तुम्हारे घर के कोनों में
उलझी हुई मेरी सब बातें
झाड़ देगी जालों की तरह
तुम्हारी माँ
स्टूल पर चढ़कर
और मेरी सब मुस्कानों को बुहारकर
दरवाजे से बाहर फेंक देगी
आखिरी बार,
तुम्हारे पिता
अख़बार पढ़ते हुए
मुस्कुरा देंगे वो ख़बर देखकर
या किसी पड़ोसी को बुला लेंगे
उस सुबह चाय पर,
जिस दिन मैं मर जाऊँगा;
मेरी माँ चिल्लाएगी,
रोएगी बाढ़ की नदी की तरह,
पागलों की तरह
उठ-उठकर दौड़ेगी
कि उड़ जाए
और खींच लाए मुझे आसमान से वापस,
बाबूजी उस क्षण
बीस साल बूढ़े हो जाएँगे,
ढह जाएँगे जमीन पर
सीने पर हाथ रखकर
और माथा पीटते हुए
सबके सामने रोएँगे पहली बार,
जिस दिन मैं मर जाऊँगा;
तुम्हारी बहन बताएगी
फुसफुसाकर मेरी बातें
अपनी सहेलियों को,
मेरी बहन चीखेगी उस क्षण,
ज़िन्दा रह सकी
तो पागल हो जाएगी,
तुम्हारा शहर
चैन की साँस लेगा,
मेरे पागलपन से उबरकर,
बाज़ार में सेल लगेगी
मेरे सपनों की शायद,
मेरा शहर
साँस नहीं लेगा कुछ दिन तक,
मेरे आवारा कदम ढूंढ़ेंगी
विवश गलियाँ
और सिसकती रहेंगी,
जिस दिन मैं मर जाऊँगा;
तुम्हारे माँ-पिता की चैन की साँस,
तुम्हारी बहन की फुसफुसाहटों
और तुम्हारे शहर के उत्सव के बीच
तुम
मूक हो जाओगी,
तुम्हारे कमरे में आह भरती
मेरी सब यादों को
लकवा मार जाएगा,
मिलते-भटकते
हमारे हाथों की परछाई
दौड़कर खो जाएगी कहीं,
तुम्हारी रसोई में रखा
वो लड्डुओं का डिब्बा
शेल्फ से गिरेगा,
तुम्हारा टैडी बियर
जाग उठेगा और
रोने लगेगा,
और तुम,
सच कह रहा हूँ,
चाहोगी
मगर रो भी नहीं पाओगी
और मेरी माँ-बाबूजी-बहन-शहर,
सब शाप देंगे
कि तुम जीती रहो,
न कह सको, न रो सको,
और मैं,
आसमान के किसी कोने में पड़ा
बिलखता रहूँगा तुम्हारी जगह,
काश!
मैं उस दिन तुम पर से
वे सब शाप ले पाऊँ,
मेरे मरने के बाद भी....
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
गौरव भई
दीवाली के लिद तो मरने मारने की कविता मत दो. इस तरह की कविताओं के बहुत मौके आयेंगे. आज तो शुभ शुभ बोलो
सूरज
Gaurav Solanki is back!
बहुत सुन्दर गौरव जी
एक भाव प्रधान कविता के लिए कोटि कोटि बधाई
बहुत सुन्दर
अन्दर तक छू गई आप की ये रचना
बस वाह निकलता है मुख से
अल्लाह करे जोरे कलम और ज्यादा
विपिन "मन"
कलकत्ता की गलियों से आती चीखों पर आप की ये कविता सराहनीय है और बहुत ही मार्मिक …प्रणाम आप की लेखनी को
गौरव जी,
आपकी यह शिकायत निश्चय ही प्रेमिका से है पत्नी से नहीं.
परन्तु यादें कोई जाला नहीं होती जिसे हटाया जा सके या मिटाया जा सके... लम्हा लम्हा जो गुजरा है वह कहीं न कहीं हमेशा के लिये अंकित है.. हां कई हादसे दुनिया के लिये एक खबर या आंकडे हो सकते हैं परन्तु जिस पर गुजरती है दर्द वही जानता है.
भाव भरी कविता के लिये बधाई...
व दिपावली के शुभकामनायें आपको तथा आपके परिवार के सभी सद्स्यों को.
गौरव जी,
मोहिन्दर जी सही कह रहे है ।
आर्यमनु, उदयपुर ।
प्रिय गौरव
तुम्हारी इस कविता को पढ़कर मुझे तुम्हारी अनकही वेदना की अनुभूति हुई । इसमें इतनी वेदना है जिसने मेरे हृदय को दर्द दिया है। आशा करती हूँ कि सारी व्यथा इन पंक्तियों में ही निकल जाए ।
दीपावली के इस पावन पर्व पर हृदय से आशीर्वाद देती हूँ ।
बहुत भावपूर्ण रचना गौरव जी, आपसे हमेशा ऐसी ही कविता की उम्मीद रहती है। साँस रोक कर पूरी कविता पढ़ी।
तपन शर्मा
har baar ek hi tarah ki bhawana umadati hai ki yeah rachana nahi mere dil hi ke udgar hain jinhe maine bhoga to zarur par shabdon mein dhalane ki koshish tak nahi kar saka ...aur pata hai gaurav...har baar aisi rachana mujhe raat tak jagaye rakhati hai bewazah--baawazah
काश!
