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Thursday, November 27, 2008

एक चित्र अनेक कवितायें







काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन




विषय - चित्र पर आधारित कवितायें

अंक - बीस

माह - नवम्बर २००८






एक चित्रकार चित्र बनाते या एक फोटोग्राफर फोटो खींचते हुए क्या सोचता है? उसी सोच को शब्दों में ढाल कर उसे कविता का रूप देना आसान नहीं होता। इस बार हमने आप सभी को काव्य-पल्लवन के लिये किसी विषय की जगह चित्र के आधार पर कविता लिखने के लिये आमंत्रित किया। ये अपने आप में एक अलग कदम था। हमें आपकी ओर से इस प्रयास के लिये सराहना मिली और २० से ऊपर कवितायें भी प्राप्त हुईं। आपका अपार स्नेह और सहयोग ही है जो हमें नये प्रयोग करने के लिये प्रेरित करता है और हमारा उत्साह दोगुना हो जाता है। हम आगे भी इसी तरह से प्रयोग करते रहेंगे। हमारी पूरी कोशिश रहेगी कि हम कवियों और पाठकों का पूरा ध्यान रखें।
मनु बंसल जी ने हमें इसी चित्र से मेल खाता हुआ चित्र भेजा है, जिसे हम उनकी कविता के साथ ही प्रकाशित कर रहे हैं।

आइये जानते हैं विभिन्न कवियों ने निम्न चित्र को काव्य रूप में किस प्रकार ढाला।



आपको हमारा यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतायें।

*** प्रतिभागी ***
| विनय.के.जोशी | सीमा स्मृति | नीलम मिश्रा | रचना श्रीवास्तव | शिरीन अब्बास | सी आर राजश्री | शीला सिंह | प्रदीप मनोरिया | आशा ढौंडियाल | ए.एम.शर्मा | मनु बंसल | पंखुड़ी कुमारी | दिनेश ’दर्द’सविता दत्ता | सुरिन्देर रत्ती | सोमेश्वर पांडेय | शामिख फ़राज़ | अनिरुद्ध सिंह चौहानमहेश कुमार वर्मा | बसंत लाल 'चमन' | सुनील कुमार ’सोनू’ |


~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~




चला गया मुझको ठुकरा कर
कौन रहा सदा अपना
भौर भये जैसे कोई
टूट गया मीठा सपना
.
खोटा सौदा बनी जिन्दगी
बिखर गए सच्चे आने
उखड़ी सांसे थाम खड़ी है
जिंदा मौत सिरहाने
.
तन के तीरथ कब के उजडे
मांस विहीन अस्थि पत्थर
उजड़ी आँखे साए तकती
कपाल बूझे यादो के नश्तर
.
खून के रिश्ते कब के रिस गए
टूट गए कच्चे धागे
एकाकी जीवन का बीहड़
पसरा है इसके आगे

--विनय.के.जोशी



सर्दी का अर्थ
गरम रजाई में
कविता करते शब्‍दों में नहीं ठिठुरता,
ए.सी. कमरों के बंद दरवाजों से नही झांकता ,
शरीरों की गर्मी से नहीं सिमटता,
सर्दी का अर्थ
भूखे पेट,
सूखे बदन,
बिना शाल,
बिना छप्‍पर ,
सुबह
शीत लहर से पांच की मृत्‍यु ,
अखबार के किसी कोने में
और
आईनें सी इन आंखों में,
अपने अर्थ प्रतिबिंबित करता है

--सीमा स्मृति



अहसास है न अहसान कोई ,
जिन्दगी धूप की तरह गुजरती गई ,
और चेहरे पर झुर्रियां साया बनकर उभरती रहीं
उम्र के इस पड़ाव पर अब कोई नही है साथ ,
पर उम्र तो गुजरती है ,गुजरती गई ,
वक्त चलता रहा मेरे पैरों के साथ
या यूँ कहे कि पैर चलते रहे मेरे वक्त के साथ ,
सुबह से शाम तक ,दिन से रात तक ,
जिन्दगी बढती और बढती रही
इन सूनी आँखों में देखा तो पाया ,
न कोई रहबर न साया ,
मगर उम्र तो उम्र है गुजरती गई ,गुजरती रही

--नीलम मिश्रा



बाबा क्यों बैठे हो उदास और हताश
दुनिया से या ज़िन्दगी से हो निराश
किसी से नही मै मौसम से हूँ बेजार
निगोड़े की वजह से ज़िन्दगी हो गई तार तार
जब चाहिए पानी बरसता ही नही
बरसता है तो फ़िर रुकता ही नही
सूखे और बाढ़ के कहर से
टूटी है कमर कुछ इस कदर
रस्सी बेचने निकला हूँ इधर
सुबह से हो गई शाम
बोहनी तक तो हुई नही
नायलोन के आगे
सन की रस्सी कोई खरीदता ही नही
बाबा दर्द तुम्हारा जानती हूँ
पर एक खुशी की बात बताती हूँ
हमने चंद्र यान भिजा है चाँद पे
भारत सब को बता रहा है शान से
चलो बढ़िया है
मुला इस से होगा क्या
क्या समय से पानी बरसेगा
भूख से कोई न तरसेगा
क्या हमरे बिटवा की होसकेगी पढ़ाई
बिटिया हमरी जायेगी ब्याही
बाबू की खासी को मिल सकेगा आराम
सब हाथों को मिल सकेगा काम
हमरी धन्नो की का होसकेगी दवाई
अम्मा को का देने लगेगा दिखाई
चुका पाएंगे क्या हम महाजन का क़र्ज़
कुकुर और हम में नही है कौनो फर्क
मेरे पास इन बातों का न था कोई जवाब
करा के उस की बोहनी
उठ गई वहां से चुप चाप

