नव शक संवत- लें सखे! दोहा का उपहार.
आदि शक्ति के रूप नौ, नवधा भक्ति अपार.
नव गृह शुभ हों आपको, करते रहिये यत्न.
दोहा-पारंगत बनें, हिंद युग्म-नव-रत्न.
कथ्य, भाव, रस, बिम्ब, लय, अलंकार, लालित्य.
गति-यति नौ गुण नौलखा, दोहा हो आदित्य.
दोहा की सीमा नहीं, दोहाकार ससीम. .
स्वागत शन्नो-मृदुल जी!, पायें कीर्ति असीम.
पाठ-गोष्ठियाँ हुईं नौ, बिखरे हैं नौ रंग.
नव रंगों की छटा लख, छंद जगत है दंग.
दोहा रसिको,
नव दुर्गा शक्ति आराधना पर्व पर दोहा गाथा सनातन के नव पाठ तथा नव गोष्ठियों के सोपान से अगले सोपान की और इस दसवें पाठ की यात्रा का श्री गणेश होना शुभ संकेत है.
इस सारस्वत अनुष्ठान में सम्मिलित शक्ति स्वरूपा मृदुल कीर्ति जी, शन्नो जी, पूजा जी, अजित जी, नीलम जी, सीमा जी, शोभा जी, रंजना जी, सुनीता जी, रश्मि जी, संगीता जी आप सभी का सादर अभिवादन...
दशम पाठ का विशेष उपहार दक्ष दोहाकार मृदुल कीर्ति जी, ( जिनका युग्म परिवार पोडकास्ट कवि सम्मलेन संचालिका के नाते प्रशंसक है ) के दोहे हैं. आइये! इन का रसास्वादन करने के साथ इनके वैशिष्ट्य को परखें.
कामधेनु दोहावली, दुहवत ज्ञानी वृन्द.
सरल, सरस, रुचिकर,गहन, कविवर को वर छंद.
तुलसी ने श्री राम को, नाम रूप रस गान.
दोहावलि के छंद में अद्भुत कियो बखान.
दोहे की महिमा महत, महत रूप लावण्य.
अणु अणियाम स्वरुप में, महि महिमामय छंद.
गागर में सागर भरो, ऐसो जाको रूप.
मोती जैसे सीप में, अंतस गूढ़ अनूप.
रामायण में जड़ित हैं, मणि सम दोहा छंद.
चौपाई के बीच में, चमकत हीरक वृन्द.
दोहा के बड़ भाग हैं, कहत राम गुण धाम,
वन्दनीय वर छंद में, प्रणवहूँ बहुल प्रणाम.
इन दोहों में शब्दों के चयन पर ध्यान दें- उनके उच्चारण में ध्वनि का आरोह-अवरोह या उतर-चढाव सलिल-तरंगों की तरह होने से गति (भाषिक प्रवाह) तथा यति (ठहराव) ने इन्हें पढने के साथ गायन करने योग्य बना दिया है. शब्दों का लालित्य मन मोहक है. दोहा का वैशिष्ट्य वर्णित करते हुए वे विशिष्ट रूप, लावण्य, गागर में सागर, सीप में मोती, सरल, सरस, रुचिकर,गहन, अणु अणियाम स्वरुप का संकेत करती हैं. आप सहमत होंगे कि मृदुल जी ने दोहा को कवियों के लिए वरदान तथा कामधेनु की तरह हर अपेक्षा पूरी करने में समर्थ कहकर दोहा के साथ न्याय ही किया है. दुहवत, कियो, भरो, ऐसो, जाको, चमकत, कहत, प्रणवहूँ आदि शब्द रूपों का प्रयोग बताता है कि ये दोहे खडी हिंदी में नहीं अवधी में कहे गए हैं. ये शब्द अशुद्ध नहीं है, अवधी में क्रिया के इन रूपों का प्रयोग पूरी तरह सही है किन्तु यही रूप खडी हिन्दी में करें तो वह अशुद्धि होगी. मृदुल जी ने दोहा को राम चरित मानस की चौपाइयों में जड़े हीरे की तरह कहा है. यह उपमा कितनी सटीक है. इन दोहों की अन्य विशेषताएँ इन्हें बार-बार पढ़ने पर सामने आयेंगी.
