प्रस्तुत कविता सितम्बर माह की प्रतियोगिता से प्रकाशन के लिए चुनी गई 15 कविताओं में से अंतिम है। इसके रचनकार राजाभाई कौशिक का जन्म 6 नवम्बर, 1973 को सालासर की पुण्यभुमि पर हुआ। बचपन से युवावस्था देशनोक में प्रारम्भिक पढ़ाई-लिखाई के बाद स्नातक के लिये अजमेर डीएवी कोलेज में प्रवेश लिया। रोगी सेवा की भावना से आयुर्वेद अपनाये और सुयस प्राप्त किया। विचारों की उथल-पुथल स्रवण सामर्थ ने इनके मानस पटल के किसी कोने में एक कवि को जन्म दिया पर समयाभाव में पूरा पोषण नहीं हो पाया। फिर भी साहित्य सेवा में अनेकों कविताएं, लेख, व्यंग लिख कर वाहवाही बटोरी, सौभाग्य से चित्रकारी भी मनभावन है। छोटे-छोटे अनेकों पुरुस्कार प्राप्त किये। हाल में राजस्थान प्रांत के चूरु में निवास कर रहे हैं।
पुरस्कृत कविता- तब जाकर कहीं...........एक
हवा का बल खाकर चलना, इतराना, उठना
रेत छान लहरें बनाना, खर पतवार को छुपाना।
यूँ ही नहीं था... उसका बादल लेकर आना
चमकना, गरजना, हरषाना और डराना॥
तपती रेत पर बूँद का, धार का, परनाल का
तल छूने की चाह में गिरना, बह जाना
यूँ ही नहीं था... उसका उंगलियों के नाप में समा जाना
भीनी भीनी सौंधी सौंधी सुगन्ध और महकना
स्वेद मोतियों के बाने में उजड़े घर का वासी तपता
मुट्ठी से एक एक दाना छोड़ धरती की माँग भरता
यूँ ही नहीं था... आसमान में टाँगूं ऐसी आशा
थार के एक छोर से चलना, मुड़ना और चलते जाना
फूट कर निकला जो हरित पट पहन
देते हुए आभास लक्ष्य के समीप का
यूँ ही नहीं था... अंत उस बीज के परिणाम का
उसका बढ़ना, कटना, छिलना और पिसना
कंगनों की खनक बीच, अंजली भर सींच
दोनों हथेलियों की थपथपाहट पाना
यूँ ही नहीं था... तप्त तवे पर पसर जाना
तब जाकर कहीं एक ... रोटी बनी; और लो ना
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुंदर। धरती के तयार होने से रोटी तक की गाथा को कितने सुंदर सरल शब्दं मे प्रस्तुत किया है ।
खूबसूरत शब्दों का जाल और विचारों का बेहतरीन तालमेल कविता को मधुरता प्रदान करती है.. रोटी बनाने की गाथा एक कविता में अत्यन्त सुंदर लगी...बहुत बढ़िया कविता..बधाई
vah bhut anutha pryog .
bahut achhi kavita
badhai
यूँ ही नहीं था... उसका बादल लेकर आना
चमकना, गरजना, हरषाना और डराना॥
भई गज़ब है ! आप यहाँ क्या कर रहे हैं ? आप को कहीँ उपर होना चहिये था !!
सुन्दर शब्द संयोजन कौशिक जी को बधाई
अपने आप में सबसे अलग एक अनूठी रचना. नए प्रकार की कविता. खुबसूरत प्रयोग. बहुत बहुत बधाई.
aap ki kavita mein kahani kahne ki chamta hai.
sunder sabyojna, silp katya aur sabse uper ik naye tarah se baat kahne ki koshish.
bharatvasi ji drishtta ke liye agrim kshma yachna..15th purskar is kavita ke liye!!? aapke nirnay se kabhi bhi sahmat nahin hua ja sakta.."yoon hi nahi tha ...tapt tawe par pasar jana".. YE VISHAW STAR KI RACHNA NAHIN KAVITA HAI, ..abhi tak ki is internet yatra mein kuchh ratan mile unme se yeh ek hai.. wah! rajsthan! VIJAYDAN DETHA KI DHARTI se RAJA BHAI KOUSHIK ka pragat hona koi aschry bhi nahi..mujhe to inki kavita pad kar pablo neruda ki pankti yad aa gai "kuchh bhi to nahin duniya mein roti jaisa" halanki vahan sandarbh doosra hai..WAH! ye kavita main teen bar pad chuka hoon..abhi aur kitni bar padoonga maloom nahin.. fir bhi pyas mitegi ya nahin kah nahin sakta ..apne faisle par punarvichar kijiye.KOUSHIK JI KO MERI TARAF SE BAHUT BAHUT BAHUT BADAI...
तब जाकर कहीं एक ... रोटी बनी; और लो ना
ARE VAH! KYA BAT HAI KOUSHIK JI
AAJ TO YARO NASHA CHHA GYA HAI .. KISI KE PAS KOI TOD HAI TO BATAO!
bahut aanand aaya apdh ke bahut sunder likha hai man mohit hogaya
saader
rachana
jadoo hai jadoo in panktiyon mein .. jitni bar pado har bar arthon ki nai chhtayein..I don't know about your other poems but this one has become my SABSE PRIY KAVITA..
आप सभी को धन्यवाद !
मेरे मन में उत्साह ओर कलम मे बधाईयों की चमकीली स्याही भरने का आभार !!
कंगनों की खनक बीच, अंजली भर सींच
दोनों हथेलियों की थपथपाहट पाना
यूँ ही नहीं था... तप्त तवे पर पसर जाना
बस यही कहूँगा कि यह कविता इससे भी बहुत आगे जाती है..हमारी भूख से आगे, सोच से आगे....गरम-गरम, तवे पे आराम से पसरी रोटी की मिठास ही नही उसका संघर्ष और जिजीविषा भी इस कविता मे स्वर बन कर उभरती है..
भूख बढ़ गयी है...और अपक्षाएं भी बढ़ गयी हैं आपसे राजा जी..
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