--रचना श्रीवास्तव



कांच का शीशा,
नाज़ुक दिलकश,
टूटे तो चुभ जाता है...
मेरे सपने भी कुछ ऐसे
---टूट गए
-- अब चुभते हैं!

--शिरीन अब्बास



जिंदगी भर की है मैंने मेहनत मजदूरी
परिवार की भी भरपूर निभाई है जिम्मेदारी
बुदापें में काम न कर सकने की लाचारी
फ़िर भी हिम्मत नही है मैंने हारी

जीवन अब लगता है सूना सूना
पता नही कितने दिन और ऐसे है जीना
पत्नी ने भी मुझसे अपना दामन छुडा लिया है
मेरे एक मात्र कुल दीपक अब तेरा ही तो सहारा है

माना की परदेस में सब कुछ मिलता है
पर मेरे लाल पैसा ही सब कुछ तो नही होता है
अब बहुत अकेला हो गया हूँ में यहाँ
तुम भी आ जावो अब यहाँ
क्यों की तुम भी तो अकेले हों वहां
ऐसा जीवन किस काम का,
माटी से दूर पराये लोगों का क्या भरोसा
बची कुची जिंदगी अब तेरे साथ गुजारना है
मेरे खातिर अब तुझे गाँव लौट कर आना है

--सी आर राजश्री



स्वप्न से जागा नहीं हूं
स्वप्न टूटे हैं मगर
राह से भागा नही हूं
राह छूटी है अगर
है कहां वे दिन सलोने
मै चला हूं किस डगर
आखे मेरी थक चुकी हैं
आस मे विश्वास में
फ़िर नई दुनिया सजेगी
फ़िर नया होगा सवेरा
रात आई है अगर तो
दिन भी आयेगा कभी
टकटकी सी लगी है
आज तेरी राह में
तू बदल देगा ज़माना
है मेरा विश्वास ये
मै हूं भारत देख मुझको
आ ज़रा तू पास में
मैं बुढ़ापा तू युवा है
चल ज़रा तू साथ में

--शीला सिंह



बूढी आशा
आशाओं से भरी निगाहें ,
मन कितना मजबूर है |
तन जर्जर सामर्थ्य नहीं है ,
दुःख ही दुःख का पूर है ||
सर्द रात तन रहे ठिठुरता ,
यह दरिद्र संजोग है |
हाथ में चिंदी असमंजस है ,
क्या इसका उपयोग है ||
चेहरे पर झुर्री का जाला ,
निर्धनता का नूर है .......

आशाओं से भरी निगाहें ,
मन कितना मजबूर है |
तीन पहर तो बीत चुके हैं ,
आई जीवन की सांझ है |
इनके लिए तो सुख की जननी ,
रही सदा ही बाँझ है ||
सुर सरगम मर्सिया हैं गाते ,
सुख खट्टे अंगूर है ........

आशाओं से भरी निगाहें ,
मन कितना मजबूर है |
शिशिर बसंत हेमंत शरद ,
ऋतू सब ही आनी जानी |
अर्ध वस्त्र और भोजन आधा,
जीवन की है यही कहानी ||
फ़िर भी जीवन जीते जाते ,
ईर्ष्या से रह दूर है ...........

आशाओं से भरी निगाहें ,
मन कितना मजबूर है |
दूर ये नज़रें देख रही हैं,
सुख की कुछ परछाईं हो |
भाग्य विधाता को भी
शायद याद हमारी आई हो ||
दुःख भोगें और सपने देखें
इसमे नही कुसूर है ....

आशाओं से भरी निगाहें ,
मन कितना मजबूर है |
तन जर्जर सामर्थ्य नहीं है ,
दुःख ही दुःख का पूर है ||

--प्रदीप मानोरिया



रीती आंखे सब देख रही,देह अबल सी लगती है
धैर्य नहीं छुटा लेकिन,अब मन को थकन सी लगती है
अपनों का साथ नहीं है अब रिश्तों मै तपन सी लगती है.....
मै देख रहा चुप चाप यहाँ ,जो भी विधना ने दिखलाया
अब तक तो हार नहीं मानी, सब सहता और लड़ता आया
देह भले ही चूक रही,नैनों मै तेज अभी भी है
जब तक है सांसो की डोरी, लड़ने की ओज जगी सी है
संघर्षो की कड़ी कसौटी से,कुंदन बन कर मै निकला हूँ
हालातों की इस अंधी में ,मै दीप-स्तम्भ सा दिखता हूँ ...
जीवन का सार है अनुभव है,हार नहीं मै मानुगा
कितने कंटक हो राहों में, मै सब मै रही बना लूँगा

