काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - लोकसभा चुनाव-लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव
अंक - पच्चीस
माह - अप्रैल २००९
३० अप्रैल २००९। आज हम सबसे बड़े लोकतंत्र के महोत्सव के तीसरे पड़ाव तक पहुँच गये हैं। ११ राज्यों के करोड़ों लोग लम्बी कतारों में खड़े होकर हमारे देश के भविष्य को चुन रहे हैं। और यहाँ हमारे कवि भी इसी चिन्तन में हैं कि किस तरह से हमारे देश को हर तरह से सम्पन्न बनाया जाये, एक क्रांति लाई जाये और हर कोई गर्व से कह सके "मेरा भारत महान"। जिस तरह हम नेताओं को उनका फ़र्ज याद दिलाते रहते हैं हम भी समझें कि वोट डालना हमारा अधिकार भी है और फ़र्ज़ भी। हमारे कवि "जूतों" के बारे में भी कह रहे हैं, राजनीति में घुस रहे बाहुबलियों की बातें भी कर रहे हैं। पिछले दिनों ही ’आवाज़’ के संचालक सजीव सारथी ने भी चुनावों के मद्देनजर अपनी बात रखी। आइये आज पढ़ते हैं हमारे कवियों को। मनाते हैं "लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव"।
आपको हमारा यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतायें।
*** प्रतिभागी ***
सत्यप्रसन्न | मंजू गुप्ता | मुकेश कुमार तिवारी | प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव विदग्ध | शन्नो अग्रवाल | मुहम्मद अहसन | विवेकरंजन श्रीवास्तव | रचना श्रीवास्तव | संगीता स्वरूप | मनु ’बेतखल्लुस’ | डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी | आलोक गौड़ । -डा नीरज जैन । -सुरिंदर रत्ती
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
जमी झील में कंकड़ी, फेंक रहे हैं लोग।
क्यों हिलोर उठती नहीं, लगा रहे अभियोग॥
रोटी ठंडी आग पे, सेंक रहे अख़बार।
चाकू रखकर जेब में, बेच रहे बस धार॥
जिनके कांधे है पड़ी, उनकी अपनी लाश।
वे भी दावा कर रहे, बदलेंगे इतिहास॥
करवट ली है वक्त ने, रही न अब वो बात।
जीत रहे खरगोश अब, कछुए खातॆ मात॥
गठबंधन तो हो गया, पर रिश्ते बेमेल।
चली छोड़कर पटरियां, सम्बंधों की रेल॥
कल तक जो हरते रहे, संविधान की चीर।
वो फिर लिखने जा रहे , हम सबकी तकदीर॥
कीचड़ में लिपटे हुए ,चेहरे सभी समान।
किससे हैं महफूज़ हम, सांसत में है जान॥
हर अंधे धृतराष्टृ को, सिंहासन की चाह।
होता हो फिर क्यों नहीं, चाहे देश तबाह॥
संदेहों की जेल में, आशाएं हैं कैद।
तिस पर दुर्दिन हैं खड़े. पहरे पर मुस्तैद॥
असमंजस में आज है, फिर से अपना देश।
चुन लें ख़ूनी सन्त या, फिर डाकू दरवेश॥
--सत्यप्रसन्न
देखो आता पाँच साल बाद चुनाव
होती नाव उम्मीदवार की आर पार
आया भारत के लोकतंत्र का महापर्व
हमें इस हथियार पर होता महागर्व
सत्ता और विरोधी निर्दलीय करें प्रचार
आपस में कटू वाणियों में करते प्रहार
जूता फेंक का देखो आया है व्यवहार
रैलियों में भीड़ जुटाने आते फिल्मी स्टार
भाषण में भूल जाते उम्मीदवार का नाम
पार्टियों का उड़ाते खूब माल
वोट नोट की खेलते चाल
करो मंजु सही मतदान
