रंगीन ग्राफ़-चार्ट्स में, पाँच-सितारा मीटिंगों में
तलाशते हैं कार्पोरेट हाउस
विद्वत्ता-पुते मुखों से टपकते बृह्म-वाक्यों मे,
सालाना आँकड़ों मे
जिसे सूँघता है मीडिया
महँगी सरकारी बहसों मे
खोजती है संसद
हर प्रगतिशील, समाजवादी, पूँजीपति, बुद्धिजीवी
को तलाश है जिस की
वह
इक्कीसवीं सदी का भविष्य
जा छुपा है
नौ साल की उस मासूम बच्ची के सर पर रखी
मिट्टी की रिसती गागर में
जिसे भर कर ला रही है वह
तीन कोस दूर के उस जोहड़ से
जो इस इलाके का अकेला जलस्रोत है
और जिसका अधीरता से इंतजार करती हैं
कुछ जोड़ी
अधेड़-बूढ़ी प्यास से सूखी आँखें
बुझा-बुझा सा चूल्हा
कमजोर सी बकरी,
मुरझाया तुलसी का बिरवा
कड़ी धूप मे
रूखे-उलझे बालों मे बँधी
अधखुली बाँयी चोटी के चीकट लाल रिबन से
बूँद-बूँद टपकता बचपन
किसी टीवी स्क्रीन को नही भिगोता है
बाँयीं हँथेली की आड़ से
आँखो मे चुभती गुस्सैल धूप, उड़ती धूल से लड़ते हुए
दाँये अनपढ़ हाथ से थमी गागर की थरथराहट
किसी ग्राफ़-चार्ट मे दर्ज नही हो पाती
और
किसी सरकारी बहस का हिस्सा नही बन पाती है
सूखे ऊबड़-खाबड़ रास्ते के
बेदर्द पत्थरों से लड़ते
नन्हे पाँवों की थकान
इन कच्चे-अनपढ़ हाथों मे थमी
रिसते बचपन की गागर से
छलकता इक्कीसवीं सदी का भविष्य
सूखे रास्ते की धूप-धूल-पत्थरों को पार कर
क्या पहुँच पायेगा अपने घर तक
और क्या बुझा पायेगा
प्यासे अधेड़ वर्तमान की प्यास
इक्कीसवीं सदी का यह सबसे बड़ा सवाल है
जिसका जवाब
न तो कार्पोरेट हाउसों के ग्राफ़-चार्ट्स को पता है
जो न ही मीडिया के सालाना आँकड़ों मे मिलता है
और जिसके जवाब में चुप हैं
संसद की मँहगी सरकारी बहसें
और हम !
अपूर्व शुक्ल
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
अपूर्व जी कितने बेहतरीन ढंग से आपने भारत के भविष्य की तस्वीर उकेरी है आज कल जो चल रहा है वो बिल्कुल आपकी कविता के पास से गुजरता है एक एक शब्द में सच्चाई है जहाँ एक वर्ग महलों और ए. सी. में आनंद ले रहे है वही इसी समाज का एक वर्ग मेहनत और मज़दूरी के जुगाड़ में अपनी सुबह खो देता है और फिर दिन का पता नही चलता की कब रात हुई जो जीना तो चाहता है पर एक अच्छे ढंग से जी नही पाता..यही आईना है अपने इक्कीसवी सदी का ...बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति...बहुत बहुत धन्यवाद
अच्छा और सच्चा सवाल - प्यासे वर्तमान की प्यास, सच्चाई को उजागर करती सुंदर रचना - अपूर्व जी को बधाई और शुभकामनाएं
इक्कीसवी सदी का ...
एक कडवा सच....
जिसको हम सभी मानते नहीं
हम लोगो ने बहुत बड़ा अंतर पैदा कर दिया है
अपने दिमाग में
बहुत ही नायाब कविता है
कड़ी धूप मे
रूखे-उलझे बालों मे बँधी
अधखुली बाँयी चोटी के चीकट लाल रिबन से
बूँद-बूँद टपकता बचपन
उलझा दिया आपकी भावनाओं ने उस बच्ची के उलझे और चिकट बालों में...हां यही तो सच्चाई है जिसे अनदेखा किए हैं हम सब...बहुत ही सुंदर सार्थक चित्रण के लिए अपूर्व जी आप्को बहुत-बहुत बधाई !
अपूर्व
आपकी यह दूसरी कविता है जो मेरे हाथ लगी है. कविताओ के बीच काफी वर्ष गुजारने के बाद यह मैं कह सकता हूँ की आप नए कवियों में बेहद प्रतिभाशाली हस्ताक्षर है. अपनी रचनात्मकता को चमकाते रहे यही कामना है
मनीष मिश्र
२१वीं सदी का भविष्य और हम
न किसी उजाले में
न किसी अंधकार में
सङकों पर रेंगती जिंदगी
गिङगिङाता बचपन
टी वी में कैद बचपन
शून्य में भटकते कदम
अपूर्व जी कविता की गहराई में २१वीं सदी के भविष्य की खोल दी है पोल।
शानदार प्रस्तुति के लिए बधाई।
किशोर कुमार जैन गुवाहाटी असम.
रिसते बचपन की गागर से
छलकता इक्कीसवीं सदी का भविष्य
सूखे रास्ते की धूप-धूल-पत्थरों को पार कर
क्या पहुँच पायेगा अपने घर तक
और क्या बुझा पायेगा
प्यासे अधेड़ वर्तमान की प्यास
इक्कीसवीं सदी का यह सबसे बड़ा सवाल है
एक बहुत ही गंभीर रचना जिसके द्वारा सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों से उपजती विडंबनाओं को ढोती पात्रों की बेबसी और असहायता के साथ-साथ उनकी मानवीय दुर्बलताओं को भी रेखांकित किया गया है।
अति सुन्दर .,सामयिक , सार्थक , सरोकार युक्त कविता |
Ikeesavein sadhi ke liye badhaii. Aap ke kahne ka dhang bahut hridayagrahii hai...eki kram mein meri ek kavia kaa sheeshak bhi yahi hai....abhi post nahi kiya hai..dekhiyegaa. punah badhaii
hamesha ke tarah behtreen .
surru i teen line padne ke baad hi lag gaya ki apoorva ko padh raha hoon.
neech naam dekhker tassli bhi kar lee.
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