दिल्ली निवासी डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन' के दोहा संग्रह 'होते ही अंतर्मुखी' से उद्धृत निम्न पठनीय-मननीय दोहों के साथ कुछ समय बितायें तो आपकी कई कही-अनकही समयस्याओं का निदान हो जायेगा. ये दोहे खडी हिंदी में हैं
दोहे में अनिवार्य हैं, कथ्य-शिल्प-लय-छंद.
ज्यों गुलाब में रूप-रस. गंध और मकरंद.
चार चाँद देगा लगा दोहों में लालित्य.
जिसमें कुछ लालित्य है, अमर वही साहित्य.
दोहे में मात्रा गिरे, यह भारी अपराध.
यति-गति हो अपनी जगह, दोहा हो निर्बाध.
चलते-चलते ही मिला, मुझको यह गन्तव्य.
गन्ता भी हूँ मैं स्वयं, और स्वयं गंतव्य.
टूट रहे हैं आजकल, उसके बने मकान.
खंडित-खंडित हो गए, क्या दिल क्या इन्सान.
जितनी छोटी बात हो, उतना अधिक प्रभाव.
ले जाती उस पार है, ज्यों छोटी सी नाव.
कैसा है गणतंत्र यह, कैसा है संयोग?
हंस यहाँ भूखा मरे, काग उड़ावे भोग.
बहरों के इस गाँव में क्या चुप्पी, क्या शोर.
ज्यों अंधों के गाँव में, क्या रजनी, क्या भोर.
जीवन भर पड़ता रहा, वह औरों के माथ.
उसकी बेटी के मगर, हुए न पीले हाथ.
तेरे अलग विचार हैं, मेरे अलग विचार.
तू फैलता जा घृणा, मैं बाँटूंगा प्यार.
शुद्ध कहाँ परिणाम हो, साधन अगर अशुद्ध.
साधन रखते शुद्ध जो, जानो उन्हें प्रबुद्ध.
सावित्री शर्मा जी के दोहा संकलन पांच पोर की बाँसुरी से बृज भाषा के कुछ दोहों का रसपान करें. इन दोहों की भाषा उक्त दोनों से कुछ भिन्न है. ऐसी शब्दावली ब्रज भाषा के अनुकूल है पर खडी हिन्दी में उपयोग करने पर गलत मानी जायेगी.
शब्द ब्रम्ह जाना जबहिं, कियो उच्चरित ॐ.
होने लगे विकार सब, ज्ञान यज्ञ में होम.
मुख कारो विधिना कियो, सुन्दर रूप ललाम.
जनु घुंघुची कीन्हेंसि कबहुं, अति अनुचित कछु काम.
तन-मन बासंती भयो, साँस-साँस मधु गंध.
रोम-रोम तृस्ना जगी, तज्यो तृप्ति अनुबंध.
कितनउ बाँधो मन मिरिग, फिरि-फिरि भरे कुलांच.
सहज नहीं है बरजना, संगी-साथी पॉँच.
चित चंचल अति बावरो, धरे न नेकहूँ धीर.
छीन जमुना लहरें लखें, छीन मरुथल की पीर.
मन हिरना भरमत फिरत, थिर न रहै छिन एक.
अनुचित-उचित बिसारि कै, राखै अंपनी टेक.
तिय-बेंदी झिलमिल दिपै, दर्पण बारहि-बार.
दरकि हिया कहूँजाय नहि, करि कामिनि श्रृंगार.
होत दिनै-दिन दूबरो, देखि पूनमी चंद.
माथ बड़ेरी बींदिया, परै न नेकहूँ मंद.
झलमल-झलमल व्है रही, मुंदरी अंगुरी माहि.
नेह-नगीने नयन बिच, वेसेहि तिरि-तिरि जात.
