२४ फरवरी १९८७ को पीलीभीत (उ॰प्र॰) में जन्मे कवि शामिख फ़राज़ वर्तमान में बरेली के एक कॉलेज से एम॰सी॰ ए॰ (कम्प्यूटर अनुप्रयोग में परास्नातक) की पढ़ाई कर रहे हैं। पीलीभीत शहर में खुद का डिजीटल फोटोग्राफी का काम करते हैं। इन्हें वैज्ञानिक सोच के पिता और धार्मिक स्वभाव की माँ से अच्छा व्यवहारिक ज्ञान मिला। इन्होंने लेखन की शुरुआत वर्ष २००२ में की थी। इनका पहला लेख क्षेत्रीय अख़बार अमर उजाला में प्रकाशित हुआ और अब तक कई लेख विभिन्न अख़बारों में प्रकाशित हो चुके हैं। बचपन से ही कहानियों के प्रति रुझान था. इसी कारण हिन्दी लेखकों के अलावा विदेशी लेखकों लियो टअलसटॉय, अन्तोन चेखव, मैक्सिम गोर्की, ओ हेनरी को भी पढ़ा।
इन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ये एक कवि भी बनेंगे लेकिन १९ सितम्बर २००७ को ज़िन्दगी एक ऐसे इन्सान से मिला गई जिसने इन्हें कवि बना दिया।
साहित्य के अतिरिक्त ग्राफिक्स एंड एनीमेशन, आत्मकथाएं पढ़ना, ऐतिहासिक नगरों को घूमना और सूक्तियां एकत्रित करने का शौक़ रखने वाले शामिख का जिक्र आज हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि नवम्बर की प्रतियोगिता में इनकी कविता ने शीर्ष १० में स्थान बनाया। और फिलहाल हम इनकी वही कविता आपको पढ़वाने जा रहे हैं।
पुरस्कृत कविता- अम्मी
कभी खामोश हवा कभी पछियाव कभी पुरवाई अम्मी
कभी हलवे कभी ज़र्दे तो कभी चटनी में समाईं अम्मी
अपने यहाँ के रिश्तों को मैंने कई बार फटते देखा है
जाने कैसे एक ही पल में कर देती हैं सिलाई अम्मी
गिले शिकवों की धूल हटा के प्यार का रंग मिला के
जाने कैसे एक ही पल में कर देती हैं रंगाई अम्मी
और हाँ देखो तो मुझे आसमान छुआने की खातिर
चिमटे, संसी, फुँकनी से बाहर निकल आईं अम्मी
मैंने आंसुओं से एक परदेसी शहर को भिगो डाला
जो मैं उनसे दूर हुआ और जब यादों में हैं आईं अम्मी
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰५, ६॰१५
औसत अंक- ६॰३२५
स्थान- ग्यारहवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ५॰८, ६॰३२५(पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ५॰३७५
स्थान- आठवाँ
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
sahi paribhashit kiya hai aapne ammi ko....badhai itni sunder rachna ke lie.
माँ लक्ष्मी गौरी वाग्देवी है
माँ जो स्वयम सेवी है
माँ ही सभ्याचार है
माँ ही उच्च विचार है
माँ ब्रह्मा , विष्णु ,महेश है
माँ के बाद कुछ न शेष है
माँ धरती ,माँ आकाश है
माँ फैला हुआ प्रकाश है
माँ सत्य ,शिव ,सुन्दर है
माँ ही मन मन्दिर है
माँ श्रद्धा है ,माँ विश्वास है
माँ ही एकमात्र आस है
माँ ही सबसे बडी आशा है
माँ की नही कोई परिभाषा है
माँ तुम्हारी नही कोई परिभाषा है
achchi rachana ke lie bahut-bahut badhaaii . Maa aisi hi hoti hai ,sabhi seemaaon se pare ,jiski kisi paribhaashaa me baandha hi nahi jaa sakta
Nida Fazili ke shabdon me "Maa".
Main Roya Pardes me Bhiga Maa ka Pyar
Dukh ne Dukh se bat ki bin chitthi bin tar
aapko padhna achha raha,
ALOK SINGH "SAHIL"
बहुत खूब... बढ़िया कविता!!!
बधाई स्वीकारें
शामिख जी ,,सीमा जी ..और ........Anonymous जी .{.आज हिन्दी में ट्रांसलेट करने की ज़रूरत नहीं है...}
नए नए अंदाज ,नए नए अल्फाज़ में अम्मी के दर्शन कराये ....
