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Monday, March 30, 2009

भाव के घाव!


असह्य दुर्गन्ध...
लिजलिजा-सा...
धूप को तरसता
ढांपने की कोशिश में
कई बार चिपक जाता है
तन के कपड़ों से
फिर खींचने पर
सिहरन उठती है...
टीस होती है
क्या करूं?
ये मेरे ही तन पर
लगा हुआ घाव है!

निर्विकार...थकी...
पथराई-सी आंखें
प्रस्तोता हैं...
स्पंदन ऐसा कि
निरंतर किसी ऊंचाई से
गिर रहा हूं
और हर उस क्षण में
हृदय में
नाद हो रहा है
कुछ घुल रहा है
कुछ टूट रहा है
क्या कहूं?
ये मेरे मन में
आनेवाले भाव हैं!

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10 कविताप्रेमियों का कहना है :

Harihar का कहना है कि -

वाह अभिषेक जी ! कमाल के भाव हैं :

असह्य दुर्गन्ध...
लिजलिजा-सा...
धूप को तरसता
ढांपने की कोशिश में
कई बार चिपक जाता है
तन के कपड़ों से
फिर खींचने पर
सिहरन उठती है...

डॉ .अनुराग का कहना है कि -

अद्भुत !

आलोक साहिल का कहना है कि -

bahut hi sundar kavita abhishek bhai......
ALOK SINGH "SAHIL"

प्रवीण पराशर का कहना है कि -

निर्विकार...थकी...
पथराई-सी आंखें
प्रस्तोता हैं...
स्पंदन ऐसा कि
निरंतर किसी ऊंचाई से
गिर रहा हूं
और हर उस क्षण में
हृदय में
नाद हो रहा है


संदर स्पंदन गति को तेज करने वाले भाव हैं .. thanku सर जी

शोभा का कहना है कि -

संवेदन शील कविता।

Yogesh Verma Swapn का कहना है कि -

sunder rachna ke liye badhaai.

Divya Narmada का कहना है कि -

भयानक या वीभत्स रस के भावः-अनुभव-संचारी भाव में सुन्दर जैसा शब्द तो कहीं नहीं है अस्तु...मेरी बल बुद्धि कविता समझती ही नहीं शायद...

Riya Sharma का कहना है कि -

शुरूआती कुछ पंक्तियां पढ्ते ही सच में सिहरन होती है..
बहुत जीवन्त , संवेदनशील ,

बधाई !!

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

पढ़ रहा था तो मन में ख्याल आ रहा रहा था कि क्या-क्या सोच डालते हो तुम अभिषेक भाई!!!

mona का कहना है कि -

different kind of creation

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