बने सर्वश्रेष्ठ सरकार
जिससे हो देश का विकास
दूर हो भ्रष्टाचार बेरोजगार
--मंजू गुप्ता
प्रजातंत्र के पर्व पर, होत शाही स्नान ।
सभी प्रजाति कूद पड़ी, खूब रचावै स्वांग ॥
लाऊडस्पीकर पर हो रहा, यश-कीर्ती गान ।
छुटभैये गाल बजाकर, पा रहे सम्मान ॥
लालू पीले हो गये, हुये मुलायम सख्त ।
दोऊ लारि टपिका रहे, देखि ताज-ओ-तख्त ॥
पासवान पांसे चले, अमर चलावै दांव ।
शरद हूँकारी भर रहै, होवत कांव-कांव ॥
माया ठहरी मायावी, खूब अलापै राग ।
छींके पर अटकी नज़रें, कब जागेगें भाग्य ॥
सांप सूंघ गया वाम को, हुआ तीसरा फैल ।
चौथे की तैयारियाँ, खूब चला यह खेल ॥
अड़वाणी रथ लै भटिकै, छेड़े अपनी तान ।
भैरों रूठे रह गये, वरूण चलावै बाण ॥
हाथ हैं तरसे साथ को, कितै ना दीखे ठौर ।
सत्ता सुख की चाह में, भटकै चारो ओर ॥
राहुल धूल फांक रहै, हुईं सोनिया त्रस्त ।
राजनीति भगवान बचाये, रहैं मुकेश मस्त ॥
ढोल बजै ताली बजी, गलियन होय पुकार ।
नेता देहरी लाँघ रहैं, होवे जय-जयकार ॥
खुद ही माला पहनकर, जोड़े दोनो हाथ ।
वोट माँगते फिर रहैं, जिनके सिर पर ताज ॥
साड़ी बँटी दारू बँटी, और कम्बल का ढेर ।
चला रहै सब दांव-पेंच, ये कुर्सी के शेर ॥
नोट-वोट का घाल-मेल, चलेहिं सालों साल ।
नेता गब्बर हो गये, जनता भई कंगाल ॥
वादों की बौछार है, नारों की बरसात ।
यह मौसम की बात है, बाद किसे है याद ॥
फिर बारी पर ठगी गई, जनता देखे राह ।
लूटने फिर अईहैं, पाँच बरस के बाद ॥
जाति पाँत भाषा धर्म, ने बाँट दयौ इंसान ।
वोटरलिस्ट में सिमट गई, अब उसकी पहचान ॥
भाग्य बंद पेटी हुआ, उपर चढती साँस ।
रोज मनौती कर रहे, डगमग है विश्वास ॥
लात चली घूंसे चले, हो जूतम-पैजा़र ।
हिस्ट्रीशीटर देश के, बन गईले सरकार ॥
--मुकेश कुमार तिवारी
राजनीति से उड़ गया, देश प्रेम का रंग
छिड़ी हुई है दलों में सिर्फ स्वार्थ की जंग
खेल कर रहे सभी दल चुप जनता के साथ
करते बस बातें बड़ी दे भाषण दिन रात
पिछले अनुभव से गया खो मन का विश्वास
बातों मे सच्चाई कम है ज्यादा बकवास
लोगों में क्यों रुचि रहे या श्रद्धा के भाव
वादे तो मीठे मधुर मन में मगर दुराव
स्वार्थ नीति ही प्रमुख है राजनीति में आज
उदासीन है लोग सब बेबस सकल समाज
देखा है जब जब हुये जहां भी कहीं चुनाव
सभी दलों में आपसी बढ़ जाते टकराव
जन सेवा औ " समझ का कहीं न सही प्रचार
सुनने आते प्रलोभन औ" बीमार विचार
धोखे ही खाने मिले हर चुनाव के बाद
मत दाता का मत हुआ बार बार बेकार
दुनियां बस उनकी बसी जिनकी हो गई जीत
काम किये सबने सदा वादों के विपरीत
है चुनाव चक्कर अजब इसमें फंसकर लोग
पाल लिये करते सभी लेन देन का रोग
लोकतंत्र की भावना का दिखता विद्रूप
पावन होते तंत्र भी घिस पिट हुआ कुरूप
इसी लिये मिलती खबर जूता मारी खून
जिसकी लाठी साथ हो उसका ही कानून
--प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव विदग्ध
ना चाहकर भी कुछ यहाँ
हम भी कहना चाहते हैं
हो रहा है कितना हल्ला
बस यह बताना चाहते हैं.
