असह्य दुर्गन्ध...
लिजलिजा-सा...
धूप को तरसता
ढांपने की कोशिश में
कई बार चिपक जाता है
तन के कपड़ों से
फिर खींचने पर
सिहरन उठती है...
टीस होती है
क्या करूं?
ये मेरे ही तन पर
लगा हुआ घाव है!
निर्विकार...थकी...
पथराई-सी आंखें
प्रस्तोता हैं...
स्पंदन ऐसा कि
निरंतर किसी ऊंचाई से
गिर रहा हूं
और हर उस क्षण में
हृदय में
नाद हो रहा है
कुछ घुल रहा है
कुछ टूट रहा है
क्या कहूं?
ये मेरे मन में
आनेवाले भाव हैं!
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह अभिषेक जी ! कमाल के भाव हैं :
असह्य दुर्गन्ध...
लिजलिजा-सा...
धूप को तरसता
ढांपने की कोशिश में
कई बार चिपक जाता है
तन के कपड़ों से
फिर खींचने पर
सिहरन उठती है...
अद्भुत !
bahut hi sundar kavita abhishek bhai......
ALOK SINGH "SAHIL"
निर्विकार...थकी...
पथराई-सी आंखें
प्रस्तोता हैं...
स्पंदन ऐसा कि
निरंतर किसी ऊंचाई से
गिर रहा हूं
और हर उस क्षण में
हृदय में
नाद हो रहा है
संदर स्पंदन गति को तेज करने वाले भाव हैं .. thanku सर जी
संवेदन शील कविता।
sunder rachna ke liye badhaai.
भयानक या वीभत्स रस के भावः-अनुभव-संचारी भाव में सुन्दर जैसा शब्द तो कहीं नहीं है अस्तु...मेरी बल बुद्धि कविता समझती ही नहीं शायद...
शुरूआती कुछ पंक्तियां पढ्ते ही सच में सिहरन होती है..
बहुत जीवन्त , संवेदनशील ,
बधाई !!
पढ़ रहा था तो मन में ख्याल आ रहा रहा था कि क्या-क्या सोच डालते हो तुम अभिषेक भाई!!!
different kind of creation
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