१. मुखौटे
चलो
प्यार के झूठे मुखौटे
हटा दें हम-
जता दे लोगों को
कि
केवल बरगदों पर हीं
डरावने सच नहीं होते।
२. बदगुमां
आओ
कुछ पल को वक्त थाम लें,
वरना
आगे बढते लोग बदगुमां हो जाते हैं।
३. खानाबदोश दर्द
तेरे आँसुओं से मेरे सीने में यूँ उतरा दर्द
मानो
बादलों ने पत्थरों पर आग डाल दी हो।
....
जाने क्यों
इतना खानाबदोश है दर्द।
४.कफन
बस रहम-ओ-करम के लिए
यह दिल-नवाज़ी?
जानती नहीं ...
गड़े मुर्दे
कफन नहीं माँगते!
५. तुम्हारी निगाहें
तुम्हारी निगाहें-
टेढी भली हैं,
भली होतीं तो
यह दुनिया तुम्हें
टेढी कहती............. मेरे कारण।
६. पालिथीन
कूड़ेदान के कचरे
"बायोडिग्रेडेबल" होते हैं,
लेकिन
इंसान के अंदर का कचरा-
इंसानी "बायोलोजी" "डिग्रेडेबल"।
सच है...
बेईमानी एक पालिथीन है.....
इंसान गल जाता है, यह नहीं गलता।
७. इश्क
बस पट्टी बाँधी है उसने,
फिर भी लोग बरगला लेते हैं उसे......
पर तुम तो अंधे हो
इश्क..
मैं तुम्हें बरगला क्यों नहीं पाता ?
-- विश्व दीपक 'तन्हा'
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
24 कविताप्रेमियों का कहना है :
तनहा जीं,
"आओ कुछ पल को वक्त थाम लें,
वरनाआगे बढते लोग बदगुमां हो जाते हैं।"
वाह....
"....जाने क्यों इतना खानाबदोश है दर्द।"
आह....
"सच है...बेईमानी एक पालिथीन है.....
इंसान गल जाता है, यह नहीं गलता।"
इस्श!!
लाजवाब....
आपके आधुनिक प्रयोग व प्रतीक मुझे बहुत पसंद हैं....आप बहुत ही जागरूक कवि हैं....
बधाई स्वीकारें॥
निखिल
तनहा जी
अच्छा लिखा है । विशेष रूप से निम्न पंक्तियाँ -
बस पट्टी बाँधी है उसने,
फिर भी लोग बरगला लेते हैं उसे......
पर तुम तो अंधे हो
इश्क..
मैं तुम्हें बरगला क्यों नहीं पाता ?
बहुत-बहुत बधाई ,
तुम्हारी निगाहें-
टेढी भली हैं,
भली होतीं तो
यह दुनिया तुम्हें
टेढी कहती............. मेरे कारण।
तनहा जी आपको पढ़ना हमेश ही सुखद लगता है मुझे, एक एक क्षणिका बेहद उत्कृष्ट भाव लिए है, मन को छूती है विशेषकर पहली -
चलो
प्यार के झूठे मुखौटे
हटा दें हम-
जता दे लोगों को
कि
केवल बरगदों पर हीं
डरावने सच नहीं होते।
बधाई
तन्हा जी,
सुन्दर प्रयोग! बधाई।
कूड़ेदान के कचरे
"बायोडिग्रेडेबल" होते हैं,
लेकिन
इंसान के अंदर का कचरा-
इंसानी "बायोलोजी" "डिग्रेडेबल"।
सच है...
बेईमानी एक पालिथीन है.....
इंसान गल जाता है, यह नहीं गलता।
**************
बस पट्टी बाँधी है उसने,
फिर भी लोग बरगला लेते हैं उसे......
पर तुम तो अंधे हो
इश्क..
मैं तुम्हें बरगला क्यों नहीं पाता ?
बहुत-बहुत आनंद आया पढ़कर।
तनहा जी,
अद्भुत क्षणिकायें हैं, चरितार्थ करती हैं कि "जहाँ काम आये सुई, कहाँ करे तलवारि"।
"केवल बरगदों पर हीं
डरावने सच नहीं होते।"
"आगे बढते लोग बदगुमां हो जाते हैं।"
"जाने क्यों
इतना खानाबदोश है दर्द।"
"गड़े मुर्दे
कफन नहीं माँगते!"