यह जोश, यह चीखना सब
बस केवल चुनावी बुखार है
जनता की भावनायों पर
यह एक सीधा प्रहार है.
हर किसी ने बना लिया है
यहाँ पर अपना-अपना hero
रात-दिन चीखते हैं मिलकर
इनमें कुछ अकल के zero.
कभी-कभी कुछ उम्मीदवार भी
उनके साथ प्रकट हो जाते हैं
पक्ष में करने को अपने वह
जनता के निकट हो जाते हैं.
भीड़ में घुसकर कभी वह
बच्चों की नाक पूँछ देते हैं
कभी रोते बच्चों को माँ की
गोद से लेकर चूम लेते हैं.
इस जानी-मानी सी कला में
यह सब लोग कितने दक्ष हैं
दिखाकर यह सारे कारनामें
जीत लेते जनता का पक्ष हैं.
कोई कहता इनमें बार-बार
'रामलला हम फिर आयेंगे
वादा करके जाते हैं आकर
मंदिर फिर यहीं बनायेंगें'.
या गरीब के घर रोटी खाने
कोई आंधी जैसा है आता
जगह बनाकर उसके दिल में
भगवान के जैसा बस जाता.
ना भूलो यह झूठे वादों से
दिल तोड़ने में माहिर हैं
समय आने पर भूल जायेंगे
सबको यह बात जाहिर है.
पता नहीं कहाँ-कहाँ से यह
इतने चमचे बटोर लाते हैं
फिर खुली जीपों में खड़े होकर
सब गला फाड़कर चिल्लाते हैं.
झूठे वादों से फुसलाकर यह
जनता को खूब फ़ूल बनाते हैं
उनके दिल जीत लेने के बाद
अपने वादों को भूल जाते हैं.
जेल में जाते हैं तब भी तो
इनका नाम ऊंचा ही होता है
वहीँ से ही बैठे-बैठे चमचों से
उन सबका सारा काम होता है.
वोट जिस किसी का भी हो
इतना भी सस्ता ना होगा
फिर भी आजमाने के लिए
कोई और रास्ता भी ना होगा.
--शन्नो अग्रवाल
सूरज सुबह उगता है
सुबह सुहानी लगती है
भारत बुलंद है
चिड़ियाँ चहचहाती हैं
फूल मुस्कराते हैं
भारत बुलंद है
आस्था हो न हो
मंदिर हैं , मस्जिद है
भारत बुलंद है
बिजली हो न हो
बिल तो आता ही है
भारत बुलंद है
सड़कें हो न हों
मंजिलें तो हैं
भारत बुलंद है
शिक्षक आये न आयें
शालायें हैं , छात्र भी
भारत बुलंद है
रोजगार मिले न मिले
स्वरोजगार योजना जो है
भारत बुलंद है
अपराध बढ़ते है तो बढ़ें
पुलिस है , अदालतें भी
भारत बुलंद है
उद् घाटन की नौबत आये न आये
शिलान्यास तो हो रहे हैं न
भारत बुलंद है
आबादी आबाद हो न हो
६०० करोड़ वाले नेता आबाद हैं
भारत बुलंद है
मंहगाई घटे न घटे
मुद्रा स्फिति की दर तो घट रही है
भारत बुलंद है
आमदनी हो न हो
कर्ज लो ,खर्च करो
भारत बुलंद है
उम्मीदवार पसंद हो न हो
वोटर हो तो वोट करो
भारत बुलंद है
--विवेक रंजन श्रीवास्तव
नेता बुद्धिमान हत्यारे होते हैं
वो शारीर नहीं मारते
बड़ी चालाकी से
लेलेते है हमारा वो समय
हमारे वो शब्द ,हमारी वो आवाज़
जिसमे हम रहते हैं .