शाएर के साथ साथ पाठकों का भी शुक्रिया...
बधाई...
जमीं समन्दर आसमान में मुझको पडी दिखाई अम्मी.
सारे दुःख तकलीफें सहकर मुझे देख मुस्काई अम्मी.
रोटी और नमक में अमरित जैसा स्वाद कहाँ से लाई?
बार-बार पूछा पर कुछ भी मुझको बता न पाई अम्मी.
अनजाने अनचाहे हालातों ने जब जब घेरा तब तब
सबसे पहले आगे बढ़कर लड़ती रही लडाई अम्मी.
हारो तो भी हार न मानो, गिरो उठो लड़ झुको फतह पा
सिखा पढाती लेकिन मुँह पर करती नहीं बडाई अम्मी.
प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों को जोड़-तोड़कर
रात-रात भर जाग-जागकर करती रही सिलाई अम्मी.
खामोशी की चादर ओढे, कोशिश के बुरके में ह्हिपकर
ममता-गद्दा बिछा, दुआ की देती रही रजाई अम्मी.
गठिया से घुटना दुखता था, जमा फेफडों में बलगम था
फीस चुकाई मगर ख़रीदी तूने नहीं दवाई अम्मी.
कभी न अब्बा को देखा पर जब भी ज़िक्र जरा सा आया.
नयी नवेली दुल्हन जैसी सुर्ख हुई शरमाई अम्मी.
भारतवासी है फ़राज़ तू, दहशतगर्दों से टकराना.
वतन बचाना जान लुटाकर, आगे बोल न पाई अम्मी.
ईद दिवाली बैसाखी क्रिसमस होली त्यौहार मनाती.
अपनों और परायों सबकी करती रही भलाई अम्मी.
तुझे विरासत भाईचारा, तेरी दौलत सच्चाई है.
'सलिल' बोलकर आखें मूंदी, पल में हुईं पराई मम्मी.
और हाँ देखो तो मुझे आसमान छुआने की खातिर
चिमटे, संसी, फुँकनी से बाहर निकल आईं अम्मी
ह्
रदय को छू लेने वाले बोल,
माँ एक शब्द नही गाथा है पूरे युग की
दिल को सकूं पहुचाती ग़ज़ल
आचार्य को प्रणाम ...
बालक कक्षाओं से घबराता है......सो ऐसे ही इस्कूल से बाहर जलवे कभी कभार बिखेरते रहिये
आपकी कलम को दुबारा वंदना
आदर सहित ....
मनु
Yaar Kamal Kar Diya Aapne...Kya Baat Kah Di Hai jo Sirf Socha Hi Ja Sakta Tha....Very Congrts...Bahut Bahut Mubark
Munnavar Rana Ka Aks Dikha Hai
bahut hi acchi ghazal hai.
Shukriya qubool karen.
आलोक श्रीवास्तव की बहुत प्रसिद्ध ग़ज़ल है ये ......
चिंतन दर्शन जीवन सर्जन रूह नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर शराबा सूनापन तनहाई अम्मा
उसने खुद़ को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है,
धरती अंबर आग हवा जल जैसी ही सच्चाई अम्मा
सारे रिश्ते- जेठ दुपहरी गर्म हवा आतिश अंगारे
झरना दरिया झील समंदर भीनी-सी पुरवाई अम्मा
घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती थी जाने कब तुरपाई अम्मा
बाबू जी गुज़रे, आपस में-सब चीज़ें तक़सीम हुई तब-
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से आई अम्मा
..... आपकी रचना पर इस रचना का अच्छा खासा प्रभाव दिखा मुझे ..... कभी कभी कुछ लोग इतना अच्छा लिख देते हैं की उनका Influence बना ही रहता है .....
सादर
दिव्य प्रकाश
तारीफ और हौसला अफजाई के लिए सभी लोगो का तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ.
मैंने आंसुओं से एक परदेसी शहर को भिगो डाला
जो मैं उनसे दूर हुआ और जब यादों में हैं आईं अम्मी
वाह! कितनी सुंदर रचना!!!!!!!!!
मैंने आंसुओं से एक परदेसी शहर को भिगो डाला
जो मैं उनसे दूर हुआ और जब यादों में हैं आईं अम्मी
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति,माँ के दर्द को गहराई से व्यक्त करती पंक्तियां, कभी किसी से शिकवा-शिकायत तो वह करती ही नहीं, बहते आंसुओं के संग सदा मुस्कराई अम्मी ।
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