माँ बुलाया करती थी
हर ‘छठ’ में घर
वह कहती कि
मेरे लिए ही तो उठाया था व्रत
अपने इकलौते बेटे के लिये (!!!)
कई बार मैं गया
पर शायद हर बार नहीं
मेरी पत्नी तो कभी भी नहीं
उसे नहीं था (है) आस्था
मुझे भी नहीं था
पर मैं खींचा चला जाता था
माँ से मिलने के बहाने
या कोशिश करता जाने की
और पत्नी को मनाने की
पर आज ख़ुद को ही
गुनाहग़ार पाता हूँ
अपनी पत्नी में
’माँ’ के प्रति आस्था
नहीं जगा पाने का
हमारा बेटा विदेश में रहता है
और पिछले सात सालों में
एक बार भी नहीं
कभी-कभार
फोन से बात कर लेता है
वह भी अंग्रेजी में
कई बार बोलता हूँ आने को
पर शायद हर बार नहीं
और मेरी पत्नी के पास तो
कोई बहाना (?) भी नहीं है
उसे बुलाने का !!!!!
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी कविता !
कुछ ही पंकंतियों मे अपने कल-आज और आने वाले कल को अच्छी तरह से दर्शाया है.
ये आपकी नही हम सब की वेदना है (लेकिन अभी तक मेरे लिए नही है. :)
सुंदर बधाई
अवनीश तिवारी
और मेरी पत्नी के पास तो
कोई बहाना (?) भी नहीं है
उसे बुलाने का !!!!!
एक अच्छी कविता... संतुलित शब्दों में।
अभिषेक जी,
भव्य भावयुक्त कविता
हमारा बेटा विदेश में रहता है
और पिछले सात सालों में
एक बार भी नहीं
कभी-कभार
फोन से बात कर लेता है
वह भी अंग्रेजी में
कई बार बोलता हूँ आने को
पर शायद हर बार नहीं
और मेरी पत्नी के पास तो
कोई बहाना (?) भी नहीं है
उसे बुलाने का !!!!!
बधाई
सुंदर लगी आपकी यह रचना अभिषेक जी बधाई आपको !!
मुझे लगता है कि अगर इस कविता का फार्मेट लोकगीत होता तो यह बढिया बन जाती.
अभिषेक जी
बहुत ही सुन्दर कविता है । इतना सही लिखा है आपने । आज के युग में यही हाल है । जुड़ने के बहाने भी नहीं रहे ।सच है ।
पर आज ख़ुद को ही
गुनाहग़ार पाता हूँ
अपनी पत्नी में
’माँ’ के प्रति आस्था
नहीं जगा पाने का
हमारा बेटा विदेश में रहता है
और पिछले सात सालों में
एक बार भी नहीं
कभी-कभार
फोन से बात कर लेता है
वह भी अंग्रेजी में
कई बार बोलता हूँ आने को
पर शायद हर बार नहीं
और मेरी पत्नी के पास तो
कोई बहाना (?) भी नहीं है
उसे बुलाने का !!!!!
बधाई स्वीकारें
अभिषेक जी ....
बहुत खूब ,..आपने कविता के माध्यम से बदलते विचारों को दर्शाने की बखूबी कोशिश की है ...कविता उन लोगो पर भी कुठाराघात करती है ..जो ख़ुद टू अच्छा नही करते पर दूसरो से उम्मीद करते है ..बहुत खूब ...बधाई स्वीकार करें ...
अभिषेक जी,
सामायिक भावभीनी कविता.. बधाई
मुझे समझ नहीं आया आपको गज़ल पसन्द आई या नहीं । मैं अपनी भावनाओं को शब्दों में ढ़ालने की कोशिश करता हूँ । मुझे रदीफ काफिये के बारे में ज्ञान नहीं है । यदि समझा सकें तो शायद अपनी गज़लों में पैनापन ला सकुँ ।
अभिषेक जी!
इस छठ पर मैं भी घर नहीं जा पाउँगा,पर ये मेरी मजबूरी है;मेरी माँ जानती है।
अच्छी कविता!
और मेरी पत्नी के पास तो
कोई बहाना (?) भी नहीं है
उसे बुलाने का !!!!!
पाटनी जी,
आपने बड़ा हीं महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है।आजकल परिवार के टूटने का सबसे बड़ा कारण यही है। एक बेटे और माँ के मनोभावों का सहारा लेकर दो पीढियों की मानसिकता आपने बखूबी दर्शायी है।आप तो हिन्द-युग्म पर आते हीं छा गए।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
अभिषेक जी!!
वाह!!! क्या खुब लिखा है...
**और मेरी पत्नी के पास तो
कोई बहाना (?) भी नहीं है
उसे बुलाने का !!!!!**
आपने दो पीढियों के बीच की बदल्ती हुई मानसिकता को बहुत अच्छे से प्रस्तूत किया है...वाकई आजकल समाज मे ऐसा होता भी है....
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कई बार मैं गया
पर शायद हर बार नहीं
मेरी पत्नी तो कभी भी नहीं
उसे नहीं था (है) आस्था
मुझे भी नहीं था
पर मैं खींचा चला जाता था
माँ से मिलने के बहाने
या कोशिश करता जाने की
और पत्नी को मनाने की
पर आज ख़ुद को ही
गुनाहग़ार पाता हूँ
अपनी पत्नी में
’माँ’ के प्रति आस्था
नहीं जगा पाने का
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रिश्तों से कम होती गर्माहट और बढ़ते उदासीपन पर अच्छा व्यंग्य है। मुझे खुशी है कि आप जैसा सामर्थ्यवान कवि हिन्द-युग्म को मिला है।
paatni ji,
bahut hi sunder aur bhavuk abhivyakti, badhai ho
alok singh "Sahil"
अरे शादी कर ली... बच्चे भी हो गए... और बताया तक नहीं...
अब काम की बात- तुम्हारी खासियत यही है कि जो आपकी कलम लिखती है वो उससे पहले कभी नहीं पढ़ा गया होता है... बधाई-
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