--आशा ढौंडियाल



इस सांझ की बेला मैं क्या भूलू क्या याद करु
कौन पराया है यहाँ किसको मैं अपना कहूं

कुछ यादो के मोती अब मेरी स्म्रति का हिस्सा है
सुंदर खट्टी मीठी यादें अब पुराना किस्सा है

जीवन भर अपना पराया भेद मैं करता आया था
दुनिया मेरी मैं दुनिया का कुछ समझ ना पाया था

जात पात का भेद किया तब सोच बड़ा अभिमान किया
अतीत के पृष्टों को पलटा जब अपना ही अपमान किया

एकला चलो गाता था मैं ऐसा अलबेला हुँ
जीवन के इस मोड़ पर अब क्यूँ रहा अकेला हुँ

हाथ थाम चलना सीखा जो मैंने जिसे पढाया है
कहाँ गया वो हाथ अब जब मैंने हाथ बढाया है

गर बुद्धि तब देता दाता मैं भी कुछ अच्छा कर पाता
ऐक हाथ बढाता जो सैकडो बदले में पाता

तृप्त हुआ तन और मन दुनिया चलाचली का मेला है
शुक्र प्रभु का पूरण हुए कारज ये कैसी अद्भुत बेला है

सांझ को पंछी घर लौटेगा मैं भी प्रभु घर जाऊंगा
प्रातः वो दाना ढुंढेगा धन्य प्रभु मैं चिरनिद्रा को पाउँगा

--ए.एम.शर्मा




सूखी ठांठुर देह,
नयन में लिए अज़ब संताप,
किस सीता का ससुर है ये,
किस सरवन का है बाप .....!
पहन सभी कुछ ब्रांडेड,
बेटा यारों में इठलाता,
बूढा ठूँठ, उघाडा नंगा,
ठण्ड से ठिठरा जाता,
दुनिया दारी छोड़,
कहीं पड़ रहो, करो बस जाप |
किस सीता का ससुर है ये........!!!!
अपनों को कैसे धिक्कारे,
माढे ही हैं भाग हमारे,
ऊँच नीच सारे जीवन का,
पाप पुण्य संग बैठ विचारे,
समय नही है शेष,
जो कर पाऊँ अब पश्चात्ताप |
किस सीता का ससुर है ये........!!!!
सरबस लुटा दिया तब जागा,
किंकर्तव्यविमूढ़ अभागा,
'हाय' भी अपनी घोंट के बैठा,
कैसा निर्मम मोह का धागा,
जिसको हर पल आसीस दिए हों,
कैसे दे दूँ शाप |
किस सीता का ससुर है ये,
किस सरवन का है बाप.......!!!!

--मनु बंसल



मैं इंसान नही एक प्रतीक हूँ
मनुष्य के अनवरत इंतजार का |
मैं परिणाम हूँ मोह जाल में फंसे
झूठे रिश्ते और झूठे प्यार का ||
आँखें पथरा गयी जाने
किस - किस के इंतज़ार का में |
कभी इंसानों की महफ़िल में
कभी सामानों के बाजार में ||
वो इंतज़ार तो एक छलावा था
क्षितिज की तरह
अब जाकर ये भान हुआ |
गिर - गिरकर जब थक गया
जीवन ये
तब जाकर ये ज्ञान हुआ ||
पलभर बैठकर सोचता हूँ
पलटकर पीछे देखता हूँ जरा सा |
सब लगता है धुंधला सा
धुंधली थी सोच मंजिल भी धुंधला - सा||
हाड - मांस की जिस गठरी से
मोह का नाता जोड़ लिया |
आज देखो उसने भी हमसे
अपना मुख आख़िर मोड़ लिया ||
लड़ाई समझ वक्त से अपनी
लड़ता रहा जिंदगी भर |
जाने किस मकाम पाने को
तड़पता रहा जिंदगी भर ||
शायद ये समझ न पाया
किस कारण था ये जन्म हुआ |
ये अहसास भी अब हुआ
जब ये जीवन ख़त्म हुआ ||
अब अफ़सोस के लिए
न बचा है वक्त
बचे को भी न
चाहता नही गंवाना |
ख़ुद को धोखा कब
तक कोई दे
बंद कर दूँ अब
नियती और प्रकृति पे दोष लगाना ||
दिख रही है तो देख तू भी
मेरे माथे की ये लकीर |
गर ताकत होती उसमे तो
क्या ऐसी होती मेरी तक़दीर ||
बहलाने की बातें है
ये तकदीरें और लकीरें |
हमारी डोर है जिसके हाँथ
वो है इन सबसे परे ||
जिसे जानने को चाहिए
एक निश्छल मन |
और निष्काम भाव से
जिया एक जीवन ||
एक तस्वीर समझ भूल मत जाना
प्रतीक समझ मन में बिठाना |
समझ गए तो नैया पार
नही तो मेरी जगह तेरा भी होगा ठिकाना ||

--पंखुडी कुमारी



कौन सा सफर है ये,
किस मंज़र को देख कर हैरान हैं आँखें
ये किस मकाम पर आकर ठहर गए मेरे पैर
ना हासिल है कुछ, ना कोई और तलाश है,
ये तस्वीर देखकर तो लगता है
की बुढ़ापा शायद मुसलसल मौत का इंतज़ार है.

