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Monday, November 02, 2009

जमीन की कोख में तेल खोजता कवि और आयुध बनाता पाठक (परिणाम)


साहित्य समय का साक्षी होता है, फिर चाहे इसकी विधा कोई भी हो। हम यूनिकवि प्रतियोगिता के माध्यम से जिन कविताओं की शिनाख़्त करते हैं उसमें भी नदी की तरह बह रहे समय का दस्तावेज़ हैं। यूनप्रतियोगिता के 34वें आयोजन में 54 कवियों ने भाग लिया।

पिछले महीने से हमने निर्णय प्रक्रिया जो बदलवा किया था, उसे ज़ारी रखते हुए पहले चरण में 3 निर्णायक और दूसरे चरण में 3 निर्णायक निश्चित किये गये। पहले चरण के तीनों जजों से कहा गया कि वे अपनी पसंद की 12 कविताएँ हमें दें। इस प्रकार कुल 22 कविताओं को दूसरे चरण में स्थान मिला। दूसरे चरण में 3 निर्णायकों ने अपन-अपनी पसंद की 10 कविताएँ भेजी, जिसमें अपूर्व शुक्ल की कविता 'समय की अदालत में' को सर्वश्रेष्ठ कविता चुना गया। यह कविता सभी 6 निर्णायकों की पसंद रही। एक निर्णायक ने तो यहाँ तक कह डाला कि यह सुखद आश्चर्य है कि हिन्द-युग्म पर इस तरह की कविताएँ आ रही हैं। हिन्द-युग्म का भविष्य उज्ज्वल है।

यूनिकवि- अपूर्व शुक्ल

पैदाइश कानपुर में हुई। उ॰ प्र॰ के एक छोटे से शहर शाहजहाँपुर के और भी छोटे से गाँव के एक सामान्य से पुरोहित परिवार से तअल्लुक रखते हैं। बेहद बचपन में चित्रकथाओं के रंग-बिरंगे चरित्रों से संवाद करने के लिये झटपट पढ़ना सीखे। तब से हर्फ़ों से बना यह रिश्ता सफ़हे-दर-सफ़हे, साल-दर-साल जारी है।
पढ़ाई का सिलसिला भी लम्बा और बिना पतवार की किश्ती के सफ़र की तरह रहा। लखनऊ यूनिवर्सिटी से फिजिक्स में एम. एस. सी. करने के बाद आई. आई. टी. रुड़की से इंस्ट्‍रूमेन्टेशन में एम. फिल. किया। तत्पश्चात आई. आई. टी. खड़गपुर से सिस्मोलॉजी में एम. टेक पूरा किया। अभी फिलहाल एक बहुराष्ट्रीय ऑयल कम्पनी के लिये जमीन की कोख में तेल के अनुसंधान में रत हैं। बागों के शहर बेंगलुरू की शाखों पर फुदक रहे हैं। कल का पता नहीं, विचलित मन किस धार में इन्हें बहा ले जाये।
पढ़ने का यह शौक नशे की तरह हरदम रहा। बचपन में रास्ते मे पड़े अखबारों के टुकडों से लेकर नेट पे ब्लॉगजगत तक क्या-क्या पढ़ गये, खुद भी खबर नहीं। पिछले 2-3 सालों में जरूर फ़िल्मों के शौक ने किताबों से वक्त को चुरा लिया। हाँ मगर कलम-घिसाई का शौक बस दो माह पुराना है। वह भी नेट पर अपना चिट्ठा बनाने के बाद। इसलिये कहीं और छपने का सवाल नहीं उठता। साहित्यिक प्रतियोगिता का भी यह प्रथम अनुभव है। तब से अंतरतम के अंधेरे मे भटके अव्यक्त भावों को कलम की रोशनी मे शब्दों की पनाह मे लाने के लिये प्रयासरत हैं। हाँ मगर मूलतः एक पाठक हैं।

यूनिकविता- समय की अदालत में

क्षमा कर देना हमको
ओ समय !
हमारी कायरता, विवशता, निर्लज्जता के लिये
हमारे अपराध के लिये
कि बस जी लेना चाहते थे हम
अपने हिस्से की गलीज जिंदगी
अपने हिस्से की चंद जहरीली साँसें
भर लेना चाहते थे अपने फेफड़ों मे
कुछ पलों के लिये ही सही
कि हमने मुक्ति की कामना नही की
बचना चाहा हमेशा
न्याय, नीति, धर्म की परिभाषाओं से
भागना चाहा नग्न सत्य से.

