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Sunday, July 26, 2009

बकलोल और हँसलोल महँगी


हिन्दी कविताओं में गाँव सहज रूप से बहुत कम मौज़ूद दिखता है। शहर की तरफ़ विस्थापित आज के साहित्यकार अपने गाँवों की जो तस्वीर, जो संवेदनाएँ और परिवेश खींचते हैं, वह उनके गाँवों का वर्तमान नहीं, बल्कि उनके बचपन के गाँव हैं। अतः हमारी कलमों से भारत की आत्मा के बहुत से सोये तथा जगे लोग बच जाते हैं। परंतु रामजी यादव की कविताओं में ये ही पात्र के रूप में शामिल हैं।

महँगी

किसी के श्राद्ध में नहीं गए महंगी
लेकिन हर जात-धरम के प्यासे तपे पैदल पंड़हरु को
अपने लोटे से पानी पिलाया
और एक भेली गुड़ भी दिया
हाल-चाल पूछा हँसकर सुर्ती मलते हुए
फिर बढ़ा दिया हथेली और बची तो खुद फाँक गए

जिये बिना पत्थर के और फूल की ज़रूरत न थी
महँगी ने जीवन में कभी राम का नाम न लिया
अल्लाह की ज़रूरत न पढ़ी
और वाहे गुरु के बारे में जानते न थे
जो दावा करता है
कि एक ओंकार करता-पुरख निर्भय निर्बेर को
मेरी नज़र से देखो मैं ही जानता हूँ उसे

महँगी चराते थे बकरियाँ
और मज़ाक ज़रूर करते थे
आते-जाते लोगों से
किसी का भारी बोझ देखते तो
उतारकर सुस्ताने को कहते थे
एक लोटा पानी और गुड़ भी थमाने को तत्पर थे

ज़रूर किसी दिन
ईसा मसीह अपना सलीब लिए जाते दिखते उधर से
तो महंगी उसे उतरवा देते
और गुड़ पेश करते कि
लो भाई खाओ, पियो पानी और
इस लकड़ी को बनाओ किसी मुफलिस की
झोंपड़ी का थून्ह-बंड़ेरा
बहुत हो गया- कहाँ-कहाँ लेकर फिरोगे
अब कुछ बात करो, बताओं तुम्हें दुनिया में कोई चाहता है?
और हँसने लगते महँगी के साथ बेचारे ईसा मसीह भी
हँसलोल तो इस कदर थे महँगी कि
लगता था हिला देंगे बनारस
बतियाते ऐसे भोले भाव से कि पक्के बकलोल हों

नब्बे साल की चन्नर की माई
रोती मिलीं एक दिन
कहते हुए दुख कि एक टुकड़ा रोटी नहीं है मेरे लिए
आज अपाढ़ (बोझ) हो गई हूँ मैं बचवा!
महँगी बोले- अरे बुढ़िया! कहाँ कम है रोटी!
कहाँ कम है गुड़! कहाँ कम है पानी!
कम हो गई हैं तो तेरी खुशियाँ
गायब है तेरी हँसी और सबकुछ हो गया छूमंतर

अच्छा चल एक वचन दे अभी
कि रोएगी नहीं कभी भी
एक वादा कर तुरंत और निभा उसे
कि रोई है जीवन भर तुझे दुख मिला था
लेकिन हँसते हुए मरना जब मरना
वादा कर और निभा इसे देख भूलना मत
ले गुड़ खा, पानी पी पेट भर और सुस्ता ले!

और एक दिन हँसी बुढ़िया मंत्रबिद्ध
कि अब रूकूँगी नहीं
बुलावा है मेरे राम का
सुनती हूँ बार-बार आती है आवाज़
जल्दी करो, जल्दी करो

दौड़ पड़े बेटा-बेटी, नाती-पोते
पतोह-नतोह, गोतिया-दयदा
खिलाओ रे बर्फी, पिलाओ रे पानी
माई की इच्छा पूरी करो सब
यह इतना हँसती है जैसे स्वर्ग ही जायेगी सीधे
पूछो-पूछो कि खाने का मन है कुछ
पेड़ा, रसगुल्ला, मालपुआ कि जलेबी!
दाँत तो झर गये ऐसे ही चुभलाएगी

बुढ़िया सिधारी भी तीन माह बाद
और हँसती रही जब तब मौका लगा
जैसे हँसती हो दुनिया के दस्तूर पर
पाखंड पर, निर्मता और दोहरेपन पर हँसती हो
बाकी रहा सामिराज चन्नर का
एक माई नहीं रही बाकी
बाकी रही इज्जत कि
हँसते सिधारी थी माई
बहुत खुश थी!

छोड़ गए भारी दौलत श्यामभूषण सिंह
सो तेरही शानदार हो, शान के मुताबिक हो
जहाँ-तहाँ मिला स्वर्ग का मोखा (छेद)
ठूँसी गई वहीं सामग्री
कपड़े-लत्ते, सिक्के चाँदी के
मोबाइल फोटो वाला पक्के उन्नीस हज़ार का
झर हर-पुरहर महापातर लोटा फटफटिया से
महँगी से बताने लगा श्राद्ध की महिमा

महँगी उबासी ले बोले, पंडितऊ!
स्वर्ग में हिया से माल! तोशक, तकिया, रजाई
गद्दा, खटिया, मचिया, अनवन जिनिस
तो हियाँ का दिक्कत रही शमभूषणा के?
बैकुंठ में ई मामूली जिनिस भी नहीं है
भिखमंगे की झोपड़ी है क्या बैकुंठ!
हुआं से बार-बार करेगा मोबाइल मँगाएगा रुपया
तो ले क्यों न गया दो-चार लाख
हुआं बैंक भी नहीं है क्या
और टॉवर न होगा तो कैसे पकड़ेगा मोबाइल?
जवाब नहीं बना महापातर से तो एक्सीलेटर दबाया जोर से