अब देखिये बांदा के अल्पज्ञात कवि राम नारायण उर्फ़ नारायण दास 'बौखल' (जिन्होंने ५००० से अधिक बुन्देली दोहे लिखे हैं) की कृतियों नारायण अंजलि भाग १-२ से कुछ बुन्देली दोहे--
गुरु ने दीन्ही चीनगी, शिष्य लेहु सुलगाय.
चित चकमक लागे नहीं, याते बुझ-बुझ जाय.
वाणी वीणा विश्व वदि, विजय वाद विख्यात.
लोक-लोक गाथा गढी, ज्योति नवल निर्वात.
आध्यात्मिक तौली तुला, रस-रंग-छवि-गुण एक.
चतुर कवी कोविद कही, सुरसति रूप अनेक.
अलि गुलाब गंधी बिपिन,उडी स्मृति गति पौन.
रूप-रंग-परिचय-परस, उमगि पियत रज मौन.
पंच व्यसन प्राणी सनो, तरुण वृद्ध अरु बाल.
'बौखल' घिसि गोलक तनु, तृष्णा तानति जाल.
बैरिन कांजी योग सो, दूध दही हो जाय.
माखन आवै आन्गुरी, निर्भय माट मथाय.
बहु भाषा आशा अमित, समुझि मूढ़ मन सार.
मरत काह जग साडिया, चढिं-चढिं ऊंच कगार.
चातक वाणी पीव की, निर्गुण-सगुण समान.
बरसे-अन्बरसे जलद, बिना बोध अनुमान.
मरै न मन संगै रहै, मलकिन बारह बाट.
भवनै राखि मसोसि नित, खोलत नहीं कपाट.
दोहा लेखन करते समय यह ध्यान रखें कि लय (मात्रा) के साथ-साथ शब्द चयन और विन्यास भाषा की पृवृत्ति के अनुकूल हो. दोहा की मारक शक्ति का प्रमाण यह है कि उसे ललित काव्य के साथ-साथ पत्राचार, टिप्पणी, समीक्षा आदि में भी प्रयोग किया जा सकता है. उक्त दोहों के दोहाकारों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए इस अनुष्ठान के प्रति मृदुल जी की प्रतिक्रिया, उसके उत्तर में दोहा पत्र प्रस्तुत है. दोहा का टिप्पणी रूप में प्रयोग आप युग्म में प्रकाशित रचनाओं के नीचे देख ही रहे हैं.
Saumya Salil ji,
You are a great scholar, accept my Naman. Your doha classes are wonderful and amazing too. So many lessons I am grasping.
Kabeer , Meera, Soor, Raskhan, Tulsee never been to vyakaran process but they are so perfect as ever been. So real poems come from the realm of Reality and automatically they are perfect because HE is perfect.
आत्मीय! हूँ धन्य मैं, पा स्नेहिल उपहार.
शक्ति-साधना पर्व पर, मुदित ह्रदय-आभार.
दोहा गाथा में इन्हें, पढ़ सीखेंगे छात्र.
दोहा का वैशिष्ट्य क्या, नहीं दोपदी मात्र.
दोहा-चौपाई ललित, छंद रचे अभिराम.
जिव्हा पर हैं शारदा, शत-शत नम्र प्रणाम.
दोहा कक्षा को दिए, दोहा-रत्न अमोल.
आभारी हम आपके, पा अमृतमय बोल.
सचमुच शिक्षित नहीं थे, मीरा सूर कबीर.
तुलसी और रहीम थे, शिक्षित गुरु गंभीर.
दोहा रचता कवि नहीं, रचवाता परमात्म.
शब्द-ब्रम्ह ही प्रतिष्ठित, होता बनकर आत्म.
