जब वे प्रेम करते थे
तब उनके आस-पास हिलकती थी नदी
दोनों इतने पारदर्शी थे
कि न तो वे दिखते थे न दिखती थी नदी
हवा में हिलते हुये धूप
उनके कपडों पर तितली की तरह मंडराती थी
इतने हल्के थे उनके वस्त्र
जैसे मछली की नर्म पूँछ होती है
बस उतनी ही सलवटें, उतनी ही धारियाँ,
उतनी ही नमी होती थी उन पर
जब वे प्रेम करते थे
तब मुस्कुरातीं थी मछलियाँ
मछलियों के मुस्कुराने पर
मछुए भी मुस्कुराते थे
मछुओं की मुस्कान काँटे की तरह
तिरछी हुआ करती थी
जिसे न वे जानते थे
न जानती थीं मछलियाँ
वे दोनों नदी के भीतर रहते थे
जैसे उन दोनों के भीतर रहती थी नदी
जब वे मरे...
तब जमीन स्वंय ले कर गई उन्हें श्मशान-भूमि
पेड चल कर आए उनकी चिता बनने
अग्नि की लपटों की तरह
पेडों से निकली पत्तियाँ हरहरा कर
जिसमें चिडियों ने अपने घोसले का एक तिनका
और अपने डैनों का एक पंख
उनकी अंतिम यात्रा के लिए रखा
हवा एक गिलहरी की साँसों मे शोकगीत गाने लगी
जिसका कोरस मैने अपनी साँसों में भी सुना
पानी जब उनकी अस्थियाँ लेने आया
तो मिट्टी का एक पात्र
लकडी की एक नाव
और सूत का वस्त्र
चुपचाप उसके साथ चला आया
यूँ हुआ उनका अंतिम-संस्कार
जो करते थे प्रेम
कि उनके बाद मछलियों ने
अपने बच्चों के नाम रखे उनके नाम पर
और उस दिन मछुआरों ने नहीं डाला
नदी में जाल.
-अवनीश गौतम
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25 कविताप्रेमियों का कहना है :
oh! pataa nahi kaun si duniyaa me kheench le gayi aapki ye panktiyaan,ajab sii anubhuuti,..jaisey chitr saamney kheench gayaa ho...adhbhut
जब वे प्रेम करते थे
तब उनके आस-पास हिलकती थी नदी
दोनों इतने पारदर्शी थे
कि न तो वे दिखते थे न दिखती थी नदी
" एक सपनों का मायाजाल, एक जलपरी की सी कल्पना , अथाह समंदर की शायद एक प्रेम कहानी , और भी पता नही क्या क्या , एक अनोखी रचना"
Regards
बहुत सुंदर !
Simply superb. Incredible.
बहुत ही लाजवाब लिखा है..
सुन्दर सृजन, बहुत बहुत बधाई
बहुत खूब.
yeh kahan pe aa gayi main... padte padte
अवनीश जी
प्रेम उत्सव की दस्तक हिन्द-यग्म पर सुनाई दे रही है । अच्छा लिखा है आपने ।
जब वे प्रेम करते थे
तब मुस्कुरातीं थी मछलियाँ
मछलियों के मुस्कुराने पर
मछुए भी मुस्कुराते थे
मछुओं की मुस्कान काँटे की तरह
तिरछी हुआ करती थी
जिसे न वे जानते थे
न जानती थीं मछलियाँ
प्रेम के इस स्वरूप का दर्शन कराने के लिए बधाई
बहुत भावुक बना दिया आपकी कविता ने,कुछ पारदर्शक शब्ध,कुछ दर्द,कुछ प्रेम की गाथा
बहुत खूबसूरत रचना है,बधाई.
बहुत सुन्दर कविता है .....
जब वे मरे...
तब जमीन स्वंय ले कर गई उन्हें श्मशान-भूमि
पेड चल कर आए उनकी चिता बनने
अग्नि की लपटों की तरह
पेडों से निकली पत्तियाँ हरहरा कर
जिसमें चिडियों ने अपने घोसले का एक तिनका
और अपने डैनों का एक पंख
उनकी अंतिम यात्रा के लिए रखा
हवा एक गिलहरी की साँसों मे शोकगीत गाने लगी
जिसका कोरस मैने अपनी साँसों में भी सुना
बहुत सुन्दर अवनीश जी!! मजा आ गया।
Alag sii duniya main le gayii ye kavita , maza aa gaya !!badhaii
निशब्द हो गया हूँ अवनीश जी आपकी इस कविता के बाद, क्या कहूँ, चुप ही रहूँगा पर मेरे मौन का हर हर्फ़ आपकी इस कविता पर कुर्बान ....
बहुत हीं कोमल प्रेम कहानी है अवनीश जी। परंतु समझने में थोड़ा वक्त लगा,थोड़ा आसान लिखते तो और मज़ा आ जाता।
रही बात कविता की, तो प्रेम की कविता है , अच्छी लगेगी हीं।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तनह’
एक स्वर्गीय भाव का अद्भुत कथन ... क्या कहने हैं अवनीश जी ! आपको विनम्र अभिवादन और बधाईयाँ.
हिन्दयुग्म पर प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ कविताओं में से एक....बल्कि, कहें कि समकालीन श्रेष्ठ कविताओं में से एक...
अवनीश जी कि लेखनी ने ग़ज़ब ढा दिया इस बार......मैं घायल हो गया..
निखिल
बहुत सुंदर रचना |
अवनीश जी
निशब्द हूँ...
बहुत बहुत बधाई |
एक अनोखी प्रेम गाथा पर चिरपरिचित सी---
कविता में इस का ऐसा रूप पढ़ना अद्भुत लगा.
सुंदर कविता है.
अवनीश जी आपकी कविता के विषय में इतना कुछ पहले ही कहा जा चुका है की मेरे कुछ भी कहने का कुछ मतलब नहीं रह जाता.
शुभकामनाओं सहित
आलोक सिंह "साहिल"
सभी का बहुत-बहुत आभार जो आपने इस कविता को इतना दुलार दिया!
यह हिन्द-युग्म पर प्रकाशित सुंदरतम कविताओं में से एक है। अवनीश जी आप कवि की जिम्मेदारी समझते हैं। हम आपके सानिध्य को अपना सौभाग्य मानते हैं।
प्रेम की इतनी सुंदर व्याख्या! मज़ा आ गया.
Aisa laga jaise saari bhaag-daur, sara shor-sarba kuch samay ke liye ruk gaya ho.
Yaad aa gayi ek talash!
यह कविता दिलो दिमाग पर छा गई है .बहुत सुंदर रचना !! बधाई आपको कविता की भी और वर्षगांठ की भी :)
बहुत-बहुत धन्यावाद रंजू जी!
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