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Sunday, September 13, 2009

सिलसिला जारी है... (नाज़िम नक़वी की एक नज़्म)


तारीख़-नवीसी क्या है…?
बिखरे हुए और, बेतरतीब वाक़यात का
एक मजमुआ,
जिसे मंतिक़ और क़यास-आराई के
ताने-बाने से बुना जाता है...।
और तारीख़...?
बीते हुए को,
न गुज़रने देने की,
हवस का नतीजा...।
अगर ये तारीख़
याद्दाश्त की हदों ही तक रहे,
तो क़ुदरती-अमल कहलाती है
जैसे हमारा शास्त्रीय संगीत
जो सीना-ब-सीना
वैसे का वैसा
अब तक चला आ रहा है
इस याद्दाश्त के ख़ज़ाने
सिर्फ़ इंसानों को ही नहीं हासिल हैं
इसमें कायनात के
शबो-रोज़ भी शामिल हैं
लेकिन जब ये तारीख़
पत्थर पर
लकीरों में बदलती है,
पत्तों पर उभरती है,
सिक्कों पर चमकती है
काग़ज़ पर ठहरती है – तो
समाजों और तहज़ीबों से
माज़ी के नाम पर
तजुर्बों की साज़िश करवाती है
आलमी जंगों से लेकर
मुहल्ले में लगे कर्फ़्यू तक
सब-कुछ
अपनी पेशानी पर लिखवाती है
और मुस्तक़बिल के बस्तों में
बंद होकर
स्कूल तक जाती है
माज़ी की हिफ़ाज़त के नाम पर
मुस्तक़बिल की शहादत का
सिलसिला जारी है...
-------------
मजमुआ- संग्रह
मंतिक़- तर्क
क़यास-आराई– अनुमान लगाना
क़ुदरती-अमल– प्राक्रतिक व्यवहार
मुस्तक़बिल– भविष्य
माज़ी– इतिहास
-------
कवि- नाज़िम नक़वी

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20 कविताप्रेमियों का कहना है :

निर्मला कपिला का कहना है कि -

समाजों और तहज़ीबों से
माज़ी के नाम पर
तजुर्बों की साज़िश करवाती है
आलमी जंगों से लेकर
मुहल्ले में लगे कर्फ़्यू तक
सब-कुछ
अपनी पेशानी पर लिखवाती है
और मुस्तक़बिल के बस्तों में
बंद होकर
स्कूल तक जाती है
माज़ी की हिफ़ाज़त के नाम पर
मुस्तक़बिल की शहादत का
सिलसिला जारी है...
लाजवाब अभव्यक्ति है ।नकवी जी को बहुत बहुत शुभकामनायें आभार्

neeta का कहना है कि -

sach much bachche ke paas ateet nahin hota aur wriddh ke paas bhavishya...!
aur hamesha ek sajish chalti rahti hai nayi nazar ko purana chashma pahnane ki....

अपूर्व का कहना है कि -

नाज़िम साहब..शुक्रिया..इतनी खूब्सूरत बात कहने के लिये..
तारीख़ वही नही हो चंद सफ़हों मे समेट कर रख ली जाती है..वरन जो हमारे दिमागों मे किसी बच्चे के मानिंद पलती रहती है..पीढ़ी-दर-पीढ़ी..उनका तजुर्बा हमारी विरासत बन जाता है..और उनका माज़ी हमारा मुस्तकबिल..
आपकी नज़्मों का इंतजार रहता है..बधाई

Manju Gupta का कहना है कि -

तारीख़ वही नही हो चंद सफ़हों मे समेट कर रख ली जाती है..


उर्दू के नये शब्दों से परिचित हुयी .बहुत अच्छी नज्म के लिए बधाई

Anonymous का कहना है कि -

hamesha parichit hi hoti rahna. tumhe khud to kuchh ata nahi hai. "Manju Pls learn how to comment"

mohammad ahsan का कहना है कि -

bahut gehri aur khoobsoorat kase bandhe alfaaz se saji ek nazm.

Shamikh Faraz का कहना है कि -

बहुत खुबसूरत नकवी साहब. अब तक आपको बैठक पर पढ़ा. आप तो यहाँ भी लाजवाब है.

Shamikh Faraz का कहना है कि -

नक़वी साहब नज़्म में शुरुआत बहुत ही बढ़िया दी है. बहुत ही अच्छी परिभाषा दी दोनों शब्दों की.

तारीख़-नवीसी क्या है…?
बिखरे हुए और, बेतरतीब वाक़यात का
एक मजमुआ,
जिसे मंतिक़ और क़यास-आराई के
ताने-बाने से बुना जाता है...।
और तारीख़...?
बीते हुए को,
न गुज़रने देने की,
हवस का नतीजा...।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

लेकिन इतने ज्यादा और गहरे उर्दू के अल्फाज़ के साथ ये लाइन कुछ सही तालमेल नहीं लगा.