अवनीश जी ! आपने स्वयं को कमल के स्थान पर रखकर दोहा कहा. है लेकिन पहेली तो वह दोहा बताने की थी जो कमल ने कहा था. इस कसौटी पर पूजा जी खरी उतारी हैं उन्हें बधाई और आपको शाबाशी कोशिश करने के लिए. अब चर्चा इस से जुड़े दोहों पर-
है सर रखा अपने भी,
२ ११ १२ ११२ २ = १३
कुटुंब का भार |
121 २२ २१ = ११
केवल साधु सेवा से ,
२११ 2 १ २२ २ = १३
नहीं चले संसार ||
१२ १२ २२१ = ११
आप सराहना के पत्र हैं चूंकि आप दोहा लेखन एवं मात्र गिनने दोनों दिशा में प्रगति कर रहे हैं. उक्त दोहे की दूसरी पंक्ति में शब्दों के आधार पर मात्राएँ ९ होती है पर गिनती ११ की गए है. शायद एक शब्द टंकित होने से रह गया. पहली पंक्ति को 'अपने भी सिर है रखा' करे पर लय सहज होगी तथा मात्राएँ वही रहेंगी.
बूझ पहेली आज की , दोहा लाई खोज ,
21 122 21 2 22 22 21
कमाल वाचे पिता से , अपने मन की मौज .
121 22 12 2 112 11 2 21
"चलती चक्की देखकर दिया कमाल ठठाय
जो कीली से लग गया वो साबुत रह जाय "
कबीर ने इस पर कहा कि यूँ तो वह कहने को कह गया लेकिन कितनी बड़ी बात कह गया उसे खुद नहीं पता।"
आचार्य जी,
वैसे तो साधारण भाषा में यह दोहा कहा गया है, क्या आप इसका गूढ़ अर्थ भी समझायेंगे?
आपने सभी दोहों को परखा उसके लिए धन्यवाद. बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है, अच्छा लग रहा है
पूजा जी! आपने कमाल के दोहे को खोजकर कमाल कर दिया. बधाई, उक्त दोहे के तीसरे चरण को 'कहे कमाल कबीर से' करें तो लय सहज रहेगी. दोहा तथा मात्राएँ सही हैं. आपने दोहा लिखा है-
कबीर ने कहा था -
बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल.
हरि का सुमिरन छाँड़ि कै, भरि लै आया माल.
चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय.
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय.
कबीर जुलाहा थे. वे जितना सूत कातते, कपडा बुनते उसे बेचकर परिवार पलते लेकिन माल बिकने पर मिले पैसे में से साधु सेवा करने दो बाद बचे पैसों से सामान घर लाते. वह कम होने से गृहस्थी चलाने में माँ लोई को परेशान होते देखकर कमाल को कष्ट होता. लोई के मना करने पर भी कबीर 'यह दुनिया माया की गठरी' मान कर 'आया खाली हाथ तू, जाना खाली हाथ' के पथ पर चलते रहे. 'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया' कहने से बच्चों की थाली में रोटी तो नहीं आती. अंतत लोई ने कमाल को कपडा लेकर बाज़ार भेजा. कमाल ने कबीर के कहने के बाद भी साधूओं को दान नहीं दिया तथा पूरे पैसों से घर का सामान खरीद लिया. तब कमाल की भर्त्सना करते हुए कबीर ने उक्त दोहा कहा. उत्तर में कमाल ने कहा-
चलती चक्की देखकर , दिया कमाल ठिठोंय.
जो कीली से लग रहा, मार सका नहीं कोय
कबीर-कमाल के इन दोहों के दो अर्थ हैं. एक सामान्य- कबीर ने कहा कि चलती हुई चक्की को देखकर उन्हें रोना आता है कि दो पाटों के घूमते रहने से उनके बीच सब दाने पिस गए कोई साबित नहीं बच. कमाल ने उत्तर दिया कि चलती हुई चक्की देखकर उसे हँसी आ रही है क्योंकि जो दाना बीच की कीली से चिपक गया उसे पाट चलते रहने पर भी कोई हानि नहीं पहुँच सके. वे दाने बच गए.
इन दोहों का गूढ़ अर्थ समझने योग्य है- कबीर ने दूसरे दोहे में कहा ' इस संसार रूपी चक्की को चलता देखकर कबीर रो रहा है क्योंकि स्वार्थ और परमार्थ के दो पाटों के बीच में सब जीव नष्ट हो रहे हैं. कोई भी बच नहीं पा रहा.
