हरेप्रकाश उपाध्याय का ज़िक्र आज के उन कवियों में होता हैं जिनकी कविताओं में समय अपने समस्त हाहाकार के साथ खुद को दर्ज़ करता है। हमने कुछ महीने पहले इनकी बहुत सी कविताओं से आपको रूबरू करवाया था। आज हम इनकी जिन कविताओं का ज़िक्र कर रहे हैं, उनमें बुराई या यूँ कहें कि तथाकथित बुराई अपनी पूरी नग्नता के साथ सजीव है। जहाँ 'क्या आप एक ऐसी स्त्री को जानते हैं' मध्यमवर्गीय शादीशुदा महिलाओं के परिवारों के बाहर की ज़िंदगियों और संबंधों की परत उघाड़ती है। उसे और समझने की कोशिश करती दीखती है; ऐसी स्त्रियों के सच को बुराई और अच्छाई के तराज़ू पर तौलती भी है। वहीं 'बुराई के पक्ष' दुनिया में बुराई के नाम से मशहूर चीज़ों के पक्ष में तर्क पेश करती है।
'क्या आप एक ऐसी स्त्री को जानते हैं'
हरे प्रकाश उपाध्याय की अन्य कविताएँ
हम प्रेम नहीं करतेयानी हमारी भावनाएँ आत्मघाती नहीं हैं
उम्र में मुझसे वह थोड़ी सी ज़्यादा ही बड़ी है
और मैं बच्चों-सी विनम्रता से पेश आता हूँ
बच्चों-सी मेरी ज़िद पर वह माँ-सी मोहब्बत करती है
मेरा यक़ीन है
उससे दोस्तों जैसा बोलूँ तो ख़ुश ही होगी वह
वह थोड़ा और खुलेगी शायद
बुरा तो नहीं ही मानेगी
आख़िर उसके एकान्त का साथी हूँ मैं
लेकिन पता नहीं क्यों बड़ों की तरह ही देता हूँ आदर
पाँव उसके बड़े सुंदर हैं उसके चेहरे से ज़्यादा
कितना अच्छा होता पाँवों के भी आईने होते
तो मैं आईना होता
और उतारता उसके पाँवों के अक्स अपनी आत्मा में
कभी-कभी सोचता हूँ तो लगता है
उसके प्रति मेरी यह जो विनम्रता है
कहीं उसे चिढ़ाती तो नहीं होगी
पर अपनी इस आदत का क्या करूँ
क्या करूँ आख़िर इसका मैं
मैं कभी-कभी उसे छूना चाहता हूँ
फूलों की तरह नहीं, तकिये की तरह
कैसे दबाकर रख लेते हैं गोद में वैसे
उसकी त्वचा पर अपनी त्वचा फेरना चाहता हूँ
मिले रोम-रोम पसीना जैसे पानी में पानी मिलता है
उसके होठों को अपने होठों से
अपने हो...ठों से हल्के छू लेना चाहता हूँ
पर वह क्या चाहती है
क्या वह भी चाहती है?
कैसा भी मौसम हो कैसी भी हवा
उसके भीतर अपने गीत हैं अपना चाँद अपना सूरज
हमारी सारी मुलाक़ातें
एकान्त की वे रातें सब उसके सूरज-चाँद की मोहताज रही हैं
देह के माधुर्य की वे सारी चर्चाएँ उसके मौसम की उपज हैं
मुझे चिढ़ है और ख़ूब आश्चर्य
कि वह इतनी अपनी धूप, अपनी नमी और हवाएँ
कैसे बना लेती है
उसे इस प्रकृति के समानान्तर अपनी प्रकृति की ज़रूरत ही क्यों है
वह क्या चाहती है
आख़िर उसकी और मेरी रुचियों और ज़रूरतों की तमाम भिन्नताओं के बावजूद
वह क्या है कि हमारा केन्द्र एक हो रहा है
आख़िर वह क्या है जो मुझे बेईमान बनाता है
अपनी कक्षा में छोड़कर उन तमाम हमउम्र और चुलबुली लड़कियों को
मैं इस मैदान में जो बीहड़ जैसा है क्यों आया हूँ
वह कैसी स्त्री है
जिसकी चुनरी पर छपी परछाइयों को चाँद की तरह विभोर निहार रहा हूँ
वह मुझे क्यों खेंचे है
क्या उधार है उसका मेरे पास
क्या पाना है मुझे उसके पास
उसे उसके घोड़े जैसे पति का प्यार नहीं मिला
कभी वह यों ही कह देती है
और उदास सी हो जाती है
उसकी उदासी में इतना चटख रंग क्यों है खू़न जैसा
वह अपने पति से मिलने की तमाम रातों के बाद
मुझे फोन करती है
और जो मैं उससे चिढ़ा-चिढ़ा बैठा रहता हूँ
क्यों काँप जाते हैं मेरे पैर घनघोर शराबी की तरह
ओल्ड माँक का अद्धा चढ़ाकर सोचता हूँ
शशि जिन्हें कहते हैं विषकन्याएँ
क्या वे भी ऐसी ही होती हैं
ऐसी औरत से आप प्रेम नहीं कर सकते तो क्या
क्या घृणा कर सकते हैं?