जैसे हमारा शास्त्रीय संगीत

इसको भी उर्दू में ही लिखते. तभी पूरा मज़ा आता (मेरे हिसाब से) या फिर पूरी नज़म मिले जुले अल्फाज़ में होती

Anonymous का कहना है कि -

फ़राज़ साहब...
नज़्म पसंद आई शुक्रिया... वैसो तो मैं अपनी रचनाओं पर आयी प्रतिक्रियाओं पर कुछ नहीं बोलता लेकिन अब आपने एक ऐसा सवाल कर दिया है कि जी चाहा उसकी वज़ाहत करने का... जी अगर सिर्फ़ मौसीक़ी लिख देता तो हर मौसीक़ी के साथ से बात पाकीज़गी की बात ठीक नहीं है... और शास्त्रीय का कोई मुनासिब उर्दू लफ़्ज़ मिला नहीं... वैसे भी इसे टाट में पैवंद की जगह मख़मल में जड़े लाल की तरह देखिये... हम जैसे हैं सबकुछ वैसा होता है... हर चश्में का अपना चेहरा होता है...
बंदगी
नाज़िम

manu का कहना है कि -

नाजिम साहिब..
हमें अपने साथ बहा ले गयी ये नज़्म,,,,

अगर ये तारीख़
याद्दाश्त की हदों ही तक रहे,
तो क़ुदरती-अमल कहलाती है

खूब कहा है...

neelam का कहना है कि -

अपनी पेशानी पर लिखवाती है
और मुस्तक़बिल के बस्तों में
बंद होकर
स्कूल तक जाती है
माज़ी की हिफ़ाज़त के नाम पर
मुस्तक़बिल की शहादत का
सिलसिला जारी है...

abhi tak is najm me doobe rahne ka silsila jaari hai
silsila jaari hai
silsila jaari hai
jnaab aapka yahi andaaj aapko sabse alahda rakhta hai .is gahraai ko doosron ko bhi mahsoos karwwne ke liye aapka bahut bahut shukriya .

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

वाह बेहतरीन नज़्म
बार-बार पढ़ने और संग्रह करने को प्रेरित करती है।
याद आती है स्व० मीना कुमारी की ये पंक्तियाँ---
उतनी ही प्यारी है माज़ी की तारीखियाँ
जितनी की मुस्तकबिल-ए-नारसा की चमक
जमाना है माज़ी जमाना है मुस्तकबिल
और हाल एक वाहमा है
मैने जिस किसी लम्हें को छूना चाहा
फिसल कर खुद बन गया
वह एक माज़ी।
-बहुत पहले कहीं पढ़ी थी ये पंक्तियाँ कहीं त्रुटी हो
तो क्षमा कीजिएगा।
-देवेन्द्र पाण्डेय।

गोविन्द गुलशन का कहना है कि -

बहुत अच्छे ख़याल को नज़्म किया है आपने

मेरी जानिब से मुबारकबाद
"इस याद्दाश्त के ख़ज़ाने
सिर्फ़ इंसानों को ही नहीं हासिल हैं"
शायद ये की जगह इस टैप हो गया लगता है
नज़र-ए-सानी करलें.
बहुत शुक्रिया

neelam का कहना है कि -
This comment has been removed by the author.
neelam का कहना है कि -

देवेंदर जी
इ का आपका तो उर्दू भासा का गियान भी बड़ा नीक बा हम ता आपनी के बड़ा हल्का में लेत रहत बा ,नाही हो ,हमार इ मजाल का ,अब तो कहे के पड़ी ,बा अदब , बा मुलायजा ,होशियार मिस्टर देवेन्द्रजी
पधार रहे हैं .
नाजिम जी खता मुआफ कीजियेगा बहुत दिन से कोई हसने हसाने की बात हुई नहीं तो हमने सोचा ............

SUFIYAN का कहना है कि -

tajurbo ki sajis karwati hai
bahut ki khoobsurat rachna hai padh ke laga ki aap aaj ke istihari daur me beedh nai fard hai

SUFIYAN का कहना है कि -

tajurbo ki sajis karwati hai
bahut ki khoobsurat rachna hai padh ke laga ki aap aaj ke istihari daur me beedh nai fard hai

Admin का कहना है कि -

दिल को छू लेने वाली ग़ज़ल! कोई इतना भी बेहतर लिख सकता है पता न था..........

Unknown का कहना है कि -

गुलशन जी सही लाइन है "याद्दाश्त के ये ख़ज़ाने" वैसे तो मैं पूरी कोशिश करता हूं कि कोई ग़ल्ती न रह जाय मगर कभी कभी...
साथ ही उन तमाम लोगों का शुक्रिया जिन्होंने एक बहुत रूखे विषय पर भी इतनी गर्मजोशी का परिचय दिया... सच पूछिये तो बड़ा हौसला मिलता है... लीक से अलग हट के लिखने में...
शुक्रिया
नाज़िम

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