कमाल ने उत्तर में कहा- ससार रूपी चक्की को चलता देखकर कमाल हँस रहा है क्योंकि जो जीव ब्रम्ह रूपी कीली से से लग गया उसका सांसारिक भव-बाधा कुछ नहीं बिगाड़ सकी. उसकी आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर ब्रम्ह में लीन हो गयी.
इस सत्र के अंत में दोहा के सूफियाना मिजाज़ की झलक देखें. खुसरो (संवत १३१२-१३८२) से पहले दोहा को सूफियाना रंग में रंगा बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५) ने. गुरु ग्रन्थ साहिब में राहासा और राग सूही के ४ पदों और ३० सलोकों में बाबा की रचनायें हैं किन्तु इनके उनके पश्चातवर्ती शेख अब्र्हीम फरीद (१४५०-१५५४) की रचनाएँ भी मिल गयी हैं. आध्यात्म की पराकाष्ठा पर पहुँचे बाबा का निम्न दोहा उनके समर्पण की बानगी है. इस दोहे में बाबा कौए से कहते हैं कि वह नश्व र्शरीर से खोज-खोज कर मांस खाले पर दो नेत्रों को छोड़ दे क्योंकि उन नेत्रों से ही प्रियतम (परमेश्वर) झलक देख पाने की आशा है.
कागा करंग ढढोलिया, सगल खाइया मासु.
ए दुई नैना मत छुहऊ, पिऊ देखन कि आसु.
पाठांतर:
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मास.
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस.
इस दोहे के भी सामान्य और गूढ़ आध्यात्मिक दो अर्थ हैं जिन्हें आप समझ ही लेंगे. कठिनाई होने पर गोष्ठी में चर्चा होगी.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
22 कविताप्रेमियों का कहना है :
जीवन भर पड़ता रहा, वह औरों के माथ.
उसकी बेटी के मगर, हुए न पीले हाथ.
तेरे अलग विचार हैं, मेरे अलग विचार.
तू फैलता जा घृणा, मैं बाँटूंगा प्यार.
behatareen aacharya ji ,
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मास.
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस.
bahut dinon ke baad is bismrit dohe ko yaad dilwaane ka bahut bahut shukriya .
hum bhi dohoon se parhej karte karte aa hi gaye aap ki class me .
achchi jaankaari
avneesh ji ka yah doha bhi dil ko bahut bhaaya .
दोहा रचता कवि नहीं, रचवाता परमात्म.
शब्द-ब्रम्ह ही प्रतिष्ठित, होता बनकर आत्म
So real poems come from the realm of Reality and automatically they are perfect because HE is perfect.
by avneesh
sabhi kaviyon v paathkon ke liye bhasa chaahe jo ho ,matlab to ek hi hai .
आचार्यजी,
दोहों के भूले-बिसरे संसार को हिंद-युग्म के परिवार से अवगत कराने का धन्यबाद. मैं अपना आभार प्रकट करती हूँ. लिख नहीं पाती ऐसे दोहे पर दोहा-रस पान तो कर सकती हूँ. दोहे कितने प्रभावशाली होते हैं, कम शब्दों में ही कितना कुछ कह देतें हैं. बचपन में स्कूल में कबीर के कुछ दोहे पढ़े थे किताबों में. और घर पर दादा-दादी और माता-पिता सीख और उपदेश देने के बिचार से अक्सर ही दोहों में कुछ न कुछ कह जाते थे. पर 'दोहों की तो कोई सीमा ही नहीं' इस बार के पाठ में सभी दोहे इतने सुंदर हैं कि क्या कहूं.
नीलम जी,
जाँचिये दुबारा | जो आपने कहा है वह मेरे वचन नहीं है |
मृदुल जी के हैं |
अवनीश तिवारी
इस माह का पोडकास्ट कवि सम्मेलन में आपके बारे में जानकारी प्राप्त हुई। मन गदगद हो गया। एक दोहा प्रस्तुत है मैंने कुलज्य शब्द का प्रयोग किया है वैसे शब्द कुलज है, क्या यह प्रयोग सही है?
