बात छोटी हो
या बड़ी
इंसान नियम बनाता है
पालन हो सके
भले नहीं
इंसान नियम बनाता है
खाने का नियम है
पहनने का नियम है
सोने का नियम है
मिलने का नियम है
समय की सिकुड़न हो
चाहे काम का बोझ
सबकुछ नियमबद्ध है
भले जी भर रो सको
चाहे नहीं
आसूँ टपकाने का
एक नियम है
खुशी में झूम नहीं सकते
चिल्ला नहीं सकते
मुस्कुराने का
एक नियम है
नियमों की भीड़ में
ताज्जुब तब होता है
जब देखता हूँ
इंसान, इंसान नहीं
बस एक नियम है
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26 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविराज , सारे नियम तोड़ दो !
गिरिराज जी,
अतिसुन्दर! पढ़कर ऐसा लगा मानो मेरी अपनी ही आवाज़ हो। एक संपूर्ण कविता लगी। आद्योपांत सहज प्रवाह प्रशंसनीय है। साधुवाद।
aapki kavita behad pasand aayi.....ek alag tarah ki kavita lagi...seedhi, sapaat......badhai..
गिरिराज जी
अच्छी कविता लिखी है आपने । सचमुच नियम में चलना बहुत बन्धन लगता है ।
किन्तु एक बात समझ नहीं आती कि जब यह सारी सृष्टि नियम में चलती है तो
मनुष्य ही अनियंत्रित क्यों रहना चाहता है ?
मन के भावों को बहुत सहज अभिव्यक्ति दी है आपने । बधाई
सही कहा आपने गिरी जी अब आदमी मशीन बन चुका है, नियम से जो चलता है
नियमों की भीड़ में
ताज्जुब तब होता है
जब देखता हूँ
इंसान, इंसान नहीं
बस एक नियम है
नियम हैं तो इंसान हैं ..भले ही नियम पर चलना अच्छा न लगे :)
पर जिन्दगी तो नियम से ही बनती है :) सुंदर रचना नए भावों के साथ अच्छी लगी
बधाई कविराज जी !!
poem is nice.. but not up to ur potential. U can do much better.Lage Raho Kaviraj Bhai..
आदमी और जानवर में सिर्फ़ एक ही तो फ़र्क है कि आदमी नियम मानता है, जनावर नहीं, और किसी के भी खेत में भी घुस कर उजाड मचा देता है... मानने ना मानने की बात व्यक्ति विशेष की सोच पर निर्भर करती है...
सुन्दर भाव भरी कविता है.
aachi kavita hai jisme koi niyaam use nahi kiye gaye hain....;) keep going.....neeyam pe chalna chod do...
बात तो सही कही.. पर कौन सा नियम ज़रूरी है और कौन सा नहीं, यह तो खुद को तय करना होता है । सारे नियम बुरे भी नहीं, पर सारे मान लें यह ज़रूरी नहीं कि अच्छा ही हो । अपने नियम खुद बनाएँ । शुभकामनाएँ ।
- सीमा कुमार
सच गिरिराज जी
हमे इतने सारे नियम बना लिये है कि
बस
मशीन हो गये है
कितन अच्छा होता ना के हमने नियम वाली किताब ही नही पढ़ी होती
सुन्दर रचना
गिरिराज जी,
संपूर्ण कविता
अति - सुन्दर......
नियम
माने ना माने ...व्यक्ति विशेष की सोच है...
आदमी, जनावर नहीं आदमी है,
नियम मानता है....
पर कौन सा नियम ....
तय करना खुद को होता है ।
शुभकामनाएँ ।
बधाई
नियमों की भीड़ में
ताज्जुब तब होता है
जब देखता हूँ
इंसान, इंसान नहीं
बस एक नियम है
आप दार्शनिक हैं गिरिराज जी। प्रभावशाली सोच।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बधाई गिरिराज जी,
सुन्दर शिल्प, दर्शन प्रधान, प्रवाहपूर्ण कृति के लिये.
नियमों की भीड़ में
ताज्जुब तब होता है
जब देखता हूँ
इंसान, इंसान नहीं
बस एक नियम है
काश नियम बनाने के भी नियम होते..