कि हम अपने बूढे अतीत को
विस्मृति के अंधे कुँए मे धकेल आये थे
अपने नवजात भविष्य को गिरवी रख दिया था
वर्तमान के चंद पलों की कच्ची शराब पी लेने के लिये,
बॉटम्स अप !
कि हम बस जी लेना चाहते थे
अपने हिस्से की हवा
अपने हिस्से की जमीन
अपने हिस्से की खुशी
नहीं बाँटना चाहते थे
अपने बच्चों से भी

कि हम बड़े निरंकुश युग मे पैदा हुए थे
ओ समय
उस मेरुहीन युग में
जहाँ हमें आँखें दी गयी थीं
इश्तहारों पर चिपकाये जाने के लिये
हमें जुबान दी गयी थी
सत्ता के जूते चमकाने के लिये
और दी गयी थी एक पूँछ
हिलाने के लिये
टांगों के बीच दबाये रखने के लिये

कि जिंदगी की निर्लज्ज हवस मे हमने
चार पैरों पर जीना सीख लिया था
सीख लिया था जमीन पर रेंगना
बिना मेरु-रज्जु के
सलाखों के बीच रहना,
कि हमें अंधेरों मे जीना भाता था
क्योंकि सीख लिया था हमने
निरर्थक स्वप्न देख्नना
जो सिर्फ़ बंद आँखों से देखे जा सकते थे
हमें रोशनी से डर लगने लगा था
ओ समय !

जब हमारी असहाय खुशियाँ
पैरों मे पत्थर बाँध कर
खामोशी की झील मे
डुबोयी जाती थीं,
तब हम उसमे
अपने कागजी ख्वाबों की नावें तैरा रहे होते थे

ओ समय
ऐसा नही था
कि हमें दर्द नही होता था
कि दुःख नही था हमें
बस हमने उन दुःखों मे जीने का ढंग सीख लिया था
कि हम रच लेते थे अपने चारो ओर
सतरंगे स्वप्नो का मायाजाल
और कला कह देते थे उसे
कि हम विधवाओं के सामूहिक रुदन मे
बीथोवन की नाइन्थ सिम्फनी ढूँढ लेते थे
अंगछिन्न शरीरों के दृश्यों मे
ढूँढ लेते थे
पिकासो की गुएर्निक आर्ट
दुःख की निर्जल विडम्बनाओं मे
चार्ली चैप्लिन की कॉमिक टाइमिंग
और यातना के गहन क्षणों मे
ध्यान की समयशून्य तुरीयावस्था,
जैसे श्वान ढूँढ़ लेते हैं
कूड़े के ढेर मे रोटी के टुकड़े;

कि अपनी आत्मा को, लोरी की थपकियाँ दे कर
सुला दिया था हमने
हमारे आत्माभिमान ने खुद
अपना गला घोंट कर आत्महत्या कर ली थी

हम भयभीत लोग थे
ओ समय !
इसलिये नही
कि हमें यातना का भय था,
हम डरते थे
अपनी नींद टूटने से
अपने स्वप्नभंग होने से हम डरते थे
अपनी कल्पनाओं का हवामहल
ध्वस्त होने से हम डरते थे,
उस निर्दयी युग मे
जब कि छूरे की धार पर
परखी जाती थी
प्रतिरोध की जुबान
हमें क्रांति से डर लगता था
क्योंकि, ओ समय
हमें जिंदगी से प्यार हो गया था
और आज
जब उसकी छाया भी नही है हमारे पास
हमें अब भी जिंदगी से उतना ही प्यार है!