--दिनेश "दर्द"



सोच में निमग्न
हड्डियों के ढाँचे सी वस्त्रहीन देह
पथराई आँखें अभी भी
सपना देख रही हैं।
बाट जोह रही हैं कि शायद कोई....

आशा अभी भी निराश नहीं हुई
उम्र के इस पड़ाव में भी ।

ना जाने कौन मुझपर दया खा जाए
कोई आकर मुझे सँभाल ले
किसकी किस्मत में हैं मेरी दुआएँ
कि मैं कंगाल होते हुए भी
किसी बात का तो धनी हूँ

और कुछ नहीं तो मुझसे
आशीष तो लेते जाओ
मैं खाली हाथ हूँ तो क्या
तुम्हें खाली हाथ ना भेजूँगा।

--सविता दत्ता



इस ढलते जीवन की सांझ की बेला में
इश्वर कृपा के सहारे बैठा, मदन
कभी गगन तो, कभी धरा को तकता
खोपड़ी में धसी लखों चिन्ताओं की गोलियाँ
झरने की भाँती गिरते आंसू
अस्वस्थ जर जर शरीर
साहस की कमी खलती है
ग़रीबी के श्राप से पीड़ित
सुख-सुविधाओं से वंचित
फटी झोली में सुनहरे कल की आशा
और वर्तमान के शीशे पर
धूल ही धूल .....
सब कुछ फीका ..... धुन्धला .....और निराश
ख़ुद से बातें करता बड़बड़ाता मदन
मेरे जो आंसू बहे उनकी गिनती नहीं
हर त्रासदी को झेलता जीवन ख़तरे में
न कम होनेवाली लाइलाज पीड़ा
प्रश्नों के उधेड़बुन में फंसा
किसी अपराधी की भांति
सख्त दंडात्मक करवाई का शिकार
शरीर की दशा बहुत कुछ कहती है
फांके ही फांके, अन्न के दाने मोतियों से भी महंगे लगते,
रूक-रूक के आवागमन करते श्वास
जिव्हा से निकली आवाज़ कर्कश हो चली,
फटी बांसुरी की तरह,
आखों के गड्ढों में सुखी पुतलियाँ,
जैसे दीये में तेल की कमी,
शरीर हड्डीयों का ढांचा,
कंकाल को ढोने में असमर्थ,
चेहरे की अनगिनत झुर्रियों को देखो,
मकड़ी का जाल
क्या मैं बच पाऊंगा ?
भविष्य में होनेवाली घटनाओं का आभास
हो रहा है
मैं जब कभी भूले से
नदिया किनारेवाले मरघट के पास से गुज़रता हूँ
मुझे देख के वो पुकारता है
हंसता है, मुझे चिढ़ाता है,
इशारे से बुलाता है कभी-कभी
मदन आ जाओ, मदन आ जाओ
तुम्हारी सारी चिन्ताओं का समाधान मेरे पास है
आओ मेरी आगोश में समा जाओ
मदन ..... नहीं ..... नहीं .....
मेरे बच्चे ..... मेरी पत्नी ..... मेरा परिवार .....
मेरा घर ..... मेरे खेत ..... नहीं ..... नहीं ..... नहीं .....

--सुरिन्देर रत्ती



शहर में बेटा तू ,
खुश रहे आबाद रहे |
मुझ बूढे का क्या,
‘टाइम ही मनी है’ तो
क्यों कोई तेरा समय बर्बाद करे|
दुआ यही मेरी कि तेरा
अच्छा कारोबार रहे |
चिंता मत करना,
वैसे भी मैं यहाँ खुश हूँ !
सब और खुशहाली है !
चंद दिन और मेहमान बस,
फ़िर मुसीबत ये जाने वाली है |
मुझे पता है आयेगा जरूर,
मेरी राख को सिराने |
गिनेगा जमीन भी इसी बहाने |
वारिस होने का पूरा कर्तव्य निभाएगा,
सब-श्राद्ध आदि कर फ़िर कभी ‘तू’ गाँव नहीं आयेगा. . . . . . . . . नहीं आयेगा ||

--सोमेश्वर पांडेय



यह कैसा ग़म है यह कैसा ग़म है
लब खामोश दिल उदास और आँख नम है
हौंसला बीमार, उम्मीदें अधमरी, मरा जज्बा
मेरा जिस्म में मचा हुआ एक मातम है
बदन की झुर्रियों की गिनती तो
अब भी दिल के ग़मों से कम है
सूखे में सूख गई उम्मीदें सारी
और चटके हुए बदन में बाकी हम हैं.
खुशियाँ तो जैसे अगवा कर लीं किसी ने
अब बाकी, बाकी बचा तो बस ग़म है

