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Monday, October 26, 2009

एक पलड़े में 80 फीसदी हिन्दुस्तान तो दूसरे में 20 प्रतिशत


युवा कवि अवनीश गौतम ने 'आज़ादी के साठ बरस' कविता के माध्यम से हिन्दुस्तान की त्रासदी की जो तस्वीर खींची थी, एक ऐसी ही और उससे भी अधिक भयावह तस्वीर रामजी यादव की प्रस्तुत कविता के माध्यम से-

न्याय की देवी

तुम बैठती क्यों नहीं हो न्याय की देवी!
मैं देख रहा हूँ तुम्हारे हाथ में थमा हुआ तराजू
तुम्हें पीड़ा पहुँचा रहा है
तुम्हारे चेहरे पर स्पष्ट झलकती है थकन
फिर भी तुम बैठना क्यों नहीं चाहती
आखिर क्या विवशता है

इस देश का हर संवेदनशील आदमी
यहाँ रहते हुए शर्मिंदा होने को विवश है
आखिर तुम क्यों नहीं शर्मिदा हो पा रही हो

माना कि तुम्हारी आँख पर बाँध दी गई है पट्टी
लेकिन तुम्हारे कान तो खुले हुए हैं
जिनमें हत्या, बलात्कार और आगजनी से पीड़ितों की चीखें
कराहें और सिसकियाँ तो पड़ती होंगी
याकि तुम भी यह मान चुकी हो कि यह सब होने के लिए है

न्याय की देवी!
गाँधारी ने भी बाँध ली थी पट्टी
अंधे पति की विवशता से घबराकर
या अपने पुत्रों के अन्याय से आँख बचाने हेतु
जिन पर इतनी ममता थी गाँधारी को
कि अन्याय के प्रतीक पुत्र को वज्र-सी काया दे दी


लोग तुम्हें एक औरत की तरह संवेदनशील मानते हैं
और तुम मुट्ठी भर लोगों के हाथ का खिलौना हो
यह किसकी त्रासदी है

इस सदी के बीतने से पहले ही ओरत ने
अपनी मुक्‌ति की घोषणा कर दी है
वह उन विशेषणों को नोच कर फेंक रही है
जो उसके स्त्रीपन को हरने के औजार थे
उसने यह सच मान लिया
कि सृजन से पहले
अभी बहुत कुछ ध्वस्त करना ज़रूरी है
लेकिन तुम इतनी जड़ हो चुकी हो कि अपनी आँख की
पट्टी तक खोलने को अशक्त हो

क्या तुम देखना नहीं चाहती हो न्याय की देवी!
कि न्यायमूर्ति से लेकर सिपाही तक
हर तरह का जरायमपेशा फ़र्ज़ के नाम पर करते जा रहे हैं
वे जनाते हैं कि कौन डाकू है
किसने किया बलात्कार और कौन जेब काट रहा है सरेआम
वे सबकुछ देख रहे हैं
कौन किसकी हत्या कर रहा है
और कौन रास्ता बताने के नाम पर आँखों में धूल झोंक रहा है
तुम्हारी तरह उनकी आँखों पर पट्टी नहीं बँधी है
बल्कि कइयों ने पावर के चश्मे तक लगा रखे हैं
फिर भी वे तुम्हारे अंधेपन का सहारा लेकर
सबूत जुटाने का ढोंग कर रहे हैं

क्या मतलब है!
उनके सबकुछ जानते हुए अनजान बने रहने का
और तुम्हारा आँख पर पट्टी बाँधे खड़ी रहने का

वे भी सबकुछ जानते थे
जिन्होंने यह संविधान बनाया जिसकी ओट में तुम खड़ी हो
कि अस्सी फ़ीसदी हिन्दुस्तान बड़ा गरीब देश है
और उसके पास रोटी, रोशनी और रिहायश नहीं है
जिसे पाने में बीस फ़ीसदी हिन्दुस्तान बाधा की तरह
खड़ा रहेगा उसके सामने
अब न्याय और आदमियत का यही तकाज़ा है कि
बीस हिन्दुस्तान का अस्तित्व मिटा दिया जाय
निकाल दिया जाय जैसे कैंसरग्रस्त हिस्सों को निकाला जाता है शरीर से
ताकि एक पूरा हिन्दुस्तान बन सके

लेकिन उन्होंने अस्सी फ़ीसदी हिन्दुस्तान को
कुत्ता बनाकर रखने के कायदे रचे
ऐसे बंदोबस्त किए कि अस्सी फीसदी हिन्दुस्तान
की रीढ़ दुहरी रहे हमेशा
और बीस फ़ीसदी की ख़ुशहाली के पौधे लगाये उन्होंने
उन्होंने बीस फीसदी लोगों को अधिकार दिया कि वे
अस्सी फ़ीसदी हिन्दुस्तान पर गोलियाँ चला सकते हैं
उन्होंने ही तुम्हारी आँख पर पट्टी बाँधकर
बीस फ़ीसदी हिन्दुस्तान की सेवा में सौंप दिया था

न्याय की देवी!
स्त्रियाँ अब जाग रही हैं
मुक्ति के गीतों में सुरे-बेसुरे ढंग से शामिल हो रही हैं वें
जान गई हैं वें कि
सृजन से पहले बहुत कुछ ध्वस्त करना है ज़रूरी
कि सुरों की तराश से ज्यादा ज़रूरी है गले की ताक़त
दिलों का दर्द, नारों की समझ
और उठने, चलने की बेचैनी
तब तुम्हारी ओर निगाहें उठना स्वभाविक है