यदि प्रेम और घृणा दोनों नहीं कर सकते
तो क्या कर सकते हैं
क्या वही जो मैं कर रहा हूँ इन दिनों
क्या आप एक ऐसी स्त्री को जानते हैं?
'बुराई के पक्ष में'
कृपया बुरा न मानें
इसे बुरे समय का प्रभाव तो क़तई नहीं
दरअसल यह शाश्वत हक़ीक़त है
कि काम नहीं आई
बुरे वक्त में अच्छाइयाँ
धरे रह गये नीति-वचन उपदेश
सारी अच्छी चीज़ें पड़ गयीं ओछी
ईमानदारी की बात यह कि बुरी चीज़ें
बुरे लोग, बुरी बातें और बुरे दोस्तों ने बचाईं जान अक़सर
उँगली थामकर उठाया साहस दिया
अच्छी चीज़ों और अच्छे लोगों और अच्छे रास्तों ने बुरे समय में
अक़सर साथ छोड़ दिया
बचपन से ही
काम आती रही बुराइयाँ
बुरी माँओं ने पिलाया हमें अपना दूध
थोड़ा-बहुत अपने बच्चों से चुराकर
बुरे मर्दों ने खरीदी हमारे लिए अच्छी कमीज़ें
मेले-हाटों के लिए दिया जेब-ख़र्च
गली के हरामज़ादे कहे गए वे छोकरे
जिन्होंने बात-बात पर गाली-गलौज़
और मारपीट से ही किया हमारा स्वागत
उन्होंने भगाया हमारे भीतर का लिज़लिज़ापन
और किया बाहर से दृढ़
हमें नपुंसक होने से बचाया
बददिमाग़ और बुरे माने गये साथियों ने
सिखाया लड़ना और अड़ना
बुरे लोगों ने पढ़ाया
ज़िन्दगी का व्यावहारिक पाठ
जो हर चक्रव्यूह में आया काम हमारे
हमारी परेशानियों ने
किया संगठित हमें
सच ने नहीं, झूठ ने दिया संबल
जब थक गए पाँव
झूठ बोलकर हमने माँगी मदद जो मिली
झूठे कहलाए बाद में
झूठ ने किया पहले काम आसान
आत्महत्या से बचाया हमें उन छोरियों के प्रेम ने
जो बुरी मानी गईं अक़सर
हमारे समाज ने बदचलन कहा जिन्हें
बुरी स्त्रियों और सबसे सतही मुंबईया फ़िल्मों ने
सिखाया करना प्रेम
बुरे गुरुओं ने सिखाया
लिखना सच्चे प्रेम-पत्र
दो कौड़ी के लेमनचूस के लालच में पड़ जाने वाले लौंडों ने
पहुँचाया उन प्रेम-पत्रों को
सही मुक़ाम तक
जब परेशानी, अभाव, भागमभाग
और बदबूदार पसीने ने घेरा हमें
छोड़ दिया गोरी चमड़ी वाली उन ख़ुशबूदार प्रेमिकाओं ने साथ
बुरी औरतों ने थामा ऐसे वक़्त में हाथ
हमें अराजक और कुंठित होने से बचाया
हमारी कामनाओं को किया तृप्त
बुरी शराब ने साथ दिया बुरे दिनों में
उबारा हमें घोर अवसाद से
स्वाभिमान और हिम्मत की शमा जलायी
हमारे भीतर के अँधेरों में
दो कौड़ी की बीड़ियों को फूँकते हुए
चढ़े हम पहाड़ जैसे जीवन की ऊँचाई
गंदे नालों और नदियों का पानी का आया वक़्त पर
बोतलों में बंद महँगे मिनरल वाटर नहीं
भूख से तड़पते लोगों के काम आए
बुरे भोजन
कूड़े पर सड़ते फल और सब्जियाँ
सबसे सस्ते गाजर और टमाटर
हमारे एकाकीपन को दूर किया
बैठे-ठाले लोगों ने
गपोड़ियों ने बचाया संवाद और हास्य
निरंतर आत्मकेंद्रित और नीरस होती दुनिया में
और जल्दी ही भुला देने के इस दौर में
मुझे मेरी बुराइयों को लेकर ही
शिद्दत से याद करते हैं उस क़स्बे के लोग
जहां से भागकर आया हूँ दिल्ली!