"भली होतीं तो
यह दुनिया तुम्हें
टेढी कहती............. मेरे कारण।"
"बेईमानी एक पालिथीन है.....
इंसान गल जाता है, यह नहीं गलता।"
"पर तुम तो अंधे हो
इश्क..
मैं तुम्हें बरगला क्यों नहीं पाता ?"
आपकी कविताओं को महसूस कर आपका कायल हुआ जा सकता है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
vishv deepak ji,aapka prayas bahut sunder hai..aapmein apaar shamtayien hein..alp shabdon mein vistrit abhivyakti hai..badhai ...
तनहा जीं,
चलो
प्यार के झूठे मुखौटे
हटा दें हम-
जता दे लोगों को
कि
केवल बरगदों पर हीं
डरावने सच नहीं होते।
वाह....
"....जाने क्यों इतना खानाबदोश है दर्द।"
"....बेईमानी एक पालिथीन है.....
इंसान गल जाता है, यह नहीं गलता।"
क्षणिकायें पढ़कर बहुत आनंद आया
बधाई
bahut bahut badhai sweekar kijiye VD bahi...
aapki 1st kashnika se hin ek damdar aagaz ki jhalk pa gaya main.Humari maujuda jindagi men jhooth ki kitni mahta hai...is baat ko isse kam shabdon men itne behtar dhang se I don't think ki rakha ja sakta hai...
ye panktiyan bhi kafi achhi lagin..
"तेरे आँसुओं से मेरे सीने में यूँ उतरा दर्द
मानो
बादलों ने पत्थरों पर आग डाल दी हो।
....
जाने क्यों
इतना खानाबदोश है दर्द।"
"तेरे आँसुओं से मेरे सीने में यूँ उतरा दर्द
मानो
बादलों ने पत्थरों पर आग डाल दी हो।"
bahut der sochta reh gaya iss line padh ...
शब्द-शिल्पीजी,
क्षणिकाएँ शानदार है, मज़ा आ गया पढ़कर...
"सच है...बेईमानी एक पालिथीन है.....
इंसान गल जाता है, यह नहीं गलता।"
क्या बात कही है, अब तो आप भी दार्शनिक हो गये ;)
बहुत-बहुत बधाई!!!
इक इक बूंद मंगाई है
शायद यह क्षणिकाएं...
खुदा के घर से आई हैं
तनहा जी,
क्षणिकाएँ दिल को छू गईं। डरावने सच, बदगुमाँ लोग, खानाबदोश दर्द, हमेशा याद रहेंगे। आपकी एक एक क्षणिका एक एक दिवान का सा मतलब समेटे हुए है।
(शब्दप्रेमी) तुषार
वाह दीपक जी पढ़ के मज़ा आ गया
बहुत ही सुंदर लगी यह ....
जाने क्यों
इतना खानाबदोश है दर्द।..
बहुत ख़ूब ...
और सबसे अच्छी लगी यह
बदगुमां
आओ
कुछ पल को वक्त थाम लें,
वरना
आगे बढते लोग बदगुमां हो जाते हैं।
बहुत सुंदर लिखते हैं आप सच में
बधाई
वाह तन्हा जी!
सभी क्षणिकायें बहुत सुंदर हैं. पहले ही लोग इतना कह चुके हैं कि और कुछ नहीं कह सकता. बधाई स्वीकारें!
तन्हा जी,
सभी क्षणिकायें बहुत सुन्दर बन पडी हैं. बधाई.
आजकल यह देखने में आ रहा है कि सभी दोस्त कणिकाओं पर अधिक ध्यान दे रहे है.. जो मेरे मतानुसार युग्म के लिये लाभकर नहीं.. मेरा यह भी मानना है कि क्षणिकाओं की रचना सबसे आसान है क्योंकि इसमे एक भाव भर का समावेश होता है और उसकी व्याख्या नहीं करनी होती...व्याख्या ही से कवि की क्षमता का पता चलता है...
यह मेरा निजी मत है और इस पर में बाकी मित्रों के विचार भी जानना चाहूंगा...
तनहा जी क्या ख़ूब क्षनिकाएं है ...
एक एक में ख़ूब कहा है
सभी में कही ना कही गहरा भाव है ..
मुझे पांचवी सबसे ज्यादा अच्छी लगी ..
आपको बधाई !!!
