यहाँ हर ओर चेहरों की चमक जब भी है मिलती मुस्कुराती है,
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है..............
यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती यूँ ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में
नित नए सपने बुने जाते यहा हैं खुली आंखों से,
और सपने मर भी जाएँ तो नही उठती है कोई टीस मन में
घर की मिटटी, चांद, सोना, सब यहा बाज़ार में है...
माँ मगर वो....................
ओ मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर-की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते,
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
हां मगर वो............
कह री दिल्ली ? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल,
क्या तू देगी धुएं-में लिपटे हुये चेहरों को रौनक??
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो........................
निखिल आनंद गिरि
9868062333
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
निखिल जी,
अच्छी कविता। और दिल्ली ही क्या ये तो आजकल हर शहर की दास्ताँ है। जो भी गावँ से शहर आया हो उसके मन मे कभी न कभी ऐसे भाव उठते ही हैं।
कह री दिल्ली ? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल
बधाई।
बहुत ही बढिया कविता है. दिल्ली ही नही किसी भी महानगर का ये ही किस्सा है.बधाई हो कविजी
निखिल जी मैं आपकी कविता जब भी आती है हमेशा पढता हूँ, आप की लेखनी का कायल हूँ, यह जो आपने लिखा है बस क्या कहूँ क्या लिखा है, संजो के रखने लायक है ये रचना
यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती यूँ ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में
नित नए सपने बुने जाते यहा हैं खुली आंखों से,
और सपने मर भी जाएँ तो नही उठती है कोई टीस मन में
घर की मिटटी, चांद, सोना, सब यहा बाज़ार में है...
वाह , दर्द को इतने सलीके से उधेडा है की टीस भी दबी दबी रह जति hai -
मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर-की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते,
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है.
बेहद सच बात है कही इतने सुंदर अंदाज़ मे, अन्त और बेहतर हो सकता था इस कालजयी रचना का, क्योंकि अन्त जो पाठक कल्पना कर रहा है उससे कुछ मुक्तालिफ होना चाहिए था
बधाई
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते,
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
हां मगर वो............
निखिल आपकी लिखी पंक्तियां बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है ..जिन्दगी का एक कड़वा सच
छिपा है इन में ...बधाई
वाह निखिल जी,
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
सच सच और केवल कटु सच...
पूरब की गरिमा, पशचिमी अवतार, क्या खूब नाम दिये हैं आपने दिल्ली को
---तपन शर्मा
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते,
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
सुन्दर लिखा है निखिल जी, दिल्ली दिल वालों की है शायद इसी लिये...
जिन्दगी की रफ़्तार इतनी तेज है महानगरों में कि कुछ सोचने और किसी के लिये रुकने के लिये वक्त ही नही किसी के पास...
निखिल जी,
आपकी कविता पढ़कर आँखों में दो बूंदें चमक गईं।
शायद दिल्ली की टीस इधर भी आ गई थी।
यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती यूँ ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में
घर की मिटटी, चांद, सोना, सब यहा बाज़ार में है...
ओ मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है
इस अनुपम रचना के लिए हृदय से बधाई स्वीकारें।
Delhi kya sabhi bade seharon ka yahi haal hai....zindagi yahaan raftaar hai....zara sa dheeme hokar sustana chaho to zindagi choot jaati....aacha likah hai...pasand aaya
निखिल जी
मुझे जो कहना था
बाकी सब साथी वो कह
चुके है
कुछ पंक्तिया जिन्होने मुझे प्रभावित किया
यहाँ हर ओर चेहरों की चमक जब भी है मिलती मुस्कुराती है,
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है..............
प्रिय निखिल
कविता बहुत ही भाव विभोर करने वाली तथा सत्य अनुभव से लबालब है । अपने
परिवार और स्वजनों से दूर रहने की पीड़ा बहुत सहज़ रूप में प्रकट हो रही है ।
लेकिन दिल्ली में माँ के आँचल का स्नेह और सुख-दुख में संबल भी मिलेगा ।
इसको अपना तो बनाओ । सस्नेह
मित्रों,
कविता आपको पसंद आयी, संतोष हुआ...यह सही है कि मेरी कविता का मर्म हर उस शहर का है, जहाँ मशीन संस्कृति हावी होती जा रही है....दिल्ली तो महज एक उदाहरण है..आप किसी भी शहर का नाम जोड़ लें, कविता उतनी ही सच दिखेगी..........गौरव, आपकी आंखों में बूँदें चमकीं मतलब आपके पाठकों को सीधा "फायदा" होने वाला है....
