1
पीछे
अधखुले दरवाजे से
झाँकती थी अम्मा।
ट्रेन में टटोलता रहा बैग
देर तक लगता रहा
कि कुछ भूल आया हूँ।
2
सुबह से तीन बार
खिला चुकी है
अपने सामने बिठाकर,
अब फिर कहती है
कि भूखा उठ गया तू।
3
कभी कभी लगता है
कि ट्रेन चलते ही
माँ खींच लेगी मुझे बाहर।
वो भी छोड़ने तो
यही सोचकर आती होगी।
4
नींद में बड़बड़ाती है
दालें, मसाले, गद्दे, लिहाफ के कवर
और जागते हुए
चुप-चुप सी रहती है
आजकल माँ।
5
तुम्हारी याद में
मन उचाट था सुबह से,
जाने क्यों
माँ तुम्हारी ही बातें करती रही
दोपहर भर।
6
कभी इस जेब में
कभी उसमें डालती है
सौ का नोट,
उसे अब भी लगता है
कि मैंने नहीं माँगे होंगे
पापा से पैसे।
7
फ़ोन पर बताती रहती है
कि किसका ब्याह हुआ,
कौन मरा पड़ोस में।
झल्लाते रहते हैं पिता
बिल बढ़ने पर।
वे क्या जानें कि
माँ बुनना चाहती है अपना शहर
मेरे इर्द-गिर्द ही।
8
आजकल नाराज़ है माँ।
पापा की चिट्ठियाँ
बहुत आने लगी हैं अचानक।
सोचती है कि पहचानूंगा नहीं
उसकी लिखावट।
9
बेकारी के दिनों में
ताने देती रहती थी
हर शाम खाने के समय,
रोटियों पर चुपड़े हुए आते थे
बहुत सारे आँसू भी।
10
उसके पैर दुख रहे थे,
मैं दबाता रहा देर तक।
सोने के बाद
रात भर लगता रहा
जैसे कोई हाथ सहला रहा हो।
11
छुट्टियों में जाती है कहीं
अपने घर का कहकर
अपनी सहेलियों,
अपनी माँ से मिलने।
उसका घर
हमारे घर से अलग है
अब भी शायद।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
39 कविताप्रेमियों का कहना है :
मेरा दावा है कि ये क्षणिकायें किसी की भी आँखें नम कर सकती हैं।
मुझे और कुछ नहीं कहना।
कभी कभी लगता है
कि ट्रेन चलते ही
माँ खींच लेगी मुझे बाहर।
वो भी छोड़ने तो
यही सोचकर आती होगी।'
यह सब से उम्दा क्षणिका लगी.ऐसा लगता है जैसे मेरे दिल की ही बात कह दी हो-
सारी क्षणिकाओं को पढ़ा तो आँखें भर आयीं.
baat hai!
kiya baat hai!
बहुत सुंदर और भाव भरी क्षणिकाएँ.-
उसके पैर दुख रहे थे,
मैं दबाता रहा देर तक।
सोने के बाद
रात भर लगता रहा
जैसे कोई हाथ सहला रहा हो।
इतनी सुंदर अभिव्यक्ति के लिए बधाई
नतमस्तक है माँ के आगे , सच्च मे माँ माँ होती है ,माँ जैसा कोई नही ,आखे नम हो गयी पढ़ कर .......सीमा सचदेव
aakhen nm ho gyi.yh schchai khne ke liye bhi himmt chahiye ki insan aanshu rok ske
बहुत ही सुंदर रचनाँए हैं
वास्तव मे माँ एक अद्भुत व्यक्तित्व है |
सभी माताओं को नमन |
रचना बाटने के लिए गौरव को धन्यवाद |
अवनीश तिवारी
तपन जी का दावा सही है.......
ये क्षणिकायें किसी की भी आँखें नम कर सकती हैं।
बहुत ही सुंदर रचनाँए......
गौरव, प्रथमे तु होली की (देर से ही सही) शुभकामनाएँ स्वीकारें.....
