कविता प्रेमियो,
हिन्द-युग्म कोशिश करता रहा है कि हिन्दी कविता के हस्ताक्षरों से आपको मिलवाया जाय। इसलिए समय-समय पर हम हिन्दी कविता में उदाहरण बन चुके कवियों को आमंत्रित करते रहते हैं। अब तक इस रास्ते आप कुमार विश्वास, उदय प्रकाश और नाज़िम नक़वी से रुबरू हो चुके हैं। इस बार हम एक युवा कवि से आपका परिचय करवाने जा रहे हैं, जो कविता में तो ६-७ सालों से हाथ-पाँव मार रहे हैं लेकिन उसका प्रथम काव्य-संग्रह 'खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ' भारतीय ज्ञानपीठ से लगभग १५ दिन पहले ही आया है। ये हैं हरे प्रकाश उपाध्याय। ५ जनवरी १९८१ को भोजपुर बिहार के गाँव 'बैसाडीह' में जन्मे हरे प्रकाश ने जैसे-तैसे बी॰ए॰ की पढ़ाई पूरी की है। वर्तमान में एक मीडिया संस्थान में छोटी सी नौकरी कर रहे हैं और साहिबाबाद (ग़ाजियाबाद, उ॰प्र॰) में निवास रहे हैं। 'अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार' से सम्मानित हैं। इस संग्रह के आने से पहले भी बहुत सी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। हिन्द-युग्म पर अतिथि कवि की कविताओं के प्रकाशन का उद्देश्य यही होता है कि अच्छा साहित्य इंटरनेटीय पाठकों तक पहुँचे, साथ ही साथ नव रचनाकारों को लिखने की प्रेरणा व ऊर्जा मिले।
'खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ' संग्रह में कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की ५३ कविताएँ संकलित हैं। इस संग्रह पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ आलोचक डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं-
हरे प्रकाश उपाध्याय हिन्दी की नयी पीढ़ी के संवेदनशील एवं सजग कवि हैं। कविताएँ स्वगत या एकालाप शैली में नहीं हैं। एकालाप या स्वगत शैली में ही कवि सम्प्रेषणीयता का तिरस्कार कर सकता है, इस गुमान में कि वह गहरी बात कर रहा है। गहरी बात कहने वाले शमशेर कहते थे- बात बोलेगी। लेकिन अनेक कवियों की बात बोलती नहीं। हरे प्रकाश गूँगी कविताओं के कवि नहीं हैं। वे पाठकों से सीधे और सीधी बात करते हैं। कविताओं के ज़रिए वे पाठकों को सवाल पूछने की प्रेरणा देते हैं। ऐसे सवाल जो ऐतेहासिक एवं सांस्कृतिक संवेदना को धार देते हैं। शैली और वाक्यों के इस सीधेपन में हमारे समय की युगीन जटिलताएँ लिपटी हैं और कविताएँ उन जटिल परतों को उद्घाटित करती हैं। फलतः इन कविताओं को पढ़ना अपने समय और अपने समय की समस्याओं को पढ़ना है।
विवादी समय में पूछना बहुत ज़रूरी है / यह पूछो कि पानी में अब कितना पानी है / आग में कितनी आग है, आकाश अब भी कितना आकाश है।
सवाल जितना सीधा है, उतनी सीधी भाषा है और उतना ही अनिवार्य है। शायद मानव इतिहास का अभूतपूर्व संकट, यानी पंच महाभूतात्मक संकट। इस सवाल के ज़रिए आप आज की उस मानवघाती अपसंस्कृति तह पहुँच जाएँगे जो मनुष्य से उसके पंचमहाभूतों तक को छीनकर सीधे बाज़ार में बेचने का उपक्रम कर रही है।
विश्वनाथ जिस कविता की बात कर रहे हैं, ज़रा वह कविता पढ़ते चलें-
पूछो तो
कब तक मौन रहोगे
विवादी समय में यह पूछना बहुत ज़रूरी है
पूछो तो अब
यह पूछो कि पानी में
अब कितना पानी है
आग में कितनी आग
आकाश अब भी कितना आकाश है
पूछो तो यह पूछो
कि कितना बह गया है भागीरथी में पानी
कितना बचा है हिमालय में
पूछो कि नदियों का सारा मीठा पानी
आखिर क्यों जा डूबता है
सागर के खारे पानी में
पूछो
मित्रो, मैं पूछता हूँ
आदमी का पानी
कब उड़ जाता है
मेरी-तुम्हारी आँखों में
बचा है अब कितना पानी
खोजो कहीं चुल्लू भर ही पानी
डूब मरने के लिए
पानी के इस अकाल समय में
नाविकों और मछलियों से कहो
वे अपने भीतर बचाए रखें पानी
उन्हें दुनिया को पार लगाना है
जंगलों से कहो वे आग बचाएँ
ठंडी पड़ती जा रही है यह दुनिया
ख़त्म हो रही है आत्मा की ऊष्मा