हमारे छोटे छोटे सुखों की
छाँव ढूंढ लेते हैं
ढूंढ लेते हैं
हमारे दुखो और जरूरतों की गुमटियाँ
बिठा देते हैं पहरे
उसके मुहाने पर
सब्ज बाग कुछ यूँ दिखाते हैं
स्वर्ग यहीं होगा
हम मान जाते हैं
वादों को
कपट जाल तले बिछाते हैं
किस्मत के मारे
हम जब इसमें फस जाते हैं
तब पर हमारे क़तर देते हैं
कहते हैं झूठ
पर कुछ इस तरह
के वो हमारी ही
अवाज लगने लगता है
सत्ता में आते ही
उनका सच होता है बेनकाब
और ठगी जनता
तलाशती है नया सहारा
हमारे शब्द
यदि उनके खिलाफ हों
उसका फंदा वो हम पर ही कसते है
और उसी से कर देते हैं
हमारी हत्या
--रचना श्रीवास्तव
लोकतंत्र का उत्सव
मना रहे इस बार
जनता नेताओं से
खाये बैठी है खार .
जनता के हाथ में
आ गया एक हथियार
जूते से हैं लैस सब
चलाने को तैयार .
नेताजी अब सोच रहे
कैसे होगा बेडा पार
भरी सभा में डर रहे
क्या रखें अपने विचार ?
जनता से कर धोखा
और करके अत्याचार
आज खड़े हैं आ कर वो
जूते का पहने हार .
त्रस्त हुई अब जनता
नेताओं पर कर विश्वास
पर नेताजी घूम रहे
लेकर जीत की आस .
कोई नहीं है ऐसा नेता
जो सुने जनता की पुकार
जनता तो ठगी ही जायेगी
आये कोई भी सरकार ..
--संगीता स्वरूप
रैली ,परचम और नारों से कर डाला बदरंग
शहर वोटर को फिर ठगने निकले, नेता बनकर नटवरलाल
कैसे छांटें इन चेहरों में अपनी मर्जी का लीडर
जीत के बाद सभी कर देते हैं पब्लिक का दम बेहाल
--मनु ’बेतखल्लुस’
ओ बबुवा सुन ले रे आवा लोक तंत्र का त्यौहार
नेता पहुंचें गली गली बात बनावें बड़ी बड़ी
रात का सपना दिन माँ दिखलावें, लगाएं वोट की गुहार
ओ बबुवा सुन ले रे आवा लोक तंत्र का त्यौहार
बाँट बाँट के जाति बिरादरी सब अपना उल्लू सीधा कीन्हिन
खड़ी किहिन दौलत कोठी अपनी लै के वोटवा हमार
ओ बबुवा सुन ले रे आवा लोक तंत्र का त्यौहार
जस त्यौहार खतम चलिहैं नेता जी दिल्ली, बनिहैं मंतरी
कोठी बंगला गाडी छोड़ के फिर कहाँ झोपड़ी माँ हमार !
ओ बबुवा सुन ले रे आवा लोक तंत्र का त्यौहार
बीत गयी उमरिया अपनी देखत सब चुनाव का हाल
न गाँव माँ कछु बदला न बदली किस्मतिया हमार
ओ बबुवा सुन ले रे आवा लोक तंत्र का त्यौहार
--मुहम्मद अहसन
लोक सभा चुनाव
लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव
चुनाव आयोग सशक्त,
आचार-संहिता तोड़ते
राजनीति के भक्त,
चुनाव-घोषणा पत्र
जनता रूपी प्रेमिका को
बेबफा-प्रेमी नेता का प्रेम-पत्र
तारे तोड़कर लाने के वादे,
लूटकर प्रेमिका को,
प्रेमी वादे भुला दे,
बेच दे उसको, वैश्यालय पहुँचा दे।
चुनाव-उत्सव
होली का त्योहार,
रंग-बिरंगे रंगों का उपहार,
सभी उड़े रंग
जनता रह गयी दंग
बचा केवल रंग काला
चुनाव-गंगा बन गई नाला
सभी दल फँसे दल-दल में,
नेताओं के चेहरों पर
पुती है कालिख
आओ वोटर!