पुरस्कार और सम्मान- शिवना प्रकाशन, सिहोर (म॰ प्र॰) की ओर से रु 1000 के मूल्य की पुस्तकें तथा प्रशस्ति-पत्र। प्रशस्ति-पत्र वार्षिक समारोह में प्रदान किया जायेगा। नवम्बर माह के अन्य तीन सोमवारों की कविता प्रकाशित करवाने का मौका।


इनके अतिरिक्त हम जिन अन्य 9 कवियों की कविताएँ प्रकाशित करेंगे तथा उन्हें हम डॉ॰ महेश चंद्र गुप्ता 'ख़लिश' की ओर से इनके ही पहले ग़ज़ल-संग्रहमाज़ी की परतों से की एक-एक प्रति भेंट करेंगे, उनके नाम हैं-

मनोज कुमार
अखिलेश श्रीवास्तव
शोभना मित्तल
एम वर्मा
रवींद्र शर्मा 'रवि'
विनोद कुमार पांडेय
डॉ॰ अनिल चड्डा
लता हया
अंकित सफ़र


हम शीर्ष 10 के अतिरिक्त भी बहुत सी उल्लेखनीय कविताओं का प्रकाशन करते हैं। इस बार हम निम्नलिखित 8 कवियों की कविताएँ भी एक-एक करके प्रकाशित करेंगे-

अनामिका
सुमीता प्रवीण
चन्द्रकान्त सिंह
डॉ॰ मीना अग्रवाल
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
साबिर "घायल"
आशीष 'अक्स'
सुजीत कुमार 'सुमन'


उपर्युक्त सभी कवियों से अनुरोध है कि कृपया वे अपनी रचनाएँ 30 नवम्बर 2009 तक अनयत्र न तो प्रकाशित करें और न ही करवायें।

पाठकों की बात करें तो बहुत से नये पाठक रोज़ाना हिन्द-युग्म से जुड़ रहे हैं। बहुत से पाठक जिनकी छाप पाठक-संख्या के आगे बढ़ जाने से पता चल जाती है, हमें पढ़ते रहते हैं और ईमेल द्वारा अपनी प्रतिक्रियाएँ भेजते रहते हैं। कुछ पाठक सीधे तौर पर हमें टिप्पणियाँ करते हैं और अच्छा-बुरा बताते हैं। इससे हमें और अधिक शक्ति मिलती है। ऐसे ही एक पाठक हैं मनोज कुमार, जिन्हें हमने इस बार का यूनिपाठक चुना है।

यूनिपाठक- मनोज कुमार

जन्म – बिहार के समस्तीपुर ज़िले मे 25 अगस्त 1962 में
शिक्षा – जन्तु विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम.एस.सी इन ज़ूऑलजी)
पेशा – रक्षा मंत्रालय के आयुध निर्माणी बोर्ड, कोलकाता में निदेशक पद पर कार्यरत
अपनी भावनाएं और विचार बांट सकें, इसलिए लिखते हैं। कोई खास विधा से बंधे नहीं हैं। कविती, लेख, कहानी, लधुकथा आदि। देश की कई पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं।

पुरस्कार और सम्मान- डॉ॰ महेश चंद्र गुप्ता 'ख़लिश' की ओर से इनके ही पहले ग़ज़ल-संग्रहमाज़ी की परतों से की एक प्रति तथा प्रशस्ति-पत्र।

इस बार हमने दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान के विजेता पाठकों के लिए हमने क्रमशः विनोद कुमार पांडेय, श्याम और सुमिता प्रवीण को चुना है। इन तीनों विजेताओं को भी <डॉ॰ महेश चंद्र गुप्ता 'ख़लिश' की ओर से इनके ही पहले ग़ज़ल-संग्रहमाज़ी की परतों से की एक-एक प्रति भेंट की जायेगी।

हम उन कवियों का भी धन्यवाद करना चाहेंगे, जिन्होंने इस प्रतियोगिता में भाग लेकर इसे सफल बनाया। और यह गुजारिश भी करेंगे कि परिणामों को सकारात्मक लेते हुए प्रतियोगिता में बारम्बार भाग लें। इस बार शीर्ष 15 कविताओं के बाद की कविताओं का कोई क्रम नहीं बनाया गया है, इसलिए निम्नलिखित नाम कविताओं के प्राप्त होने से क्रम से सुनियोजित किये गये हैं।