--शामिख फ़राज़



जन्मों से मेरे साथ हैं ,सदियों से मेरे पास हैं ,
सभी चराचर ,मेरे सुनसान के सहचर
कोई जागे कोई सोए ,मैं जागूं जग सोए,
मैं सोऊँ जग सोए,पर मेरी किसी को नही चिंता ,
इन्सान तो दूर मेरे पास भटकता नही परिंदा ,
वही शोर वही आवाज,कुछ नहीं मेरे पास ,
(गाड़ियों की ,शहर की आवाजें)
कईयों के बजन से भरा है सर ,ये सब हैं मेरे सुनसान के सहचर,
दूर से आती मशीनों की आवाज है,(घर का माहौल )
मेरे घर पे परिंदों का वास है,
कई जानवर मेरे आँगन में ,करते रोज अपना वास हैं ,
आपकी तरह मुझे भी आती बास है ,
पर आपकी संवेदनाएं,मेरी संवेदनाओं से मिलती नहीं हैं ,
मेरी खुशबु आपकी खुशबुओं से मिलती नहीं है,
मेरी चिंता करने वाले दुनिया के,लाखों, करोड़ों में से कोई भी नहीं है,
मेरी चिंता मैं ख़ुद करता हूँ ,
मेरी तकलीफें मैं ख़ुद सहता हूँ ,
मैं मरूं भी, तो कोई नहीं रोता है ,
मैं अपना वजन ख़ुद ढोता हूँ,
ओ मेरे अकेलेपन ,मेरे हमसफ़र ,
तेरे कारण ही बने ये सब ,मेरे सुनसान के सहचर
ऐसे सुनसान शहरी जीवन से तंग हो गया हूँ ,
मैं ख़ुद मेरे जीवन से तंग हो गया हूँ ,
बदन नंगा हो गया ,कपड़े इतने तंग हो गए हैं,
फुटपाथों पर सोते -सोते ,अकड़े सारे अंग हो गए हैं ,
पेटों की सिलवटें माथे की लकीर दिखती हैं ,
मेरी किस्मत ये ही लिखती हैं, (पेट भरेगा या नहीं.)
दूर से देखने पर मैं प्रेत लगता हूँ,
रोते तड़पते एक ही बात कहता हूँ देना ,
सभी को दो रोटी और माथे पे छप्पर ,
ओ मेरे प्रभु ,
मेरे ईश्वर,
ओ प्रिय,
मेरे सुनसान के सहचर,
मेरे सुनसान के सहचर

--अनिरुद्ध सिंह चौहान



जिस बेटे के उंगली पकड़कर
चलना था सिखलाया
जिसे गोद में रखकर
बोलना था सिखलाया
आज उसी बेटे ने मुझे
धक्का देकर
घर से है निकाला।
घर से है निकाला॥


उसकी पत्नी ने उससे कहा
इस बुढे का रहना मुझे नहीं है भाता
लगाओ इस बुढे को कहीं भी ठिकाना
वरना तोड़ लो मुझसे नाता।
वरना तोड़ लो मुझसे नाता॥


माना उसने प्यारी बीवी की बात
किया मुझपर कटु वचनों की बरसात
बोला उसने,
ऐ बुढा!
तुम्हारा नही है यहाँ कोई काम
चले जाओ यहाँ से
और हमें शान्ति से रहने दो
वरना हाथ-पैर तोड़कर बाहर कर दूंगा
फिर भी नहीं मानोगे तो
जहर देकर मार दूंगा!
जहर देकर मार दूंगा!!
पहले किया मैंने
उसके बात को अनसुना
पर उसने मेरा भोजन बंद किया
व मुझे भूखे ही रखने लगा
फिर एक दिन मुझे
घर से भी निकाल दिया।
घर से भी निकाल दिया॥


तब से भटक रहा हूँ
अकेले रह रहा हूँ
कोई नहीं है अब मेरा
सिर्फ ईश्वर ही है सहारा।
सिर्फ ईश्वर ही है सहारा॥


जिस बेटे के उंगली पकड़कर
चलना था सिखलाया
जिसे गोद में रखकर
बोलना था सिखलाया
आज उसी बेटे ने मुझे
धक्का देकर
घर से है निकाला।
घर से है निकाला॥

--महेश कुमार वर्मा



बुढापे का दामन संभाले हुए!
बाल सारे पके हुए
गाल पिचके हुए
दाँत झड़ गए एक-एक कर
रूखे-रोशन हैं अपनी कुम्हलाये हुए।
बुढापे का दामन संभाले हुए!
आँखें धँसी हुई
आवाजें फटी हुई
एक-एक पसली नजर आ रही
जैसे खड़े हों कोई तीर-कमान लिए हुए।
बुढापे का दामन संभाले हुए!
पैरों में दम कहाँ
दो डग चल सके
हाथों में हिम्मत कहाँ
लाठी भी संभल सके
जिन्दगी के रंग मंच से ठुकराए हुए।
बुढापे का दामन संभाले हुए!
मुमकिन नहीं दिखना सही-सही
दिवा-रोशनी में भी
नैनों का नूर कहाँ गायब हुए
कह नहीं सकता कोई
हालात पे अपनी यूँ रोते हुए।
बुढापे का दामन संभाले हुए!
हँसे कोई या कोई रोये
ताल्लुकात नहीं किसी से
दुत्कार दिया जब जिगर के टुकड़े ने
क्या नेह लगाऊं गैर किसी से
आहें निकलती दिल से रोते हुए।
बुढापे का दामन संभाले हुए!
दुर्भाग्य बुढापे का
मौत भी रु-ब-रु नहीं होती
बियाबान हुए जग में
छाया भी साथ नहीं देती।
मुझे मेरे हाल पे छोड़ने वालों
तेरी दुनियाँ सदा आबाद रहे
तेरी दुनियाँ सदा आबाद रहे।
जा रहा हूँ जीते जी अलविदा कहते हुए।
बुढापे का दामन संभाले हुए!
हालात पे अपनी यूँ रोते हुए।
बुढापे का दामन संभाले हुए!