वोट बेच, कीमत वसूल
थोड़ी कालिख,
अपने चेहरे पर भी मल
अब नहीं रहा तू नाबालिग
वोट डाल चुनाव से हों फारिग।
संसदीय चुनाव
दीपावली का त्योहार
दीपों का उपहार,
दीपक का तेल हुआ गुमनाम,
स्विस बैंक के खातों में,
वोटर आते बातों में,
बाती को भी हड़पने की लगी,
नेताओं में होड़
तू टिकिट के लिए लगा दे दौड़,
जनता को छोड़।
दीपावली है,
चुनाव का जुआ खेल,
बाती को लगा दे दाँव पर,
जरा सा लगा के तेल
भारतीय, नारी, संस्कृति व विचार,
बचे हैं दाव पर लगाने को यार,
पश्चिमी-पारदर्शी-आकर्षक-नग्नता के आवरण में लपेट,
लगा दाव पर, भर ले अपना पेट।
संसदीय चुनाव,
रक्षाबंधन का त्योहार,
बाँधकर रक्षासूत्र,
जनता सौंपती लोकतंत्र की रक्षा का भार,
नेताओं के लिए रक्षासूत्र,
चुनाव तक की दरकार,
तोड़ देंगे चुटकी में,
बस बन जाए सरकार।
रक्षासूत्र ही बनेगा कामसूत्र,
रक्षासूत्र बाँधने वाली को ही
अंकशायिनी बनने को कर देंगे मजबूर,
वस्त्रों को कर तार-तार,
इसी के कर-कमलों से पहनेंगे,
जीत के हार।
विजयादशमी होगी,
चुनाव-परिणामों की घोषणा,
वोटर की मजबूरी है,
किसी ना किसी को,
वोट देना जरूरी है
यदि बहुमत नहीं मिलेगा,
सभी हो जायेंगे सवार
तभी सत्ता का रथ चलेगा
सभी एक-दूसरे के गले लगेंगे,
हम मिलकर सहयोग करेंगे,
यूपीए,राजग,तीसरा,चौथा या पाँचवा मोर्चा,
और सभी दल स्वतंत्र,
दल ही नहीं निर्दलीय उम्मीदवार भी
लोक को छोड़ पीछे,
अपनायेंगे सत्ता-तंत्र।
सभी का धर्म एक है,
सत्ता सभी की टेक है।
तंत्र पहनायेगा,
इन्हें जीत के हार,
जनता भले ही हो बेजार,
ये धर्म की रखेंगे लाज,
धार्मिक पर्यटन बढ़ायेंगे,
धार्मिक-स्थलों पर शराब पार्टी मनायेंगे,
होगें नग्न-नृत्य,
सभी वोटर बन जायेंगे भृत्य,
इनकी तिजोरी देखना,
वही होंगे इनके कृत्य,
जनता का हो राम नाम सत्य।
--डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
हमारे नेताओं को क्या हो गया हमारी राजनीति को क्या हो गया
हम भी कहीं न कहीं कसूरवार हैं हमको भी न जाने क्या हो गया
तब कि बातें और थी तब लोगों को ज्ञान था
कथनी और करनी का अंतर गाँधी जी को ध्यान था
बच्चे से गुड़ खाना छोड़ो उस दिन तक ना बोले थे
जिसदिन तक गुड़ खाने का खुद बापू को अरमान था
अब लालटेन वाले नेता बैठें एसी दरबार में
साइकिल वाले नेता भी चलते हैं मोटर कार में
अब काटें भी मिलते हैं कुछ फूलों के हार में
अब पंजे तक से पिसता है बस वोटर हर सरकार में
चिकनी चुपड़ी बात करे जो कभी करे न काम
जगह से अपनी हिले नहीं जो मिले न जबतक दाम
पांच साल में एक बार जो करता हो सलाम
याद नहीं रखता उनको जो आते उसके काम
पहचान ही जिसकी ये हो जो नहीं आदमी आम
अपनों तक का सगा नहीं जो नेता उसका नाम
भरे पेट जो रोज़ लगाते नैतिकता के नारे
और सबको ये बतलाते हैं कि क्या अच्छा है प्यारे
वो शायद ना चल पाएँ खुद अपनी ही बोली राह पर
गर मिल ना पाए उनको उनका खाना उनकी चाह पर
भूखे रहना क्या होता है जबतक नहीं नेता जानेगें
क्या भूख से लड़ने वालों की बातों को वो मानेगें
हमारे नेताओं को क्या हो गया हमारी राजनीति को क्या हो गया
हम भी कहीं न कहीं कसूरवार हैं हमको भी न जाने क्या हो गया
--आलोक गौड़
रथ बताते फिर रहे चालाक मोटर की जगह
राजनेता फिट हुये हैं आज जोकर की जगह
दृशय मिश्रण आ गया है अब नई तकनीक में
ले रहे हैं 'गांधी' मुरली मनोहर की जगह
शुष्क रेगिस्तान की संभावना दिखने लगी
इस चमन की बुलबुलों को अब सरोवर की जगह
पोल क्या खोलेंगे पोलिंगबूथ शिक्षा के बिना
कुछ भगत सिंह चाहिये हैं आज वोटर की जगह
--डा नीरज जैन
भारत के लोकतंत्र का, क्या करूँ बखान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान,
तुम हो महान नेताजी, तुम हो महान .....
