माँ
बदन में हरारत थी
तबीयत कुछ नासाज़ थी
रात भर
माँ की तस्वीर
सिरहाने बैठी रही।।
बाबूजी
बाबूजी
खेत में खड़ी फसल हैं
हम उन्हें
काटते हैं
कूटते हैं
फिर
उन्हें बेंच के
अपना-अपना हिस्सा रख लेते हैं
दीदी
मुझसे झगड़ के
खूब रोती है
तब,
दीदी मुझे
माँ सी लगती है।।
भैया
माँ की तरह बलाएं लेते हैं
बाबूजी कि तरह दुआएं देते हैं
........
........
........
भैया,
मेरे माई-बाप हैं
यार(ग़द्दार)
तुम लाख करो
भाई-चारे की बातें
तुम लाख करो
चैन-ओ-अमन के दावे
सिपाहियों के कंधे पर टंगी बंदूको का मतलब है
हम में से कोई ग़द्दार है
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24 कविताप्रेमियों का कहना है :
माँ
बदन में हरारत थी
तबीयत कुछ नासाज़ थी
रात भर
माँ की तस्वीर
सिरहाने बैठी रही।।
जो दर्द इस में महसूस किया वो कहा नही जा सकता !!
पिता के कही गई यह पंक्तियां सच के बहुत क़रीब लगी
बाबूजी
बाबूजी
खेत में खड़ी फसल हैं
हम उन्हें
काटते हैं
कूटते हैं
फिर
उन्हें बेंच के
अपना-अपना हिस्सा रख लेते हैं
सुंदर ..आपके लिखे का इंतज़ार रहता है क्यूंकि दिल जानता है की कुछ नया और बेहतरीन पढने को मिलेगा
बधाई मनीष जी
बदन में हरारत थी
तबीयत कुछ नासाज़ थी
रात भर
माँ की तस्वीर
सिरहाने बैठी रही।।
बधाई. बहुत ही उम्दा लिखा है.
माँ का प्यार है चांदनी, शीतल ठंडी छांव
सुख सारे इस गोद में, दुःख जाने कित जाय.
मनीष जी
अच्छी क्षणिकाएँ लिखी हैं । मुझे निम्न पंक्तियाँ पसन्द आई-
तुम लाख करो
भाई-चारे की बातें
तुम लाख करो
चैन-ओ-अमन के दावे
सिपाहियों के कंधे पर टंगी बंदूको का मतलब है
हम में से कोई ग़द्दार है
बधाई स्वीकार करें । सस्नेह
मुझसे झगड़ के
खूब रोती है
तब,
दीदी मुझे
माँ सी लगती है।।
अच्छी लगी ।
भैया पर कुछ और भी सोचिए ।
मनीष जी ,रिश्तों की अहमियत इतने सुंदर ढंग से प्रस्तुत करने के लिए बधाई स्वीकार करें ! एक इंसान अपने परिवार में माँ,बाबूजी ,दीदी ,भइया से किस प्रकार भावात्मक रूप से जुडा होता है इसका उदाहरण और कहाँ देखने को मिलेगा !आपकी रचना बहुत सुंदर भावों से सजी है !बहुत ,बहुत बधाई आपको ....!
मनीष जी,
बेहतरीन क्षणिकायें, और शायद इतनी मार्मिक कि सोचने पर विवश करती हैं। और अंतिम तो गंभीरतम चोट है:
तुम लाख करो
भाई-चारे की बातें
तुम लाख करो
चैन-ओ-अमन के दावे
सिपाहियों के कंधे पर टंगी बंदूको का मतलब है
हम में से कोई ग़द्दार है
आपकी इन क्षणिकाओं नें बेहद प्रभावित किया, बधाई इस उत्कृष्टता के लिये।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अच्छी क्षणिकाएँ थीं मनीष जी !
पहली और अंतिम तो ज़बरदस्त!दिल को छू गयीं.. इस विधा पर भी आपकी पकड़ कमाल की है |
बधाइयाँ ...
रिश्ते भी बडी अजब चीज हैं। उस पर ऎसी क्षणिकाएं, ....पलकें भीग गई।
मनीष जी!
आपकी अन्य रचनाओं की ही तरह क्षणिकायें भी पसंद आयीं विशेषकर पहली और आखिरी.
बधाई स्वीकारें!
बदन में हरारत थी
तबीयत कुछ नासाज़ थी
रात भर
माँ की तस्वीर
सिरहाने बैठी रही।।
माँ को इतने सुंदर लफ़्ज़ों मे ढलने के बाद -
बाबूजी
खेत में खड़ी फसल हैं
हम उन्हें
काटते हैं
कूटते हैं
फिर
उन्हें बेंच के
अपना-अपना हिस्सा रख लेते हैं
बाबूजी पर यह बात कह कर आपने कमाल कर दिया मनीष जी बहुत ही सुंदर है ये दो क्षनिकायें ....