बहुत दिनों बाद हिन्द-युग्म पर आना हुआ, आते ही गौरव की "माँ" से साक्षात्कार हुआ. विशेष क्या कहूं......मां के "गागर में सागर" शब्दों ने बेटे को रुला दिया.
विशेषकर,
--------
* सुबह से तीन बार
खिला चुकी है
अपने सामने बिठाकर,
अब फिर कहती है
कि भूखा उठ गया तू।
-----
* फ़ोन पर बताती रहती है
कि किसका ब्याह हुआ,
कौन मरा पड़ोस में।
झल्लाते रहते हैं पिता
बिल बढ़ने पर।
वे क्या जानें कि
माँ बुनना चाहती है अपना शहर
मेरे इर्द-गिर्द ही।
-----------
* बेकारी के दिनों में
ताने देती रहती थी
हर शाम खाने के समय,
रोटियों पर चुपड़े हुए आते थे
बहुत सारे आँसू भी।
---------
* छुट्टियों में जाती है कहीं
अपने घर का कहकर
अपनी सहेलियों,
अपनी माँ से मिलने।
उसका घर
हमारे घर से अलग है
अब भी शायद।
----------------------
भाई आपकी हर रचना प्रशंसनीय होती है, जिसे पढ़ो वही सर्वोत्तम लगती है.
शुभकामना सहित,
मणि दिवाकर
वाह .... क्या बात है गौरव..... यूं तो सभी में तुमने नयापन भरा है, पर पहली और दसवीं मुझे खासकर पसंद आयी... बहुत बधाई
एक कवि सम्मेलन मैं शिव ओम अम्बर जी ने बहुत खूबसूरत बात कही थी ,की हम लोग बोलते हैं की सृष्टि के पहला पहला शब्द ओम है लेकिन शायद किसी ऋषि ने ये ग़लत लिपिबद्ध कर लिया होगा , किस्सी बच्चे ने ओ, माँ पुँकारा होगा और ऋषि ने ओम लिखा होगा | जिसने जीवन का पहला शब्द सिखाया हो उसके लिए एक मात्रा ,एक भाव , एक पाई काफी है | ये भावना ही इतनी प्रबल होती है कि इसके बारे में जो भी लिखो अच्छा ही हो जाता है |
बहुत बहुत बधाई गौरव !!!
गौरव जी
नींद में बड़बड़ाती है
दालें, मसाले, गद्दे, लिहाफ के कवर
और जागते हुए
चुप-चुप सी रहती है
आजकल माँ।
बहुत ही गहरी पंक्तियाँ है | जितनी तारीफ की जाय कम है |
आह ! कुछ कहने जैसा नहीं है. बस एक एहसास है, जो ..... कह नहीं सकता. हद है.
रुला दिया पगले! बहुत अच्छा लिखा है!! बहुत अच्छा!
पढ़कर ही लग गया था कि गौरव की होंगी. इस विधा पर तो तुमने कॉपीराईट सा ले लिया है.
१,३,५,६,७,१०,११ बहुत अच्छी लगीं. विशेषकर 1,3, 10 evam 11.
डा. रमा द्विवेदीsaid...
मां से बढ़कर कोईदौलत दुनिया में नहीं होती.....बहुत मर्मस्पर्शी क्षणिकाएं लिखी हैं गौरव जी आपने....आपकी लेखनी और अधिक निखरे इन्हीं शुभकामनाओं के साथ....
क्यों न इस बार काव्य-पल्लवन को माँ के नाम कर दिया जाए...फ़िर देखेंगे गौरव जी की कलम कहाँ-कहाँ असर करती है.....
मुझे कुछ क्षणिकाएँ साधारण लगीं कथ्य की दृष्टि से....वैसे माँ के बारे में पढने तो दिल भारी कर ही देता है...
निखिल
मेरी आंखें नम हो गई|
माँ जैसी कोई नही|
माँ एवं उसकी भावना को बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रदर्शित किया है जो की एक माँ की चाहत होती है आपने बचे के साथ उम्र के दुसरे पड़ाव मे वो व्याह कर लायी जाती है ,सही कहे टू भावनात्मक रूप से वो तभी अप्ने ससुराल से भी जुड़ पति है ,वात्सल्य-ओरेम का अनूठा वरदान किया है आपने जो की प्रशंशानिया है ..