कविता साधारण बातों से शुरू होकर एक दर्शन पर जाकर समाप्त होती है। आजकल बढ़िया लिख रहे हैं आप।
शैलेश जी ने सही कहा।
कील और नियम पढ़ने के बाद आप दार्शनिक लगने लगे हैं। आपके भीतर के कवि के लिए यह शुभ संकेत है।
बहुत बढ़िया गिरि ! पर इतने नियम मानोगे तो जब विद्रोह पर आओगे तो वह एक ज्वालामुखी के फटने सा होगा ।
बस लगभग १० या १२ बुनियादी नियम होते और व्यक्ति के जीवन को इस तरह से नियमों के रिमोट से न नियन्त्रित किया जाता तो बेहतर होता ।
घुघूती बासूती
कविराज!
रचना निश्चय ही आपके स्तर से कम होते हुये भी अच्छी है. आप इंसान के नियमों में बँधे रहने की बात करते हैं, मगर तब इंसान को बाकी जानवरों से अलग मानना भी क्या एक नियम मात्र नहीं है?
सही कहा मित्रवर, नियम इंसान ही बनाता है पर तोडता भी उसे वह ही है। क्योंकि तोडना उसका स्वाभाव है। और अगर इंसान नियमों में पूरी तरह से जकड जाए तो फिर शायद इंसान और रोबोट में कोई फर्क न रह जाए। कविता के लिए बधाई।
भले पालन हो-न-हो,
'नियम' बनाने का नियम है,
नियमों की बाढ़ लगाकर,
उसे 'नियमित' ठुकराने का नियम है।
- बहुत अच्छी कविता है। बधाई स्वीकारें ।
भले पालन हो-न-हो,
'नियम' बनाने का नियम है,
नियमों की बाढ़ लगाकर,
उसे 'नियमित' ठुकराने का नियम है।
- बहुत अच्छी कविता है। बधाई स्वीकारें ।
इन्सान नियमो को बनाता, नियम इन्सान को नही बनाते इसलिए हम हमेशा नियमो मे बंधे हुए कैसे हो सकते है? बाकी आपने बहुत अच्छा लिखा है.
भले जी भर रो सको
चाहे नहीं
आसूँ टपकाने का
एक नियम है।
गिरिराज जी,
बहुत सुन्दर लिखा आप ने।
साधारण तरीके से असाधारण बात कह गये आप।
मुझे तो यह कविता पढ़कर एक गाना याद आ रहा है...
सारे नियम तोड़ दो नियम से चलना छोड़ दो...
कायदा कायदा क्या है आखिर फ़ायदा?......
मगर गिरी एक बात सही है संसार को चलाने के लिये ही नियम बने है इन नियमो का पालन हम यदि नही करेंगे तो जानवर और आदमी का फ़र्क खतम हो जायेगा...और अनुशासन हीनता हर इन्सान में नजर आयेगी...नियमो का होना बेहद जरूरी है...
प्रकृति के भी तो कुछ नियम है सोचो अगर वह भी न हो तब?
उसी से सीखा है इन्सान ने भी नियम बनाना...
शानू
कविराज,
पढना अच्छा लग रहा है आपको , निरन्तर आपकी लेखनी गम्भीर होती जा रही है
सुन्दर और बहुत ही गंभीर कविता, बहुत ही सहज शब्दों में सुग्राह्य दर्शन प्रतिबिम्बित है इस कविता में
"समय की सिकुड़न हो
चाहे काम का बोझ
सबकुछ नियमबद्ध है"
सत्य है, नियमों पर चलना अच्छी बात है लेकिन समय समय पर नियमों में संशोधन भी अति आवश्यक है नहीं तो वह रूढि बन जाती है
"इंसान, इंसान नहीं
बस एक नियम है"
यह भी दुःखद सत्य ही है
बधाई, अनुपम रचना के लिये
सस्नेह
गौरव शुक्ल
नियम जब थोपे जाए तो निन्दनीय हो जाते है । लेकिन जब वे आपके मानस का हिस्सा हो तो उचीत है । लेकिन राज्य व्यवस्था मे नियम अपरिहार्य हो जाते है । आपकी बात ठीक भी है , गलत भी । अंत मे नियमो के नियम के बारे मे मै दो बाते कहुगा - 1) नियम यथासम्भव कम होने चाहिए । ज्यादा नियम से अव्यवस्था आती है । स्रुजन बाधित होता है । 2)नियम सर्व स्विकार्य हो , सरल हो तथा समय की कसौटी पर जाचे परखे हो ।
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