शोभा जीं, पहले आपकी आलोचनात्मक और अब प्रेरणात्मक टिप्पणियाँ मेरी संजीवनी हैं..दिल्ली में माँ का सुख मिले ना मिले.."फरीदाबाद" जैसे शहरों से मुझे माँ जैसा स्नेह और संबल मिलता जा रहा है.......
बहुत-बहुत शुक्रिया.......
निखिल...
kya baat hai,
kavita padh kar bahut accha laga,jane kya chij akarshit karti hai? mujhe nahi malum!shyad kavita ke shabd,kavi ki soch,ya aaj ke mahaul ki sachai.
Amit Giri
निखिल जी!
बहुत बहुत बधाई, इतनी सुंदर रचना के लिये! सारे दिन की भागदौड़ के बाद आपकी थकान इस खूबसूरत रचना के माध्यम से उतरेगी, अनुमान नहीं था. मुझे यहाँ पूरे परिवार के साथ रहते जब अपना गाँव अक्सर याद आता है तो जो परिवार से दूर रह रहे हैं, उनके भावों को मैं समझ सकता हूँ. पुनश्च: बधाई!
महानगरों को ग्राम्य दृष्टिकोण से देखने का ताना-बाना आपने बहुत खूबसूरती से जोड़ा है।
कविताओं में शहरी लोगों के असहिष्णु होते जाने पर चिंता, प्राकृतिक सौंदर्य की अनुपलब्धता, समय का अभाव, सभ्यता और रहन-सहन में अंतर पाये जाने का कष्ट, आवृत्त व्यक्ति का अनावृत्त परिधानों में लिपटने से उत्पन्न कुंठा , हर कवि व्यक्त करता रहा है। यह भारतीय काव्य-परम्परा का अभिन्न अंग है। इसलिए कविताओं में इस तरह का भाव मिलना सत्य की तरह स्वभाविक है।
आपने चार अंतरों में ४-५ बातों को सुंदर तरीके से परोसा है। बधाई।
प्रिय निखिल जी
महानगर का सच है यह, प्रभावित करते हैं आप हमेशा ही
"यहाँ हर ओर चेहरों की चमक जब भी है मिलती मुस्कुराती है,
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है"
बहुत सुन्दर
"ओ मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर-की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते,
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है"
गंभीर प्रश्न भी उठाये हैं आपने, हार्दिक बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है..............
कह री दिल्ली ? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल,
क्या तू देगी धुएं-में लिपटे हुये चेहरों को रौनक??
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो........................
बहुत सुन्दर कृति निखिल जी। आपकी संवेदना खो जाने पर मजबूर करती हैं और आपकी पंक्तिया रोम उद्वेलित कर रहीं है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
भरे घर मे तेरी आहट कही नही मिलती अम्मा
तेरे हाथो कि नर्माहट कही नही मिलती अम्मा
मै तन पे लादे फ़िरता हूँ दुशाले रेशमी कई
तेरी गोदी सी गर्माहट कहीं नंही मिलती अम्मा॥
आपकी कविता को पढ़कर मुझे मेरे कवि मित्र दिनेश रघुवंशी जी का यह मुक्तक याद आ गया...
निखिल आपने सच ही कहा है ये दिल्ली आपको माँ नही दे सकेगी...एक बात और कहने भर से कभी माँ नही बन जाती...माँ एक पवित्र अनुभूति है जो समझ पाना सभी के बस की बात नही...इसे वही समझ सकता है जिसे सचमुच माँ शब्द का आभास हो...बहुत-बहुत बधाई सुन्दर रचना के लिये...
शानू
निखिलजी,
महानगर में बदलते प्रेम के मायने और खो रही संस्कृति पर आपने खूबसूरत कटाक्ष किया है, बहुत-बहुत बधाई!!!
निखिल बहुत ही अच्छी कविताएं है...भाव काफी अच्छे है और जिस तरीके से पेश किया है वाकई काबिले तारीफ है...keep it up.
निखिल बहुत ही अच्छी कविताएं है...भाव काफी अच्छे है और जिस तरीके से पेश किया है वाकई काबिले तारीफ है...keep it up.
निखिल जी,
आपकी यह कविता भी बहुत अच्छी लगी.
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