चलो
प्यार के झूठे मुखौटे
हटा दें हम-
जता दे लोगों को
कि
केवल बरगदों पर हीं
डरावने सच नहीं होते।
बहुत खूब ! सभी अच्छी लगी :)
- सीमा कुमार
आदरणीय मोहिन्दर जी
आपने एक उचित विषय की ऒर सबका ध्यान आकर्षित किया है इसके लिए आपका आभार। यदि योग्य समझें तो मैं भी इस संबध में अपने विचार प्रस्तुत करना चाहूंगा।
मैं समझता हूं कि भारतीय साहित्य में क्षणिकाऒं का लेखन बहुत सीमित है साथ ही नया भी। इसमें भी शंका नहीं है कि हिन्द युग्म में पिछले कुछ समय से क्षणिका लिखने का प्रचलन बढा है। परन्तु मुझे इसमें भटकाव नहीं दिखता। ना ही ऎसा लगता है कि कि यह सरल हैं अतः इनके लेखन में बढौतरी हुई है। फिर भी यह भी सोचने योग्य बात है कि युग्म मात्र एक ही प्रकार का साहित्य तो नहीं दे रहा। हालांकि अब तक ऎसा पर्तीत नहीं हुआ है फिर भी मैं समझता हूं कि कवियों को साहित्य के सभी प्रकारों का समावेश युग्म में प्रस्तुत करना चाहिए। दसके लिए निति निर्धारण भी किया जा सकता है।
साभारः सुनील डोगरा ज़ालिम
9891879501
दीपक!!!
मित्र तुम्हारी रचना तो बिल्कुल ही निराली है...तारीफ़ के शब्द नही मेरे पास...जब भी तुम्हारी रचना पढता हुं एक नयापन का एहसास होता है...पहले "१२ त्रिवेणीयां" अब "सात क्षणिकाएँ"....बहुत अच्छी है तुम्हारी कविता....
बधाई हो!!!
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आओ
कुछ पल को वक्त थाम लें,
वरना
आगे बढते लोग बदगुमां हो जाते हैं।
तेरे आँसुओं से मेरे सीने में यूँ उतरा दर्द
मानो
बादलों ने पत्थरों पर आग डाल दी हो।
कूड़ेदान के कचरे
"बायोडिग्रेडेबल" होते हैं,
लेकिन
इंसान के अंदर का कचरा-
इंसानी "बायोलोजी" "डिग्रेडेबल"।
सच है...
बेईमानी एक पालिथीन है.....
इंसान गल जाता है, यह नहीं गलता।
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कचरे को बहुत ही सही ढंग से तुमने बेईमानी से तुलना की है!!!!
प्रायोगिक रूप से और भाव-संयोजन के स्तर पर आप हमेशा चौकाते हैं और प्रभावित करते हैं। मुझे इस बार आपकी सातों क्षणिकाएँ पसंद आईं। किसी भी क्षणिका में आपने अपनी खास पहचान खोने नहीं दी है।
क्षणिकाएँ भी भावों का दर्पण हैं.
यह सही है उन में ज्यादा गुन्जायिश नहीं होती-
२०-२० की क्रिकेट की तरह यह भी कुछ कुछ instant कविता जैसी हैं-
आप की सभी क्षणिकाएँ आपने मकसद में पूरी उतर रही हैं-तनहा जी,
बधाई !
तनहा जी़
देर के लिए माफी़ चाहुँगा।
हर बार की तरह इस बार भी आपने कमाल लिखा है।मुझे जो क्षणिकाएं अच्छी लगीं-
चलो
प्यार के झूठे मुखौटे
हटा दें हम-
जता दे लोगों को
कि
केवल बरगदों पर हीं
डरावने सच नहीं होते।
आओ
कुछ पल को वक्त थाम लें,
वरना
आगे बढते लोग बदगुमां हो जाते हैं।
कूड़ेदान के कचरे
"बायोडिग्रेडेबल" होते हैं,
लेकिन
इंसान के अंदर का कचरा-
इंसानी "बायोलोजी" "डिग्रेडेबल"।
सच है...
बेईमानी एक पालिथीन है.....
इंसान गल जाता है, यह नहीं गलता
बाकी भी आपने ठीख लिखा है,पर क्या है न कि मुझे तीखी चीजें अच्छी लगती हैं।तीखी चीजें........जो ज़बान पर पड़ते ही सन्न कर देती हैं
आप निसंदेह बधाई के पात्र हैं।
बहुत बढिया!.....
अति सुन्दर!...
कम शब्दों में गहरी बातें...
लाजवाब!...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)