देर मत करो पूछो
आग दिल की बुझ रही है
धुआँ-धुआँ हो जाए छाती इससे पहले
मित्रो, ठंड से जमते इस बर्फ़ीले समय में
आग पर सवाल पूछो
माचिस तीली की टकराहट की भाषा में
तय कर लो
आग कहाँ और कितनी ज़रूरी है
क्या जलना चाहिए आग में
क्या बचना चाहिए आग से
पूछो आकाश से तो
क्यों भागता जाता है ऊपर
हमसे क्यों छिनी जा रही है क़द की ऊँचाई
हाथ बढ़ाओ और
आकाश से सवाल पूछो
कि हमसे भागकर कहाँ जाओगे
तुम हमारे क़द पर कब तक ओले गिराओगे
मित्रो, उससे इतना ज़रूर पूछो कि
हमारे हिस्से की धूप
हमारे हिस्से की बिजली
हमारे हिस्से का पानी
हमारे हिस्से की चाँदनी का
जो मार लेते हो रोज़ थोड़ा-थोड़ा हिस्सा
उसे कब वापस करोगे
मित्रो, यह ज़िन्दगी है
आग पानी आकाशा
बार-बार पूछो इससे
हमेशा बचाकर रखो एक सवाल
पूछने की हिम्मत और विश्वास
डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी आगे कहते हैं-
हरे प्रकाश उपाध्याय ज़मीनी हक़ीक़त के कवि है, जिस ज़मीन पर उनकी संवेदना उगी है वह मूलतः उनके गाँव-जवार की है। कविताओं के पात्र अधिकांश गाँव के- विशेषतः नारियाँ और उनमें लड़कियाँ और वृद्धाएँ हैं। उनका वर्णन, विवरण और यत्किंचित चित्रण कथात्मक है। आज की अच्छी कविता में जो कथात्मकता आ गयी है उसका उपयोग-प्रयोग कवित्व को समृद्ध करता है।
फूल
तेतरी ने फूल गढ़ा है
अपने घर के बाहर
अपनी मिट्टी की दीवार पर
फूल बहुत सुंदर है
बहुत सच्चा लगता है
गली से आते-जाते लोगों को
वह बहुत अच्छा लगता है
पर कैसी भी हवा चले
तेतरी के बिन दरवाजे घर में
फूल की सुगन्ध कोई, कभी नहीं आती
घर के भीतर तो
कालिख भरा धुआँ फैला रहता है
जो तेतरी की आँखों में पानी
भरता रहता है
यह कैसा मज़ाक़ है
कि तेतरी के हाथ से
बने फूल
हँसते हैं
और तेतरी के हाथ
हँसी को तरसते हैं !
इस युवा कवि का भाव बोध व्यापक है। वह एकाग्र'' या एकान्तिक नहीं। शब्द शब्द मात्र ध्वनि मात्र नहीं हैं; वे रक्त, मज्जा, अस्थि के रूप हैं। कविता पढ़ना काग़ज़ से निकलकर शब्दों के सेतु पारकर उस समाज में पहुँच जाना है जहाँ सब कुछ तहस-नहस हो रहा है। फिर भी जहाँ गाँव की औरतें दिन का इंतज़ार कर रही हैं। ज़ाहिर है कि यह दिन सामान्य नहीं, हमारे समय के घटना-विहीन (आन्दोलन विहीन) अन्धकार को दूर करके मानवीय भविष्य का दिन है।
दिन होगा
दिन होगा तो
औरतें चौखट लाँघ
चली जाएँगी नदी तक
और अँचरा में बाँध कर लाएँगी
पानी की धार
रात चाहे जितनी हो गहरी
औरतें बड़ी बेकली से कर रही हैं
दिन का इंतज़ार
दिन होगा
तो करेंगी वे दुनिया की
नये तरीक़े से झाड़-बुहार
रात की धूल और ओस
झटक आएँगी बस्ती के बाहर
औरतें ठीक-ठीक नहीं जानतीं
दिन कैसे होगा
कैसे बीतेगी यह रात
वे महज़ इतना जानती हैं
कि पूरब में जब खिलेगा लाल फूल
और सन्नाटा टूटेगा
मुर्गा बोलेगा तो बिहान होगा
कहते हैं वैज्ञानिक
जब यह धरती
घूम जाएगी थोड़ी-सी अक्ष पर
तो दिन होगा
कुछ होगा तो दिन होगा
रात से ऊबे हुए बच्चे
पाँव चला रहे हैं
और इसे लगकर धरती हिल रही है
लगता है
अब दिन होगा!
आप देखेंगे कि ऐतिहासिक परिवर्तन (क्रान्ति) ठेठ ग्रामीण संस्कृति के रीति-रिवाज़ रचना-सन्दर्भ में आश्वस्त करती है। यथार्थ हमारी धरती का है तो समाधान और बदलाव भी हमारे ही ऐतिहासिक सांस्कृतिक सन्दर्भ में होगा, उसकी भाषा और काव्य-यात्रा भी हमारी होगी- 'खिलाड़ी दोस्त'तो हमारे दौर की उपज है।
मुझे हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ अच्छी लगती हैं। अगर ये ख़ुद उस विज्ञापनी अपसंस्कृति के शिकार नहीं हुए, जिसका ये कविताएँ विरोध करती हैं तो आगे चलकर बेहतर कविताएँ रचेंगे।
--डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी
घड़ी
दुनिया की सभी घड़ियाँ
एक-सा समय नहीं देतीं
हमारे देश में अभी कुछ बजता है
तो इंग्लैंड में कुछ
फ्रांस में कुछ
अमेरिका में कुछ....
