दुख लौट आता है
जैसे लौट आती है प्रतिध्वनि
या कैसे कहूँ
कि हर प्रतिध्वनि में
लौटता है दुख ही
कि मैं जब भी हँसता हूँ
हँसी टकरा कर लौटती है
सिसकियों की आवाज़ में
लेता हूँ प्रियजनों का नाम
एक खोई हुई चाय की प्याली का नाम
पुकारता हूँ उस जगह का नाम
जहाँ से वाबस्ता हूँ मैं
कहीं से टकरा कर लौटती है मेरी आवाज़
सिसकियों की शक्ल में
यहाँ इसी दुनिया में कहीं न कहीं
कोई न कोई दीवार या गुफा या पहाड़ ज़रूर है
जिससे टकरा कर हर आवाज़
रुलाई में तब्दील हो जाती है
किसी को पता है इसके बारे में
मैं तोड़ना चाहता हूँ इस दीवार को
गुफा हो तो पाटना चाहता हूँ
पहाड़ हो तो उस पार जाना चाहता हूँ
-अवनीश गौतम