मुँह उठाये फिर चले आये,
छुटभैये, चमचों से पर्चे बटवाये,
रंग-बिरंगे झण्डे फहराये,
इक्के-दुक्के काम गिनवाये,
मांग रहे हमसे मतदान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान .....
पुराने वादे न दोहराओ,
घिसे-पिटे भाषण न सुनाओ,
धर्म का ज़हर न फैलाओ,
पाँच साल का हिसाब बताओ,
कितने किये अच्छे काम,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान .....
भाजप, कांग्रेस, समाजवादी,
ओढे रहो भईया सफेद खादी,
हर काम की तुमको आज़ादी,
होती है होने दो बर्बादी,
इसका है किसी को अनुमान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान .....
सुस्त क़ानून व्यवस्था हमारी,
तिस पर महंगायी, बेरोजगारी,
सुरक्षा, शिक्षा की कमी भारी,
रिश्वत भी लाइलाज बिमारी,
पिस रही जनता हैं सब परेशान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान .....
फेल हो तुम चौथा दर्जा,
फिर भर दिया तुमने पर्चा,
कौन भरेगा चुनाव का खर्चा,
देश पर बढेगा भारी कर्जा,
ख़ूब रौशन किया भारत का नाम,
तुम हो महान नेताजी, तुम हो महान .....
कौन सुखी है बोलो आज,
एक सपना है रामराज,
राम भरोसे सब कामकाज,
खीझ है मन में, हैं सब नाराज़,
"रत्ती" बचाये सबको भगवान,
भारत के लोकतंत्र का, क्या करूँ बखान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान,
तुम हो महान नेताजी, तुम हो महान .....
--सुरिंदर रत्ती
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
मैं यही सोच रहा था कि चुनावों ने हमारे कवियों को अब तक क्यों नहीं जगाया....चलिए आज पता लगा कि सब ने काव्य पल्लवन के लिए कवितायेँ सहेज कर रखी थी....मज़ा आया पढ़ कर...
आज चैन नहीं पड़ी हिंद-युग्म पर 'काव्यपल्लवन' में छपी कवितायों को जल्दी से पढ़े बिना. क्योंकि लोकतंत्र के मंच पर कवियों ने तिलमिला कर कविता के रूप में जो भड़ास निकाली होगी उसे पढने के लिए मन बहुत बेचैन था. खूब मज़ा आया सबकी कवितायेँ पढ़कर और खूब हंसी भी. मुकेश जी, आपकी कविता पढ़ते बख्त तो हंसी की छींटें निकल पड़ीं (चाय जो पी रही थी उस समय).
अब आप लोग असली तमाशा देखिये हर जगह. लोकतंत्र के घाट पर स्नान करिए. GOOD LUCK! इतनी अच्छी-अच्छी सबकी लिखी रचनाएं पढने को मिलीं उसका बहुत धन्यबाद. सबको खूब ढेर सारी बधाई.
कवियों को कर दें खडा,
लड़ लें जरा चुनाव.
पल में आटे-दाल का
मालूम होगा भाव.