--बसंत लाल 'चमन'



ये तस्वीर देख रहा हूँ.
कौन हे ये सोच रहा हूँ

सूखी हड्डियों में जान नही
चहरे पे तनिक मुस्कान नही
झुर-झुर जर-जर बदन
बेवफा उमर पथरायी नयन
हाड़ -मांस का ये तन
कब का भुला दिया आदमी को
बुलबुले सी जीवन
क्या खूब सिला दिया आदमी को
जुबां कटी हुई हे इसकी
इसलिए मै बोल रहा हूँ
दुनिया का उजला सच
आज मैं खोल रहा हूँ
ये किसी राह का भिखारी नही
ये धरती का बोझ भारी नही
ये कोई श्राप कोई गारी नही
ये दूजे लोक का संसारी नही
ये आधुनिकता का बूढ़ा बाप है
ये संकीरता का घोर बिलाप है
ये मेरे प्यारे दादा,काका
और उसमे शामिल आप है
ये वर्तमान का सिर्फ़ नमूना है
अभी तो बाकि पूरा होना है
ये दृश्य है आज की बिवशता की
ये दृश्य है बिचारों में फैली दुर्गंधता की

और भी कुछ है ये चेहरा
जिसपे चिंतन करें गहरा
वरना रिस्तो की धज्जियाँ उड़ जायेगी
जिसके प्रभाव से कोई नही बच पायेगी

--सुनील कुमार ’सोनू’



आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

24 कविताप्रेमियों का कहना है :

Smart Indian का कहना है कि -

यह प्रयोग बहुत सुंदर रहा. सारी रचनाएं एक से बढ़कर एक बन पडी हैं.

Anonymous का कहना है कि -

जब इस चित्र की असलियत जानी
ख़ुद की कविता लगने लगी बेमानी
इनके दर्द के आगे शब्द छोटे हो गए
कष्ट इनके नही हैं सिर्फ़ जिस्मानी
सोच तक घायल है,घायल है और जुबान
घाव बहार से दीखते नही चोट है रूहानी


रचना

Anonymous का कहना है कि -

jindagi dhul hai dhua hai
aur pani hai.
jindagi aisi bhi hai
ek ankahi kahani hai........
har mod pe koi na koi
milta hai bichhad jata hai
jindagi safar bhi hai
ye jindagi ki rawani hai.....
jindagi dhul hai dhua hai aur pani hai..............
mitti se bana tan hai
bhawon se bhara man hai
ye jivan hi to sabse bada dhan hai
ruh ko to dekha nahi hai magar
ye jism kuchh jani pahchani hai....
jindagi dhul hai dhua hai aur pani hai............................

manu का कहना है कि -

एक दम सही बात , मुंह से झड़ते शब्द जिस्म की तकलीफ के आगे कितने छोटे होते हैं ..................... "मैडम जरा फिसली तो मददगार थे कई, बूढे की मोच से किसी को वास्ता न था."

Manuj Mehta का कहना है कि -

सब बातों से पहले मैं आप सबका तहे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहता उन, की आप सभी ने इस चित्र को बखूबी समझा और इस पर अपनी प्रतिक्रिया दी. सभी कविताएँ एक से बढ़कर एक है, मुझे इस बात की खुशी है की संवेदनाएं अभी तक जिंदा हैं और तस्वीर के माध्यम से मैं उन्हें आप तक पहुँचा पाया. आपका साथ रहा तो बहुत जल्द आपको मसरूफ करने का इन्तेजाम करना पड़ेगा. हिंद युग्म का ये प्रयास न केवल सफल रहा बल्कि ये एक कबीले तारीफ प्रयोग रहा.
एक बार फिर आप सभी प्रतिभागियों का धन्यवाद.

manu का कहना है कि -

jab tak kavita zinda hai,kam se kam tab tak to kaheen na kaheen sanvedna ko bhi her haal mein zinda rahna hoga.."Be-takkhllus"

Anonymous का कहना है कि -

sabki bahut sundar abhivaykti hai.sabhi ko badhai.
lakin ye sabd bahut hi marmak hai

खुशियाँ तो जैसे अगवा कर लीं किसी ने
अब बाकी, बाकी बचा तो बस ग़म है

is tasvir me kitne asun
hamne bhi jane tumne bhi jane.
badal gye mah -tum ya bale jamane.
sochne lagun to lage dil thar-tharane.