न्याय की देवी!
कुछ कहना पड़ेगा तुम्हें अब
वरना दो स्तनों और एक योनि लेकर पैदा हुई
जीवन भर लुटेरों और आदमखोरों के हाथों प्रताड़ित
स्त्री के नाम पर कलंक मानी जाओगी तुम।

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11 कविताप्रेमियों का कहना है :

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

माना कि तुम्हारी आँख पर बाँध दी गई है पट्टी
लेकिन तुम्हारे कान तो खुले हुए हैं
जिनमें हत्या, बलात्कार और आगजनी से पीड़ितों की चीखें
कराहें और सिसकियाँ तो पड़ती होंगी
याकि तुम भी यह मान चुकी हो कि यह सब होने के लिए है

bahut badhiya baat kahi aapne kavita ke madhaym se nyay pranali par prhaar kiya aapne..bahut sahi sahi baat kahi..sundar kavita..badhayi..

Akhilesh का कहना है कि -

ram jee sahab

mei aap ke prasanko mei hoon , aapki kuch kavitaye to mujhe ati priya hai.

yeh kavita yathrath hai par mujhe isme pathniyta kam jaan padti hai halaki yeh comment dene se pahle do baar puri kavita padi.
ya phir ye ho sakta hai ki hum logo ne hi aap se ummede jayada kerte ho.

राकेश कौशिक का कहना है कि -

विषय अच्छा है, "न्याय की देवी"
लेकिन ऐसा लगता है न्याय की देवी आगे चलकर अपना रास्ता भटक जाती है
"वे भी सबकुछ जानते थे
......
बीस फ़ीसदी हिन्दुस्तान की सेवा में सौंप दिया था"
फिर से वो सही रास्ते पर आती है लेकिन बहुत देर बाद
न्याय की देवी!
.....
स्त्री के नाम पर कलंक मानी जाओगी तुम।
कुल मिलाकर कह सकता हूँ की कविता ठीक है.
"वे भी सबकुछ जानते थे
......
बीस फ़ीसदी हिन्दुस्तान की सेवा में सौंप दिया था"
दो पैराग्राफ नहीं होते तो और अच्छी लगती.

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

अच्छा बिषय है , लेकिन कविता बड़ी हुयी है , लेख बन गयी है |

अवनीश तिवारी

Anonymous का कहना है कि -

वह उन विशेषणों को नोच कर फेंक रही है
जो उसके स्त्रीपन को हरने के औजार थे
बेहद भाव पूर्ण सशक्त रचना....यथार्थ को उजागर करती हुई...क्या कभी न्याय की देवी आंखों की पट्टी खोलेगी ? नहीं ! क्योंकि उसके हाथ में न्याय का तराजू देकर पट्टी बांधने की साजिश करने वाला भी यही तथाकथित समाज है। आखिर न्यायालय के आंगन में न्याय की देवी ही क्यों खडी की गयीं ? न्याय के देवता क्यों नहीं खडे किये गये ? ताकि लूट खसोटने के बाद ईज्जत की डर से चुप रहने पर उसे देवी का दर्जा भी दे दिया जाय। बिल्कुल धरती माता की तरह उसका शो्षण भी करें और मां का दर्जा भी दें। राम जी बहुत-बहुत बधाई!

दिवाकर मणि का कहना है कि -

भयावह, वीभत्स, जुगुप्साजन्य किन्तु सत्यपरक दृश्य का खाका रखा है, आपने इस रचना में। कुछ ऐसे ही हालात तत्कालीन समाज में भी रहे होंगे जब शूद्रक ने मृच्छकटिकम्‌ की रचना की थी, जिसका निरूपण वे इस नाटक में कई सारे श्लोकों में करते हैं।

Anonymous का कहना है कि -

लेखक को लगा कि कविता लम्बी और उबाऊ हो रही है प्रतिशत में उलझ गणित का सवाल होती जा रही है
तो अंत तक आते आते अशोभनीय शब्दों का प्रयोग कर वजन बढ़ने की कौशिश की साथ ही आलोचकों को
प्रगतिहीन और अयथार्थवादी घोषित करने की गुंजाईश भी रखली
सच यह है कि यह कविता न होकर चौराहे की तकरीर है

रश्मि प्रभा... का कहना है कि -

लोग तुम्हें एक औरत की तरह संवेदनशील मानते हैं
और तुम मुट्ठी भर लोगों के हाथ का खिलौना हो
यह किसकी त्रासदी है........
इस प्रश्न में ही उत्तर है , बहुत ही सार्थक विषय का चयन है........
मौन न्याय !

निर्मला कपिला का कहना है कि -

निस्संदेह कविता का विषय बहुत अच्छा था मगर अन्त कुछ अधूरा सा लगा। फिर भीच्छी कोशिश है यादव जी को बधाई

खोरेन्द्र का कहना है कि -

man ko chhu gayii yah kavita
bahut khub

अभिन्न का कहना है कि -

कविता का शीर्षक ओर विषय वस्तु निश्चित रूप से विचारणीय है लेकिन कवी ने इसके माध्यम से भडाश निकलने का प्रयत्न ज्यादा किया लगता है शुरुआत की पंक्तिया प्रभावशाली बन पड़ी है लेकिन अंत तक आते आते बेहद फूहड़ ओर न्यायकि देवी के कलेवर पर दोषारोपण के सिवाय कुछ नहीं लगती

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