नेता अफसर व्यवस्था,
सब की खींची टांग.
कर जोड़े घूमें तनिक,
पी लोटा भर भांग.
मांग-मांग मत मति फिरे,
गायें कविता रोज.
मतदाता फिर पादुका,
लिए घूमता खोज.
मत मांगे से पत गयी,
भारी पड़ा चुनाव.
कविता ले के आ गए
हिंद युग्म की छाँव.
टांग खिचौअल के इस खेल मं हमरिऊ हाजरी लगा लेई...
सभी कवि भाई बहिनों की कवितायें बहुत अच्छी लगी खूब भडास निकाली मैं भी अपनी भडास व्यक्त करने से नहीं रोक पाया प्रस्तुत है :-
पूरे देश में फसल स्वप्न की कैसी यह हरियाई है |
दिवस हजारों बीते देखो याद हमारी आई है ||
पूर्ण देश में सपनों के विक्रेता ऐसे घूम रहे |
गाँव गली में घूम घूम कर बूढे बच्चों को चूम रहे ||
कोई क़र्ज़ माफी के सपने ,सपने बिजली पानी के |
कन्या की शादी के सपने .सस्ते चावल धानी के ||
नेता अब विपणन में माहिर स्वप्न सुनहरे दिखा रहा |
भोला वोटर इन सपनो को निज मन में है सजा रहा ||
मिलने दलित अरे सांसद से , भूखा सड़क पर रहा पडा |
आज उसी के घर के आगे ,नेता का वाहन आय खडा ||
अरे गाँव को लौटा भूखा , किन्तु नहीं मिलने पाया |
आज उसी के घर में ,नेता ने भोजन खाया ||
फिर अखवार में फोटो अपना देख बेचारा भरमाया |
कष्ट पुराने विस्मृत सारे , नेता चरण शरण आया ||
ठगा गया वोटर ही सदा से , अपना अधिकार लुटाता है |
नेता मिथ्या स्वप्न बेचकर , अपना व्यापार चलाता है ||
= प्रदीप मानोरिया 094 251 32060
हिन्द-युग्म को,
सबसे पहले तो मैं इस लोकतंत्र के महापर्व पर सभी से अनुरोध करूंगा कि वे अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करें और अपने आस-पास सभी को प्रेरित भी करें।
रही बात काव्य पल्लवन में प्रतिभागिता की तो मैं इसे अपना गौरव मानता हूँ एक प्रतिष्ठित मंच पर मुझे भी अपनी बात कहने का मौका मिला।
मुझे निम्न पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी :-
श्री सत्य प्रसन्न जी की
संदेहों की जेल में, आशाएं हैं कैद।
तिस पर दुर्दिन हैं खड़े. पहरे पर मुस्तैद॥
शन्नो जी से मुझे एक शिकायत है कि अपना ईमेल पता भी नही दिया है अपनी प्रोफाईल में यदि कोई धन्यवाद देना भी चाहे तो कैसे दे।
मैं गुरुवर श्री आचार्य संजीव सलिल साहब से भी अनुरोध करूंगा कि यह मेरा दोहा लेखन में पहला प्रयास है और मैं एकल्व्य की भाँति ही आपसे सीख रहा हूँ। यही अनुरोध मेरा दोहा-कक्षा के अन्य पारांगत विधार्थियों से भी है कि वो अपने मार्गदर्शन से मुझे सीखने में मदद करें।
सभी कवियों को बहुत अच्छी, विचारोत्तजक कविताओं के लिये बधाईयाँ।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
The poems by Satyaprasann & Mukesh are excellent. Some lines by Satya are outstanding & shows his brilliant command over this wonderful medium of expressing oneself. Others poets also tried very well to express their concerns about polls & about democracy in India.
Congratulations to all the poets.
हमें तो लगा था के हमारे अलावा सभी लोग लिखेंगे,,,,,,
पर काफी लोगों ने नहीं लिखा,,,,,
और जिन्होंने लिखा है तो कमाल,,,,,
यदि इस संकलन की एक एक प्रति सभी उम्मीदवारों के पास पहुंचा दी जाए तो,,,
क्या हो,,,,,,,,,,???????????????????