Anonymous का कहना है कि -

जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहाँ हैं ?
कहाँ हैं ?
कहाँ हैं ?
कहाँ हैं?
प्रस्तुति श्याम

Vivek Ranjan Shrivastava का कहना है कि -

चित्र एक कवितायें अनेक . भाव एक , संप्रेषण की विधायें अनेक . हर रचना एक फलसफा , हिन्द युग्म का प्रयास सफल . छायाकार ने जिस कृशकाय बुजुर्ग को चित्र में उतारा है , आप सबने उसे मन में बैठाकर शब्दो मे ढ़ाला है , बधाई .

महेश कुमार वर्मा : Mahesh Kumar Verma का कहना है कि -

हिंद-युग्म द्वारा किए गए इस नए प्रयास के लिए धन्यवाद.

इस चित्र पर विभिन्न कवियों ने सोचकर अपना विचार इस एक मंच पर रखा इसके लिए हिंद-युग्म व सभी कवियों को बधाई.

जिस कवि ने भी चित्र पर जो भी सोचा व सही ही सोचा व उनके विचार विचारनीय है. एक ही चित्र पर एक से बढ़कर एक कविता प्रशंसनीय है.

आपका
महेश

डा.मीना अग्रवाल का कहना है कि -
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डा.मीना अग्रवाल का कहना है कि -

सूनी-सूनी आँखें
सूना-सूना मन
और तनहा तन
बोल रही आँखें
सुन रहा मन
वाह रे एकाकी जीवन !
कल तक थे साथ-साथ
आज हैं वे अनाथ
है कैसी विडंबना
कोई नहीं अपना
हर चेहरा बना उदास
कोई नहीं आस-पास
मन में जगी जो आस
कब बुझेगी उनकी प्यास
होगी जब जीवन-शाम
मिलेगा अलौकिक धाम
यही तो है इंतज़ार
मिलेगा प्रभु का प्यार !
महकेगा उर-कानन
खिलेगा तन-मन
ये है बूढ़ा जीवन !

मीना अग्रवाल

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

सबसे पहले तो मनुज जी क धन्यवाद जो उन्होंने हमें एक अलग दुनिया से परिचय करवाया...
कवितायें एक से बढ़कर एक रही... और जो कोशिश थी कि हर कोई लिखे चाहें कम लिखे तो वो भी पूरी हुई..
शिरीन अब्बास जी ने २ लाइन लिखी पर जबर्दस्त थी..
कांच का शीशा,
नाज़ुक दिलकश,
टूटे तो चुभ जाता है...
मेरे सपने भी कुछ ऐसे
---टूट गए
-- अब चुभते हैं!

मनु बंसल जी की टिप्पणी दिल को छू गई...
हर किसी ने अपने तरीके से तस्वीर को कविता में ढाला...बहुत अच्छा लगा..

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

किसी ने समझ कर लिखा किसी ने लिख कर समझा पर एक बात माननी पड़ेगी कि सभी ने खूब लिखा ।
इन पंक्तियों में सारे जहाँ का दर्द छुपा है--जिसने मुझे विशेष प्रभावित किया-------

खोटा सिक्का बनी ज़िन्दगी
बिखर गए सच्चे आने
उखड़ी सांसें थाम खड़ी है
जंदा मौत सिरहाने
----विनय के जोशी

नायलोन के आगे
सन की रस्सी कोई खरीदता ही नहीं।
---रचना श्रीवास्तव

कांच का शीशा
नाज़ुक दिलकश
टूटे तो चुभ जाता है---
मेरे सपने भी कुछ ऐसे
--टूट गए
--अब चुभते हैं!
-------शिरीन अब्बास

स्वप्न से जागा नहीं हूँ
स्वप्न टूटे हैं मगर
राह से भागा नहीं हूँ
राह छूटी है अगर
------------------
मैं हूँ भारत देख मुझको
आ ज़रा तू पास में---
--शीला सिंह।

तन जर्जर सामर्थ्य नहीं है
दुःख ही दुःख का पूर है।
--प्रदीप मनोरिया।

फटी झोली में सुनहरे कल की आशा
और वर्तमान के शीशे पर
धूल ही धूल।
----सुरिन्देर रत्ती।

वृद्धाश्रम का दर्द.. वहाँ की जिन्दगी पर मनुज मेहता की सजीव तश्वीरें, उन तश्वीरों पर कविमित्रों की सह भागिता और हिन्दयुग्म के इस प्रयास की ज़ितनी भी प्रशंसा की जाय कम है।
--देवेन्द्र पाण्डेय।

daanish का कहना है कि -

...sabhi rachnakaro ko badhaaee. KvitaaeiN mn se, kaheeN gehre andar se likhi gaee haiN jahaaN hr rachnakaar ke andar ek nek ewam sachcha insaan bastaa hai. Ap sb ki samvednaao ko, paak jazbe ko salaam karta hooN. Aur Hind.yugm ka ye prayaas saarthak rahaa.
Saaduvaad svikaareiN. ---MUFLIS---

Sajeev का कहना है कि -

बहुत अच्छी कोशिश....शानदार प्रयास सभी प्रतिभागियों को बधाईयाँ

Prabhat Sharma का कहना है कि -

My Appreciation and Best Wishes to all participant, that was a Great and Wonderfully experiment in today's running life where humans has forgot...what they wants,what they are doing,for what they are trying and the most important thing for whom they are running out of life.