बेकारी के दिनों में
ताने देती रहती थी
हर शाम खाने के समय,
रोटियों पर चुपड़े हुए आते थे
बहुत सारे आँसू भी।
क्या बात है ! गौरवजी
गौरव सोलंकी जी बहुत खूब
आप ऐसा लिखते हो हमेशा की अपना अतीत याद आता है
माँ की ममता और स्नेह का बखूबी दर्शाया है
गौरव जी, बस क्या कहूं आप की रचना पढ़ते ही मेरे आंखों मे आंसू आ गए माँ पर जितनी ही chadikaayen लिखी जाए वो कम होंगी , वैसे आप की रचना मुझे बहुत पसंद आई
माँ तो बस माँ ही है , रुला ही दिया आपने याद दिला कर , बहुत अच्छा लिखा है ,बधाई गौरव जी
पूजा अनिल
गौरव भाई,हरबार की तरह बेहतरीन.समझ नहीं आता की किस क्षणिका की तारीफ करूँ अगर एक की तारीफ करता हूँ तो दूसरा उपेक्षित रह जाएगा जो की उचित नहीं होगा,आँखों में आंसू ला देने वाली पंक्तियाँ.सीधे रूह में उतर गई,
बहुत बहुत बधाई
पावस नीर /आलोक सिंह "साहिल"
शब्द नहीं बचे कहने के लिये.. बस मन में महसूस कर रहा हूँ।
बधाई, बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति!
गौरव!
सारी क्षणिकाएँ साधारण होते हुए भी असाधारण हैं। इससे ज्यादा क्या कहूँ।
hats off to u!
-विश्व दीपक ’तन्हा’
निश्चित रूप से यह क्षणिकाएँ संवेदना जगाने में बेहद सफल हैं. इन में निश्छलता भी है व रचनात्मक उत्कृष्टता भी. 'माँ शहर मेरे इर्द गिर्द बुनना चाहती है' ये पंक्तियाँ बेहद मार्मिक हैं कवि मेरी बधाई स्वीकार करें - प्रेमचंद सहजवाला
निश्चित रूप से यह क्षणिकाएँ संवेदना जगाने में बेहद सफल हैं. इन में निश्छलता भी है व रचनात्मक उत्कृष्टता भी. 'माँ शहर मेरे इर्द गिर्द बुनना चाहती है' ये पंक्तियाँ बेहद मार्मिक हैं कवि मेरी बधाई स्वीकार करें - प्रेमचंद सहजवाला
यार गौरव एक तो माँ टोपिक ही बहुत अच्छा है ऊपर से तू ne बहुत ही सुंदर लिखा है १० वी तो बहुत अन्दर तक दिल को छु गई बाकि भी बहुत ही हृदय स्पर्शी है आँखे नम का देती है . ऐसे ही लिखता रहना तेरी कविता हमेशा पढता हु
यार गौरव एक तो माँ टोपिक ही बहुत अच्छा है ऊपर से तू ne बहुत ही सुंदर लिखा है १० वी तो बहुत अन्दर तक दिल को छु गई बाकि भी बहुत ही हृदय स्पर्शी है आँखे नम का देती है . ऐसे ही लिखता रहना तेरी कविता हमेशा पढता हु
बहुत अच्छे .....
advitiya
'माँ'...... पर तुम्हारी क्षणिकाएँ पढीं आँखे भर आईं... तुम इसी विधा में लिखा करो, शब्दों के रास्ते मन तक पहुँच जाते हो
मर्म को छू गई...भाव भीनी क्षणिकाएँ ...
Kya kahen aapki lekhni par shabd nahi mere pas..!
कल 11/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत ही बढ़िया माँ के ममता से सरोबार ऑंखें नाम कर देने वाली क्षणिकायें ...
सार्थक प्रस्तुति हेतु आभार!
अद्भुत क्षणिकाएं हैं....
सादर...
आँखे नम कर गई ..सभी क्षणिकाएँ. अनमोल है ...आपको बधाई .
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)