मैं उस दिन तुम पर से
वे सब शाप ले पाऊँ,
मेरे मरने के बाद भी....
प्रशंसनीय!!
*** राजीव रंजन प्रसाद
गौरव ,
आलोक जी की तरह मैं भी कहूँगा कि अपना पुराना चिर-परिचित गौरव वापस आ गया है। एक-एक भाव तुम अपनी रचना में जिस तरह पिरोते हो , दिल के टुकड़े हो जाते हैं उन्हें पढते वक्त।
कविता की हर पंक्ति झकझोरती है। लेकिन अंत सबसे कमाल का है।
काश!
मैं उस दिन तुम पर से
वे सब शाप ले पाऊँ,
मेरे मरने के बाद भी....
बहुत खूब।
बधाई स्वीकारो।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
''दशरथ के राम भये
राधिका के घनश्याम भये
दिन दशहरा, दीवाली हर शाम भये
खुशियों भरी आपकी उम्र तमाम रहे''
bahut khoob...aap fir se nikhar aaye hain..in bhavnaon mein aap behad maheen aur sanjeeda lagte hain......
aise hi bane rahein...
nikhil
आपकी कविताएँ बहुत असली होती हैं और शायद इसीलिए हर पाठक इनसे जुड़ जाता है। मैं इतना कहूँगा कि इन भावों को महसूस कर रहा हूँ, बस्स!
Bhaut Sunder Rachna..
Dil ko Chooh Gayi
गौरव जी,
बहुत सुन्दर!!एक सशक्त रचना। पूरा पीर शब्दों में उतर आया है। खासकर कविता का अंत असाधारण है। बधाई स्वीकार करें।
uramगौरव जी .. क्षमा चाहूँगा आपसे भी और अपने आप से भी की इतनी अच्छी कविता इतने विलंब से पढ़ रहा हूँ |
क्या कहूँ .. इस कविता को मैने कई कई बार पढ़ा | वाह.. महसूस कर रहा हूँ..
अधिक क्या बोलूं ..
बधाई
गौरव जी!!!
बहुत ही उम्दा रचना है....कबिले तारिफ़...बहुत ही सहज लह्जे का प्रयोग करके बहुत खुबशूरत रचना की है आपने...
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बाबूजी उस क्षण
बीस साल बूढ़े हो जाएँगे,
ढह जाएँगे जमीन पर
सीने पर हाथ रखकर
और माथा पीटते हुए
सबके सामने रोएँगे पहली बार,
जिस दिन मैं मर जाऊँगा;
तुम्हारी बहन बताएगी
फुसफुसाकर मेरी बातें
अपनी सहेलियों को,
मेरी बहन चीखेगी उस क्षण,
ज़िन्दा रह सकी
तो पागल हो जाएगी,
तुम्हारा शहर
चैन की साँस लेगा,
मेरे पागलपन से उबरकर,
बाज़ार में सेल लगेगी
मेरे सपनों की शायद,
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बहुत ही अच्छी रचना है.....वैसे मैंने आपको ज्यादा पड़ा नहीं है पर नाम काफी सुना है और जैसा सुना है वैसा ही पाया. हर पंक्ती दिल को छु जाती है तारीफ को शब्द कम पड़ रहे है..बधाई स्वीकारे
गौरव जी मै ये कहूँगा..
कविता मै आपने शबदो का चयन बहुत सुन्दर किया है..
शीर्षक भी बेहद सुन्दर चुना है.
परन्तु मुझे ऐसा लगा..कविता की लम्बी थोडा ज्यादा हो गयी है
और अंत तक आते आते.. अपना आकर्षण खो देती है...
सादर
शैलेश
It is a good heart touching poem express the facts generally seen in every family These lines touch me very much
बाबूजी उस क्षण
बीस साल बूढ़े हो जाएँगे,
ढह जाएँगे जमीन पर
सीने पर हाथ रखकर
और माथा पीटते हुए
सबके सामने रोएँगे पहली बार,
जिस दिन मैं मर जाऊँगा;
And
काश!
मैं उस दिन तुम पर से
वे सब शाप ले पाऊँ,
मेरे मरने के बाद भी...
Adesh Kumar Srivastava
BARC Tarapur
dard bahut hai kavita me.. behad .. very touching.. dam hai aanshuvo ko paida karne kaa...
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