ही मन हुआ, समझ ना कुछ आया
जब मिला आपका साथ, तब जरा लिख पाया
आदत गिनती की पड़ी, मनु का कहना मान
बूँद-बूँद पी ज्ञान की, अब आई मुसकान.
hum aapke saath hain.....
आचार्य जी,
सुबह फिर जल्दी में गलती की. कान पकड़ कर क्षमा मांगती हूँ. नाराज़ नहीं होना, please. इस बिचारी कुंडली को भी देख लीजिये, यह दया की आँखों से आपको देख रही है.
पाया मैंने बस तनिक, मुझे बहुत ना ज्ञान
मैं छोटी सी कंकरी, आप ज्ञान की खान
आप ज्ञान की खान, चमकते हीरे जिसमे
तुलना कोई करे, हो सके साहस किसमें
रहे सभी के साथ, 'शन्नो' को भी बताया
साथ आपका मिला, हमने बहुत ही पाया.
आचार्य जी,
आपने 'आवाज़' पर जो कहा उसका पालन करते हुए एक कुंडली और एक दोहा लिखने की हिम्मत की है. इन दोनों का जायका लेकर बताने की कृपा करें.
कुंडली:
खड़ी हुई रसोई में, मैं करती थी कुछ काम
उसी समय याद आया, एक गाने का नाम
एक गाने का नाम, जिसमे आँसू भरे तराने
मूड में कुछ आकर, लगी मैं उसको गाने
मनु की बातें पढीं, 'शन्नो' बहुत हँस पड़ी
आज्ञा पा 'सलिल'की, मैं कुंडली लिखूं खड़ी.
रोला:
किया किचन में काम, लगी मैं गाने गाना
मनु ने जान तुंरत, शुरू कर दिया खिझाना
हंसी में फंसकर, फिर गयी किचन को भूल
ही, ही, ही मैं हंसी, मैं भी कैसी हूँ फूल.
आचार्य जी,
वह कुंडली जिसमे मैंने कान पकड़ कर क्षमा मांगी है उसमें कुंडली के छठे चरण में 'शन्नो को भी बताया' की जगह 'शन्नो को भी पढ़ाया' होना चाहिए, ऐसा मेरा बिचार है. टाइप करते समय उंगली फिसल गयी थी गुरु जी. आगे से अपनी तरफ से पूरी कोशिश करने का प्रयत्न करूंगी कि आपको इतनी बार तकलीफ ना दूं.
आचार्य जी,
Good morning
देर-अबेर ही सही पर नंबर मिलने के पहले गलती का अहसास होने पर भूल-सुधार का प्रयत्न:
१.
दोहे का दूसरा चरण में:
मैं करती थी कुछ काम - १३ मात्राएँ होने से गलत है
करती थी कुछ काम - ११ मात्राएँ हैं, अब सही है ना?
और रोला में अंत के चार चरणों में:
किया किचन में काम, लगी मैं गाने गाना
मनु ने जान तुरंत, शुरू कर दिया खिझाना
हंसी में फंसकर, किचन को भी मैं भूली
ही,ही,ही हंसकर, फूल बनकर खुश हो ली.
बहुत धन्यवाद.
मात्रा का नहीं है भय, करूँ हमेशा जोड़
शब्दों का न ज्ञान मुझे, मैं शिल्प न दूँ तोड़..
रामचरित लो खोल, सोरठा देखने के लिये
जी भर कर लो बोल, हैं अनेकों उदाहरण
शब्दों के अभाव में बड़ी मुश्किल होती है लिखने में... वैसे मैं पढ़ता रहता हूँ आपकी कक्षायें.. बस आता देर से हूँ.. :-)
धन्यवाद आचार्य जी, मैं भी "उल्लासित" शब्द ही ढूँढ रही थी, किन्तु मुझे याद ही नहीं आ रहा था :( , आपने जो परिवर्तन किये हैं, वो भी अच्छे लग रहे हैं. आपका बहुत बहुत आभार .
"गुरु" में, मैं भी तीन मात्राएँ गिन रही थी, भ्रम दूर करने के लिए पुनः आभार .
इस बार का प्रसंग भी बहुत प्रेरणादायक है.
पूजा अनिल
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