सलिल नमन है आपको
111 111 2 2 12 = 13
आज हुए हम धन्य
21 12 11 21 = 11
बिरल रक्त है आपका
111 21 2 212 = 13
महादेवी कुलज्य।
1222 121 = 11
प्रणाम आचार्य,
पिछली बार जो शन्नो जी ने इतनी मेहनत की थी,,,क्या उसका परिणाम अगले अंक में जान ने को मिलेगा,,??
आज के दोहे भी बहुत ही अच्छे लगे,,,,
गुरु जी प्रणाम,
आपके दोहे जैसी भाषा और लहजा कितना भी कोशिश करूँ पर सीख नहीं पा रही हूँ. लेकिन बहुत शौक लगता है लिखने का. मेरा अपना अलग स्टाइल है. फिर भी रोक नहीं पा रहीं हूँ भेजने से. क्षमा चाहती हूँ इसके लिए:
'आप 'सलिल' ज्ञान-सागर, हैं हम सब मति-मूढ़
छुएँ पांव सब आपके, लेन को शिक्षा गूढ़.'
'चाह कर भी लिख ना सकी, मैं दोहा या छंद
कोशिश कर हारी मगर, मैं बुद्धि की मंद.'
'ना मात्रा, टंकड़ ठीक, ना थे सही विराम
बिन दोहा के ज्ञान के, मन को ना आराम.'
'लिखने दोहे मैं चली, बिन दोहे को ध्याय
तैराकी जानूं नहीं, गोते रही लगाय.'
'
मुझे तो लगता है के
अगले आचार्या आप ही होने वाले हैं शन्नो जी,,,,, इतनी मामूली सी कमी तो आप आचार्य की मदद से चुटकियों में दूर कर सकती हैं,,,,
वाकई में मुझे इतना अच्छा लग रहा है आपको यूं सरपट दोहे कहते देख कर,,,
मैं तो पाठ से ज्यादा दोहे आपके पढता हूँ,,,,,,और सीखता हूँ,,,,,जितना आचार्य से उस से कहीं ज्यादा आपसे,,,,,
आचार्य को एक बार फिर बधाई,,,,
मनु जी,
जानकर बहुत हर्ष हुआ और गुदगुदी हुई कि आपको मेरे यह 'फ्री-स्टाइल',(यह नामकरण मैंने ही किया है अपने लिखे दोहों का, क्यों कि समझ में नहीं आ रहा था कि मैं इन दोहों को क्या कहूँ), दोहे अच्छे लगे. असली प्रेरणा तो आचार्य जी से ही मिली है. वही हमारी आधार-शिला हैं. एक दिन ऐसे ही कक्षा में झाँका और मुझे भी चस्का लग गया दोहे लिखने का. बस डर लगा रहता है कि किसी दिन कोई कान खींच कर कक्षा से न निकाल दे मुझे, क्योंकि मेरे दोहों का style पहले पुराने type के दोहों से match नहीं करता है. शायद कभी काबिल बन ही न पाऊं उस तरह से लिखने की. फिर भी आपने मुझे हिम्मत बंधाई और तारीफ की, जिस के लिए मैं बहुत शुक्रगुजार हूँ.
सलिल नमन है आपको
111 111 2 2 12 = 13
आज हुए हम धन्य
21 12 11 21 = 11
बिरल रक्त है आपका
111 21 2 212 = 13
महादेवी कुलज्य।
1222 121 = 11
अजित जी!
धन्य के साथ अन्य, अनन्य जैसी तुक ठीक होगी. कुलज्य का साथ ऐसी तुक रखें जिसमें 'ज्य' हो. उक्त का चतुर्थ चरण कुछ परिवर्तन चाहता है. आप तेजी से सही दिशा में बढ़ रही हैं. बधाई.
"मिर्जा गालिब कह गये,कह कर गये कबीर ।
दो मिसरों में दर्द को , दो पंक्ति में पीर ।।"
(दोहा संग्रह -'सभी लाइनें व्यस्त' से)
सादर !
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