महँगी और जोर से हँसे - जहाँ खटिया न हो
बिस्तर न हो, चावल यहीं से भिजवाना हो
उस बैकुंठ काहे जाऊँगा मैं
उससे अच्छा तो यहीं हूँ
चराता रहूँगा बकरियाँ।

कवि- रामजी यादव

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16 कविताप्रेमियों का कहना है :

गिरिजेश राव, Girijesh Rao का कहना है कि -

राम जी के चरण पखारने को मन करता है।
बहुत दिनों के बाद इतनी सशक्त और देहात में घुली 'सकलोल' (सर्व गुण सम्पन्न) कविता पढ़ने को मिली है।

हिन्द युग्म को साधुवाद। हो सके तो यादव जी को ये बताइए कि उनका एक 'प्रेमी' अब लखनऊ में भी पाया जाता है।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

आपकी कविता कुछ लम्बी लगी लेकिन इसमें एक अच्छी फिलोसफी भी छुपी हुई है. कुछ कुछ ऐसी ही रूसी लेखक तलस्तोय की एक कहानी भी है. अच्छी कविता कहना चाहूँगा. ये पंक्तियाँ काफी पसंद आईं.

ज़रूर किसी दिन
ईसा मसीह अपना सलीब लिए जाते दिखते उधर से
तो महंगी उसे उतरवा देते
और गुड़ पेश करते कि
लो भाई खाओ, पियो पानी और
इस लकड़ी को बनाओ किसी मुफलिस की
झोंपड़ी का थून्ह-बंड़ेरा
बहुत हो गया- कहाँ-कहाँ लेकर फिरोगे
अब कुछ बात करो, बताओं तुम्हें दुनिया में कोई चाहता है?
और हँसने लगते महँगी के साथ बेचारे ईसा मसीह भी
हँसलोल तो इस कदर थे महँगी कि
लगता था हिला देंगे बनारस
बतियाते ऐसे भोले भाव से कि पक्के बकलोल हों

सतीश पंचम का कहना है कि -

बहुत सुंदर कविता।

Nikhil का कहना है कि -

बढिया...

अर्चना तिवारी का कहना है कि -

गाँव की संस्कृति की याद दिलादी इस कविता ने ...सुंदर

Manju Gupta का कहना है कि -

अच्छा चल एक वचन दे अभी
कि रोएगी नहीं कभी भीकि रोई है जीवन भर तुझे दुख मिला था
लेकिन हँसते हुए मरना जब मरना
वादा कर और निभा इसे देख भूलना मत
ले गुड़ खा, पानी पी पेट भर और सुस्ता ले!.
कविता में प्रवाह, मर्मस्पर्शी है . महंगी की हँसने की सीख आज की जरूरत है .आभार .
एक वादा कर तुरंत और निभा उसे

शोभना चौरे का कहना है कि -

kavita me manhgi nam hona hi uski sarthkata ke liye kafi hai .
ak sashkt kvita .smaj ke dhkoslo ko ujagar karti sashakt kvita .
sadhuwad

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

-ऐसी कविताएँ लिखे जाने, प्रकाशित किए जाने, पढ़े जाने, समझे जाने और समझ कर एक दूसरे को लगातार समझाए जाने की जरूरत है ताकि ....ताकि भाग जाए हमारे भीतर का 'पंडितऊ'.....जाग जाए सोया हुआ 'मंहगी'......।
-मैं समझता हूँ कि इन सब आवश्यकताओं की पूर्ति किए जाने के लिए श्री रामजी यादव व हिन्दयुग्म बधाई के पात्र हैं।
-देवेन्द्र पाण्डेय।

manu का कहना है कि -

कहानी बहुत अच्छी लगी..
बधाई के ही पात्र हैं आप..

निर्मला कपिला का कहना है कि -

सुन्दर कविता के लिये बधाई

निर्मला कपिला का कहना है कि -

सुन्दर कविता के लिये बधाई

सदा का कहना है कि -

बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति ।

Mukul Upadhyay का कहना है कि -

निशचित ही एक अच्छी रचना है राम जी अभी कविता सिर्फ एक बार पढ़ी हैं. और हिस्सों में जितनी मेरे भीतर उतारी है अब तक उससे जी रहा हूँ.....जल्दही जब कविता पूरी तरह भीतर उतर जाये गी तो इस पर इमानदारी से प्रतिकिर्या करने की कोशिश करूँगा ....फिलहाल बधाई एक अच्छी रचना के लिए. मुकुल उपाध्याय .

Disha का कहना है कि -

महँगी और जोर से हँसे - जहाँ खटिया न हो
बिस्तर न हो, चावल यहीं से भिजवाना हो
उस बैकुंठ काहे जाऊँगा मैं
उससे अच्छा तो यहीं हूँ
चराता रहूँगा बकरियाँ।

अच्छा है लेकिन मुझे लगता है कि यह कविता कम लेख ज्यादा है.

gazalkbahane का कहना है कि -

बकलोल और हँसलोल महँगी"
कविता भर लाई बंहगी
अति सुन्दर,मनभावन बस और क्या कहूं मजा आ गया बधाई रामजी यादव भाई श्याम सखा श्याम

अमिता का कहना है कि -

महँगी और जोर से हँसे - जहाँ खटिया न हो
बिस्तर न हो, चावल यहीं से भिजवाना हो
उस बैकुंठ काहे जाऊँगा मैं
उससे अच्छा तो यहीं हूँ
चराता रहूँगा बकरियाँ।

बहुत खूब बहुत सुंदर कविता बधाई हो
अमिता

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