मुहम्मद अहसन
दिलशेर 'दिल'
शामिख फ़राज़
रामनिवास 'इंडिया'
डा.कमल किशोर सिंह
प्रदीप वर्मा
अजय दुरेजा
दीपक 'मशाल'
गिरिजेश राव
संगीता सेठी
कमलप्रीत सिंह
ममता दुबे
अभिषेक कुशवाहा
अखिलेश श्रीवास्तव
नितिन जैन
कविता रावत
राजेशा
पुनीत सिन्हा
अजय सोहनी
नीलेश माथुर
नीति सागर
अरविन्द कुरील
आलोक उपाध्याय
माधव माधवी
राकेश कौशिक
नवनीत नीरव
मृत्युंजय साधक
दीपक कुमार वर्मा
अम्बरीष श्रीवास्तव
शन्नो अग्रवाल
रतन कुमार शर्मा
वर्षा सिंह
डा. सुरेख भट्ट
अमर बरवाल 'पथिक'
सुजीत कुमार "जलज"
सुफियान अश्वनी
रवि मिश्रा

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33 कविताप्रेमियों का कहना है :

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

Ek behtareen rachana..bahut bahut badhayi apurv ji..gair peshewar hote hue bhi gazab ki rachana...nischit rup se vijeta ke haqdaar hai aap..aur is sundar kavita ke liye dhanywaad bhi kavita padhi jo bahut hi badhiya laga samay ki ghatha gata sundar geet..

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

hindyugm ko bhi hardik badhayi..aise naye naye pratibhashali kaviyon ki khoj karane ke liye aur sundar geet prstut karane ke liye tahe dil se badhayi..bahut hi sarahniy kary jitani bhi tareef kiya jay kam hai..

hindi sahitya ka internet par ek stambh hai hind yugm..sabhi sadasyon ko hardik bahdayi..

विश्व दीपक का कहना है कि -

अपूर्व जी को यूनिकवि बनने पर बहुत-बहुत बधाईयाँ। आपने जिस कविता की रचना की है, वैसा लिखना आसान नहीं होता। एक बेहद प्रशंसनीय रचना के लिए फिर से बधाई स्वीकारें।

मनोज जी, आपके बारे में क्या कहूँ। इतने ऊँचे पद पर होते हुए भी आप हिन्दी के लिए समय निकाल पाते हैं,इससे बड़ी बात क्या होगी। वैसे भी हमारे इस प्रयास के पाठक हीं जान हैं। इसलिए आप हैं तो हम हैं। आपका तो हमें शुक्रिया अदा करना चाहिए।

बाकी सभी प्रतिभागियों और पाठकों को मेरी तरफ से ढेर सारी शुभकामनाएँ।

-विश्व दीपक

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

इस कविता ने हमारी नपुंसकता को उजागर किया है
युवा कलम से इतनी अच्छी अभिव्यक्ति वह भी विग्यान के छात्र से, सहसा अचंभित कर देती है!
इतनी लम्बी कविता में एक भी शब्द ऐसे नहीं हैं कि जिन्हें फालतू कहा जाय...
भाषा सौंदर्य की भी जितनी तारीफ की जाय कम है
तारीफ कर रहा हूँ लेकिन शब्द नहीं मिल रहे...
आज लगता है कि 'अपूर्व शुक्ल' के रूप में यूनिकवि खोजकर हिन्द-युग्म अपने उद्देश्य में सफल हुआ है।
--- बधाई।

Vinaykant Joshi का कहना है कि -

अपूर्व जी और मनोज कुमार जी को बधाई ,
नियंत्रक जी यूनिपाठिका के स्थान पर यूनिपाठक करले,
सादर
,
विनय के जोशी

neelam का कहना है कि -

और यातना के गहन क्षणों मे
ध्यान की समयशून्य तुरीयावस्था,
जैसे श्वान ढूँढ़ लेते हैं
कूड़े के ढेर मे रोटी के टुकड़े;

कविता क्या है ,मनुष्य का सच है ,वही सच जो साहित्य के माध्यम से न केवल प्रतिबिब्म्बित हुआ है ,वरन सभी के दिलों को छूता है ,बधाई हो अपूर्व जी आप शाहजहांपुर के पास के गाँव का भी नाम बता ही दीजिये आपको कई पडोसी मिलेंगे एक तो हम ही हैं ,क्या पता रिश्तेदार ही निकल आयें हा,हा हा हा
आपकी कविता के लिए कुछ भी लिखना कुछ नहीं ही होगा ,
मनोज कुमार जी आपकी टिप्पनिओं से पता चलता था की आपकी हिंदी कितने उन्नत दर्जे की है ,बधाई आपको भी हिन्दयुग्म परिवार में शामिल होने के लिए

Disha का कहना है कि -

यूनिकवि एवं यूनिपाठक को बधाईयाँ
जो एकबार हिन्दयुग्म पर आ जाये वो उसी का होके रह जाता है.
यहाँ सभी ऐसे ही भूले भटके पहुंचते है लेकिन फिर यहां से जा नही पाते.
चलिये नये साथियों का स्वागत है.