शायद,,,,
जाने किस अंदाज में थीं बुलबुलें,,
जो पशेमाँ इस क़दर सैयाद था,,,,
मुकेश जी,
आप इतना परेशान ना हों मुझे धन्यबाद करने के लिए, इस तकल्लुफ की क्या जरूरत? वैसे जानना ही चाहते हैं तो हिन्दयुग्म के पास है मेरा ईमेल पता. यह तो मेरा फ़र्ज़ था बताना कि आपकी कवितायों में व प्रसन्न जी की कवितायों में हास्य का रंग खूब अधिक नज़र आया और हंसी पर जोर नहीं रहता चाहें छोटी हंसी हो या बड़ी.
और 'सलिल' जी की बात से भी सहमत हूँ कि हमारा लिखना और चीज़ है लेकिन अगर चुनाव की लाइन में खड़ा कर दिया जाये तो अपने लिए कविता लिखनी बड़ी मुश्किल हो जायेगी आटे दाल का भाव मालूम पड़ते ही पसीने आने लगेंगें.
मनु जी, कभी-कभी आप पहेलियों की भाषा में बात करते हैं और इससे ना समझ में आने पर दिमाग में उलझन हो जाती है. मेरा मतलब यह है कि संकलन से आपका मतलब कविता-संकलन से है या टिप्पणी के संकलन से. मेरे ख्याल से तो उम्मीदवार दोनों से ही प्रसन्न नहीं होंगे. ओके (ही..ही..हे..सॉरी).
जय हो
चुनाव नहीं मतदान करें,
नए भारत का निर्माण करें.
मत दो वोट गिरगिटों को,
न जयचंद की औलादों को,
है जिनका खुद स्पस्ट मत नहीं,
उन गद्दारों को अब वोट न दो।
दो ऐसा मत, सेना का मान बढे,
बेदी हो हर घर, न दूसरी दुर्भाग्यिनि बनें.
फिर कभी कश्मीर में तिरंगा लुटे न,
मुज़फ्फरनगर, कोकराझार में देश टूटे ना.
था विश्वगुरु यह भारत, फिर से वही गौरवमयी इतिहास बनें,
न बटें आपस में पाखंडो के नाम पर,
आदेश हो सर्वधर्म रक्षा की,
आओ ऐसे हम मतदान करें.
चुनते आ रहे पिछले ६५ सालो से,
इस बार, कुछ नया करना है,
अब और ना उलझे रोटी की जद में,
की इस बार मतदान हमें अब करना है.
मत दो ऐसे मतवाले को,
जो हो मतवाला, देश समर्पित,
न करो मतभेद जो भेष न बदले,
होगा काफी वो देश के हालत जो बदले.
भारत जग में और महान बने,
गौ, गंगा, गायत्री का भी सम्मान रहे,
कोई रोके न हिंदुस्तानी को हिंदुस्तान में,
सारे वतन में तिरंगा आन रहे.
की अब और नहीं घोटाला हो,
न कलमाड़ी न कोई राजा हो,
न ही लड़ाई छोड़ने वाला बेचारा हो,
जो दम्भ भरे और जग मूक हो जाए,
ऐसे हाथो में तुम कमान को दो.
जो सेवक हो, सेवा का अनुभव भी हो,
ऐसे सक्षम बेटे को बल अब दो,
क्या हुआ जो गांधी सा नाम नहीं,
कम है क्या बारह सालों में कोई दाग नहीं?
आप मत उलझो मेरे शब्दों में,
बस खुद से कुछ सवाल करो,
क्यों घेर रहे सब मिलके, उसको अभिमन्यु सा,
क्यों नहीं उससे कोई तरक्की की बात करें?
जो मिले जवाब उस को बुलंद करो,
जीते कोई जीत हो भारत की,
बस इतना ही तुम ख्याल रखो,
इस बार से वोट नहीं,
अपने मत का तुम दान करों,
की आओ इस बार मतदान करो.
-सन्नी कुमार
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कविताएं काफी अच्छी लगीं| नेट पर सबसे साझा करने के लिए धन्यवाद!
बहुत खूब
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