(इसे भड़ास ने सर्वश्रेष्ठ भड़ासी कविता माना है)
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
इन आइनों की चमक कुछ तीखी है । देखेंगे छुप के हम भी रात के अंधेरे में-----
--देवेन्द्र पाण्डेय।
अच्छी कविता है हरेप्रकाश जी बधाई
hnm.......
हरे प्रकाश की स्त्री ...बहुत खूबसूरत कविता !!
hnm.....
sunder likhaa hai..
दोनों ही कवितायें गहराई लिये हुए हैं,
बहुत ही बढिया
ऐसी भड़ास वाली दोनों कविता .को पहली बार पढा .भाव सौंदर्य पक्ष लगा. आभार .
पहली कविता में यह पंक्तियाँ अच्छी लगी. कविता अच्छी है लेकिन कहीं भी तुकबंदी न होने के कारण पढना बोझिल लगा. अगर ज्यादा नहीं तो थोडा बहुत कहीं कहीं काफिया होना चाहिए था.
हम प्रेम नहीं करते
यानी हमारी भावनाएँ आत्मघाती नहीं हैं
उम्र में मुझसे वह थोड़ी सी ज़्यादा ही बड़ी है
और मैं बच्चों-सी विनम्रता से पेश आता हूँ
बच्चों-सी मेरी ज़िद पर वह माँ-सी मोहब्बत करती है
मुझे लगता है दूसरी कविता में भी वही कमी और वही खूबी है जो पहली में थी. आपकी दूसरी कविता को पढ़कर साहिर लुध्यानवी का एक शेअर ध्यान आ रहा है.
झूठ तो कातिल ठहरा इसका क्या रोना
सच ने भी तो इन्सां का खून बहाया है.
कृपया बुरा न मानें
इसे बुरे समय का प्रभाव तो क़तई नहीं
दरअसल यह शाश्वत हक़ीक़त है
कि काम नहीं आई
बुरे वक्त में अच्छाइयाँ
धरे रह गये नीति-वचन उपदेश
सारी अच्छी चीज़ें पड़ गयीं ओछी
ईमानदारी की बात यह कि बुरी चीज़ें
बुरे लोग, बुरी बातें और बुरे दोस्तों ने बचाईं जान अक़सर
उँगली थामकर उठाया साहस दिया
अच्छी चीज़ों और अच्छे लोगों और अच्छे रास्तों ने बुरे समय में
अक़सर साथ छोड़ दिया
dono kavitaye apne aap me sach ko sweekarti hai jis sach ko ak aadme apni juban par nhi lata .
achha pryog.
बहुत ही बेहतरीन लिखा, बधाई ।
KYA KHUB LIKHA HAI HAREPRAKASH NE, BURE WAQT ME WAKAI ACHHE LOG HAMARA DAMAN CHHOR JATE HAIN. UNHONE NE JIS STREE KA JIKR KIYA, WAKAI WAH AAJ KE SAMAJ KI JWALANT SACHCHAI HAI. HIND YUGM KO UNKI ITNI ACHHI KAVITAYEN PADHWANE KE LIYE SHUKRIYA.
हरे काश उपाध्याय की कवितायेँ स्त्री की संवेदनाओं को उसकी सम्पूर्णता में देखने का कौशल पूर्ण प्रयास है.बधाई m-o9818032913
मान्यवर,हरे प्रकाश उपाध्याय जी .आज मैंने आप की कविताओं को पुनः पढ़ा और उसी क्रम में अपनी पुरानी टिप्पडी देखी आप का नाम गलत टाइप पाया तकलीफ हुई.टाइप करना अभी ढंग से नहीं आता है.क्षमा कीजिये मैं वही टिप्पडी फिर से लिख रहा हूँ.पहलेवाली हटा दीजिये.
हरे प्रकाश उपाध्याय की कवितायें स्त्री की संवेदनाओं को उसकी सम्पूर्णता में देखने का कौशलपूर्ण प्रयास है.बधाई.
behtarin kavitayen. badhai
HAREPRAKASH KI DONO KAVITAYEN AAJ KE SAMAY KA YATARTH HAI. KAVITAYEN DIL KO CHHOO JAATI HAIN.
BADI TAZGI BHARI KAVITAYEIN HAIN. 'BURAI KE PAKSH MEIN' KAVITA MEIN SAMAAJ KO APNI ASLI SOORAT DEKHNE KA EK ADBHUT AAYINA DIYA HAI HARE PRAKASH JI NE. IS AAGRAH KE SAATH KI VE AAGE BHI AISI LEEK SE HATKAR KUCH DEKHNE PARAKHNE KI DRISHTI HAMEIN DETE RAHENGE, HARE PRAKASH JI KO MERI BADHAYIYAN. Umesh Chauhan, Thiruvananthapuram
हरे प्रकाश जी को पहली बार पढा है। बेहतरीन रचनायें हैं धन्यवाद्
अच्छा प्रयास और करारा प्रहार,पढकर है शुक्रगुजार।ओ.पी.यादव
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