दीपक 'मशाल' का कहना है कि -

प्रिय मित्र श्री अपूर्व जी और श्री मनोज जी को हार्दिक बधाई, वास्तव में ये एक यूनीक कविता है जिसका निर्णय लेने के लिए मुझे नहीं लगता की निर्णायक मंडल को कोई मशक्क़त करनी पड़ी होगी, हीरा दूर से ही पड़ा हुआ दिख जाता है...
वैसे भी अपूर्व जी की और भी रचनाएँ पढ़ी हैं उनकी लेखन शैली का मैं मुरीद हूँ, शायद बाकि की उनकी और ग़ज़ल एवं रचनाएँ इससे भी बेहतर हैं...
हिन्दयुग्म का ऐसी प्रतियोगिताएं आयोजित करने के लिए एक बार फिर से आभार..
जय हिंद..

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

मनोज जी, अपूर्व जी,
आप दोनों को बहुत-बहुत बधाई!

ismita का कहना है कि -

bahut gehrai se mehsoos kiya apne jeewan ko...aur utni hi khoobsurati se utaar bhi diya hai kagaj par......bahut bahut bahut achha......badhaiyan...

मनोज कुमार का कहना है कि -

पढ़ने वाले में नैतिक ऊहापोह पैदा करे, तयशुदा प्रपत्तियां हिला दे ऐसी रचना कम ही मिलती हैं। सर्वश्रेष्ठ कवि मनने पर बधाई।

SUFIYAN का कहना है कि -

waqt ki haqeeqat ko bakhubi likha hai jin sabdo ko waqt ke liye likha hai haqeeqatan wo waqt ki har raftar ko darshate hai aapki is behtreen rachna se ye bhi pata chalta hai ki aap ko waqt ki ahmiyat ka tajurba kitna hai aur waqt hamesha waqt ke saath hi apni haqeeqat ko har inshaan ko samjhata hai ,
khuda hafij.....

salam hindi ko salam hindustaan ko

shyam gupta का कहना है कि -

अत्यंत सुन्दर , सार्थक, समीचीन कविता, युवा कवि का मानवीय आक्रोश है , अपने -अपनों के प्रति , वर्त्तमान भौतिक सुख लिप्तता के प्रति --कि हम एक उन्नत ,सत्योन्मुख,नीति-धर्म युक्त सशक्त सभ्यता -देश होते हुए भी क्यों गुलाम रहे |हम अपनी ही सभ्यता से भागकर,भुलाकर सिर्फ भौतिक सुख की खातिर गुलाम हुए,गुलामी में जीते रहे , औरों के तलुवे चाटते रहे , अपने सुख में मस्त ;लिज्लिजाते हुए केंचुओं,कीडों की भांति आत्मभिमानको कुचले जाते हुए देख कर भी| और आज ही वही कर रहे हैं ;स्व की कला, संस्कृति,साहित्य, ज्ञान,देश प्रेम को भूल कर आयातित सभ्यता -संस्कृति को अपनाते जारहे हैं ,सिर्फ अपनी-अपनी मौज-मस्ती , अपना-अपना सुख , भौतिक- सुख समृद्धि के लिए , आयातित संस्कृति के गुलाम बनाते जारहे हैं, हमने समय से सबक नहीं सीखा, कब सीखेंगे ?