यहाँ तक कि
एक देश के भीतर भी सभी
घड़ियों में एक-सा समय नहीं बजता
समलन हुक्मरान की कलाई पर कुछ बजता है
मज़दूर की कलाई पर कुछ
अफ़सरान की कलाई पर कुछ
मन्दिर की घड़ी में जो बजता है
ठीक-ठीक वही चर्च की घड़ी में नहीं बजता है
मस्जिद की घड़ी को मौलवी
अपने हिसाब से चलाता है
और सबसे अलग समय देती है
संसद की घड़ी
कुछ लोग अपनी घड़ी
अपनी जेब में रखते हैं
और अपना समय
अपने हिसाब से देखते हैं
पूछने पर अपनी मर्ज़ी से
कभी ग़लत
कभी सही बताते हैं।
मोहनदास करमचन्द गाँधी
अपनी घड़ी अपनी कमर में कसकर
उनके लिए लड़ते थे
जिनके पास घड़ी नहीं थी
और जब मारे गये वे
उनकी घड़ी बिगाड़ दी
उनके चेलों-चपाटों ने
कहना कठिन है अब उनकी घड़ी कहाँ है
और कौन-कौन पुर्ज़े ठीक हैं उसके
हमारी घड़ी
अकसर बिगड़ी रहती है
हमारा समय गड़बड़ चलता है
हमारे धनवान पड़ोसी के घर में
जो घड़ी है
उसे हमारी-आपकी क्या पड़ी है!
इस बार आपने मेरे और विश्वनाथ त्रिपाठी की पसंद की कविताएँ पढ़ी। पढ़िए मेरी पसंद की कविता।
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
SHAILESH JI KHUB RAHI YE PARICHAY NAAMA.... UPADHYAY JI KE KAVITA KE KYA KAHNE... ISI SE PATA CHALTA HAI KE JAB LEKHAK KI PAHALI KAVITA HI GHYANPITH DWARA PRAKAASHIT HO... DHERO BADHAAEE...
ARSH
हरे प्रकाश उपाध्याय को शतशः बधाई. उनकी कविता में कथ्य तथा तथ्य के मध्य सीधा संवाद है. सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है. उनकी कविता में शब्द स्वतः समाहित होते प्रतीत होते हैं. इससे उपजा लयात्मक प्रवाह पाठक और कथ्य के बीच सेतु का कार्य करता है. कविताओं के विषय दैनंदिन जिन्दगी से हैं, यह कवि और कविता दोनों को सर्व साधारण से जोड़कर व्यापक क्षितिज तक पहुंचाता है.
रचनाएं सच्चाई के करीब से गुजरती लगती हैं |
बधाई |
अवनीश तिवारी
सभी कवितायें एक से बढ़कर एक,,
नया सोचने को मजबूर करती,,,,
बहुत बधाई,,,,
कब तक मौन रहोगे
विवादी समय में यह पूछना बहुत ज़रूरी है
पूछो तो अब
यह पूछो कि पानी में
अब कितना पानी है
आग में कितनी आग
आकाश अब भी कितना आकाश है
कविता की शुरुआत ही जबर्दस्त!!!
आपको पढ़कर अच्छा लगा।
बहुत ही सटीक और यथार्थ बाते कितने आराम से कह दी है हरे जी ने | वस्तुतः रचनाएँ एक से एक बढकर है और लगता है मिटटी में से ज्यों कुंदन निकला है |त्रिपाठी जी आपने भी क्या खूब समीक्षा की है |बधाई हरे जी, बधाई त्रिपाठी जी |
janha na pahuche ravi vanha pahunche kavi...... samandar men jahaj par baithkar gahrai ki bat karna asan hai aur gahraiyon men doobkar moti lana alag bat hai ek sachche kavi ko compliment dena mere bas ki bat nahi hai ...aapke pas bhavnaaon ka gahra sagar hai jab bhi swati ki bund ki tarah koi anmol khayal aakar man ki seep men ruke use shabdon ka moti banakar panno par utar den .
हरे भाई, तुम्हारी कविता की घड़ी अपने समय को बिलकुल सही सही दर्ज कर रही है. बधाई.
हरेप्रकाश की कवितायें मुझे भी पसंद हैं. हिंद-युग्म को इस बेहतर प्रतुतिकरण के लिए बधाई दी जाना चाहिए.
Teek hain kavitayen.
www.samvadi.blogspot.com
बधाई.
गज़ब लिखते हैं हरे भाई. उनको उमर हम सबों की लग जाए.
यशवंत
बधाई हरे प्रकाश जी…
हरे प्रकाश जी को बधाई !!
samkaleen kavita me hareprakash ek sasakat hastakshar hai esme koee sandeh nahi
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