मुझे निम्न पसन्द आई-
माँ, बाबूजी,
मनीष जी !!
आपकी रचना से मेरा यह प्रथम साक्षात्कार है, काफी अच्छा लगा पढ़कर. विशेषकर निम्न क्षणिकाएँ-
१)बाबूजी
खेत में खड़ी फसल हैं
हम उन्हें
काटते हैं
कूटते हैं
फिर
उन्हें बेंच के
अपना-अपना हिस्सा रख लेते हैं
२)यार(ग़द्दार)
तुम लाख करो
भाई-चारे की बातें
तुम लाख करो
चैन-ओ-अमन के दावे
सिपाहियों के कंधे पर टंगी बंदूको का मतलब है
हम में से कोई ग़द्दार है.
आशा है आगे भी लेखनी का स्वाद चखने को मिलेगा.
शुभाकांक्षी.
मणि
माँ की तरह बलाएं लेते हैं
बाबूजी कि तरह दुआएं देते हैं
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भैया,
मेरे माई-बाप हैं
अच्छा लगा पढ़कर ...बधाई
आपकी चिन्दियां पंसद आई
मनीष जी,
आपकी प्रस्तुति में एक बात गौर करने वाली होती है , एक एक पंक्ति कवि के यथार्थ से जुड़े होने का एलान करती है । आप अपने परिवेश , अपने अनुभव को जिस प्रकार शब्दों में ढालते हैं वह अद्भुत है ।
मनीष जी!!!!
बहुत अच्छा लिखा है...आपने जंद शब्दों का प्रयोग करके रिश्ते कि गहराई को बहुत अच्छे से लिखा है......
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भैया
माँ की तरह बलाएं लेते हैं
बाबूजी कि तरह दुआएं देते हैं
........
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भैया,
मेरे माई-बाप हैं
तुम लाख करो
भाई-चारे की बातें
तुम लाख करो
चैन-ओ-अमन के दावे
सिपाहियों के कंधे पर टंगी बंदूको का मतलब
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बधाई!!!
मनीष,
जिसने रिश्ते भरपूर जिए हों, वही ऐसे शब्द गढ़ सकता है....मैंने आपको पहले ज़्यादा नही पढा था, मगर अब पहले कि रचनायें पढी हैं...तब जाकर अफ़सोस हुआ कि आपको इतनी देर से क्यों जान पाया...
आप ना सिर्फ लघु कविताओं के उस्ताद हैं, बल्कि सिर्फ वही लिखते हैं जितना जिया है.....ये एक इन्सान कि हैसियत से बड़ी अच्छी बात है....माँ हमेशा मेरी कविताओं का केंद्र रही है....इसिलए आपकी रचना कि महत्ता कई गुना बढ़ गयी...
उम्मीद है आपके रिश्ते और बेहतर अनुभव दें.....
निखिल
मनीष जी,
रिश्ते की बेहद सटीक विवेचना की है आपने।
सारी क्षणिकाएँ अद्भुत बन पड़ी हैं विशेषकर माँ,बाबूजी तथा यार वाली।
बधाई।
मनीष बाबू ,
रिश्तों के सच को आपने क्या बखूबी दिखाया है .....मुझे (बाबूजीखेत में खड़ी फसल हैंहम उन्हें काटते हैंकूटते हैंफिर उन्हें बेंच केअपना-अपना हिस्सा रख लेते हैं) काफी अच्छी लगी ....शायद यही वजह है कि मैं आपको बाबु शब्द से संबोधित कर रह हूँ ....नाराज मत होइयेगा .....
आशा है कि आगे भी इस तरह कि रचनाये पढने को मिलेंगी
मिलेंगी ना ?
भैया व दीदी वाली क्षणिकाएँ ध्यान आकृष्ट नहीं करतीं। लिखते वक़्त यह भी सोचा करें कि आप लिख रहे हैं।
सारी क्षणिकाएँ अद्भुत हैं ...
माँ,बाबूजी वाली विशेष हैं |
बहुत उम्दा लिखा है.
मनीष जी !
बधाई।
बाबूजी
खेत में खड़ी फसल हैं
हम उन्हें
काटते हैं
कूटते हैं
फिर
उन्हें बेंच के
अपना-अपना हिस्सा रख लेते हैं
मनीष जी,
आपकी इस क्षणिका ने झकझोर कर रख दिया है। बाकी सभी क्षणिकाएँ भी इतनी हीं सशक्त है। ऎसे हीं लिखते रहें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सिपाहियों के कंधे पर टंगी बंदूको का मतलब है
हम में से कोई ग़द्दार है
behtaren likhaa hai,aapne,anekoon shubhkaamnaaye
babu ji wali chadika behtreen hai.
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ye to mein pahle bhi bata chuka hoon.
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