Akhilesh का कहना है कि -

yeh samay ko chunauti deti kavita hai.
ab tak padi gayee kavitayo mein asli mayene mein sahitya nidhi banne layak kavita,

प्रमोद कुमार तिवारी का कहना है कि -

अक्‍सर लोग कविता, कहानी या किसी भी रचनात्‍मक विधा को भाषा और साहित्‍य से जोड़ कर देखते हैं जबकि इसकी संरचना और शिल्‍प का गहरा संबंध तमाम विषयों और जीवन की जानकारी से सीधा जुड़ा होता है। अपूर्व भाई की कविता में उनका अध्‍ययन साफ नजर आ रहा है, संवेदनशील तो वे हैं ही। हार्दिक बधाई। खूब पढि़ए और खूब लिखिए, हमें आपसे बहुत उम्‍मीदें हैं। अशेष शुभकामनाएं।।
-प्रमोद

दर्पण साह का कहना है कि -

@ Aproov only:
कि हम विधवाओं के सामूहिक रुदन मे
बीथोवन की नाइन्थ सिम्फनी ढूँढ लेते थे
अंगछिन्न शरीरों के दृश्यों मे
ढूँढ लेते थे
पिकासो की गुएर्निक आर्ट
दुःख की निर्जल विडम्बनाओं मे
चार्ली चैप्लिन की कॉमिक टाइमिंग
और यातना के गहन क्षणों मे
ध्यान की समयशून्य तुरीयावस्था,

are ye to main likhne wala tha....

Copyright act waloooooooo....

Hind yugm to suna tha swaprakashit rachinaayeein hi prakashit karta hai...

:(

kahir poori kavita padh to li hai par PADHI nahi hai....
Udhaar rehta hai abhi !!

Aproov bahi ko dheron badhai....

Somebody is going to loose his COO designation. (PR)

And Somebody is always ready to grab it....
Proof:pichle paanch dino main ye shayad teesra comment hai (jismein se do Bhai jaan ki post par hi hain)
Bhai Farewll acchi honi chahiye naa...
Best of luck for your after reteirment life.
(Wish Met Life is hearing)

Anonymous का कहना है कि -

कि बस जी लेना चाहते थे हम
अपने हिस्से की गलीज जिंदगी
अपने हिस्से की चंद जहरीली साँसें
भर लेना चाहते थे अपने फेफड़ों मे
कुछ पलों के लिये ही सही
कि हमने मुक्ति की कामना नही की
बचना चाह
yunikavi banne ke liye apurva ji ko or yunipathak ke liye manojji ko bahut-bahut badhai. khubsurat rachana ke liye hindyugm ko bhi badhai or aabhar!

राकेश कौशिक का कहना है कि -

अपूर्व जी और मनोज जी को क्रमशः उनिकवि और उनिपाठक बनने पर हार्दिक बधाई.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' का कहना है कि -

रचनाकार की रचना में वाकई बहुत दम है.....फिर प्रथम पुरस्कार क्यों नहीं मिलता.....बहुत अच्छी रचना.......badhai...

manu का कहना है कि -

स्पेशल इनवाईट किया था दर्पण ने...
आपको पढने के लिए...कितने दिन पहले..आज वक्त मिला तो आ गया और इस बहाने और भी कई सुन्दर कवितायें पढ़ गया...

दर्पण के कमेन्ट को मेरा ही कमेन्ट मानिए अपूर्व जी....




ओ समय
ऐसा नही था
कि हमें दर्द नही होता था
कि दुःख नही था हमें
बस हमने उन दुःखों मे जीने का ढंग सीख लिया था
कि हम रच लेते थे अपने चारो ओर
सतरंगे स्वप्नो का मायाजाल
और कला कह देते थे उसे
कि हम विधवाओं के सामूहिक रुदन मे
बीथोवन की नाइन्थ सिम्फनी ढूँढ लेते थे
अंगछिन्न शरीरों के दृश्यों मे
ढूँढ लेते थे
पिकासो की गुएर्निक आर्ट
दुःख की निर्जल विडम्बनाओं मे
चार्ली चैप्लिन की कॉमिक टाइमिंग
और यातना के गहन क्षणों मे
ध्यान की समयशून्य तुरीयावस्था,
जैसे श्वान ढूँढ़ लेते हैं
कूड़े के ढेर मे रोटी के टुकड़े;


बेहद हौलनाक....!!

Prem का कहना है कि -

खतरनाक सच व्यंग्य की तिलमिलाहट नहीं रचती बल्कि खामोशी से नामर्दगी का खंजर दिमाग में चुभाती जाती है जो कविता की आखिरीर लाइन तक आते-आते चीख का रूप लेती महसूस होती है|

हिन्दयुग्म पर पढ़ी अबतक की सबसे बेहतरीन और मुख़्तसर रचना| तुम्हे पढ़ने की प्यास बढ़ती जाती है कामरेड|

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