Every poem itself leads to a point.....DO NOT FORGET WHAT WE ARE,WHY WE ARE HERE AND WHAT WE SHOULD DO ?

Great Effort !

"Jindagi se bad kar sazza kya hai,
Ye bhi nahi maloom ,ke zurm kya hai,
Itne hisson mein bat gaya hoon mein,
Ke Apne hisse mein bacha kya hai,
Jindagi maut hi manziol hai teri,Iske siwa rasta kya hai......."

Anonymous का कहना है कि -

सभी की रचनाएँ अपनी अपनी जगह अच्छी हैं लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा मुतास्सिर किया है विनय के. जोशी जी इन पंक्तियों ने--
"खून के रिश्ते कब के रिस गए
टूट गए कच्चे धागे
एकाकी जीवन का बीहड़
पसरा है इसके आगे "

Anonymous का कहना है कि -

सभी की रचनाएँ अपनी अपनी जगह अच्छी हैं लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा मुतास्सिर किया है विनय के. जोशी जी इन पंक्तियों ने--
खून के रिश्ते कब के रिस गए
टूट गए कच्चे धागे
एकाकी जीवन का बीहड़
पसरा है इसके आगे
--Shamikh Faraz

neelam का कहना है कि -

सर्दी का अर्थ
गरम रजाई में
कविता करते शब्‍दों में नहीं ठिठुरता,

seema ji badhaai sweekaaen ,aap me kahaani lekhan se kahi jyaada kavita ko maarmik banaane ka hunar hai ,jaari rakhiye |
aapki apni

Divya Narmada का कहना है कि -

मैं मनुज हूँ...

समय की पुस्तक पढ़ी है,
चढाई दुर्गम चढी है.
तन निबल है, मन सबल है,
हाथ से किस्मत गढी है.
परिश्रम पथ के पथिक जो
सत्य उनका ही अनुज हूँ....

आँख मंजिल पर टिकाये,
माथ गत अनुभव बताये.
हाथ खाली किंतु मैंने
नहीं रिश्ते हैं भुनाये.
भुनाते अवसर रहे जो
उनकी खातिर मैं दनुज हूँ....

सत्य-शिव-सुंदर सुहाते
असत किंचित भी न भाते
परिश्रम पथ के पथिक जो
वही कल उज्जवल बनाते.
जानता हूँ, मानता हूँ,
'सलिल' निर्मल हूँ, तनुज हूँ...

संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम
संजिव्सलिल.ब्लॉग.सीओ.इन
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

Unknown का कहना है कि -

आतंक मचा है दुनिया मे आज जिंदगी तांडव कर रही है,
इस बुढे की आंखों मे देखो
सच्चाई झलक रही है.
कितने सालों से कई युगों के समान इस आत्मा को सींच रहा है कितने दिन क्या भोजन मिला इसे यह शरीर बता रहा है.
ख़त्म हो गई है सबकुछ अब इन नसों मे मौत पुकार रही है
एक बम्ब बस इधर भी चला दो इस बुढे की अन्तिम चाह येही है.
मैत्रयी बनर्जी

Anonymous का कहना है कि -

अत्‍यन्‍त कम समय में हिंद युग्‍म ने अपना एक विश्ष्टि स्‍थान बनाया है जो निसंदेह संपादक मंडल की सार्थक मेहनत का नतीजा है. नवीनताएं हमेशा रोचकता पैदा करती हैं और नए जिज्ञासु पाठकों को अपनी ओर खींचती हैं. हिंद युग्‍म इसमें सफल हुई है इंटरनेट पर न केवल इसे पढने में मजा आता है बल्कि इसे सुनने का अलग ही आनंद है. प्रेमचंद की छोटी छोटी कहानियों में अनुराग जी की मार्मिक आवाज ने इन कालजयी कहानियों को जैसे अमरता दे दी है. अन्‍य गायकों ने भी हिंद युग्‍म को अपने साज और आवाज से चिरयौवना बना दिया है 1 आपका प्रयास अत्‍यन्‍त सराहनीय है नए नए प्रयोग करते रहिए क्‍योंकि मेरे जैसे कंजूस लोग भी इसका आनंद लेते हुए अंतत: अभिव्‍यक्ति देने को विवश हो ही जाते हैं.

Unknown का कहना है कि -

एक रोटी का टुकड़ा जब इज्जत के वदले प़ता है
सच पूछो कि दोस्त मेरे, मुझे एक नया साल दिख जाता है

एक दशक मे कितने वदले ,नर नग्न पुरुष नाना वदले |
इस नग्न संस्कृति की खातिर, जब कानून नया लिख जाता है ||

..... सच पूछो कि दोस्त मेरे

हाय! वासना क्या कहना , अर्ध नग्न सामाजिक है गहना |
भाई के हाथो को छूते, भय भीत घरो मे रहती बहिना |
अस्तित्व हमारा पूछ राहा इस देश मे मुझे कब तक रहना ||
टीवी के चित्रों मे धुधले जब द्रश्य कोई दिख जाता है ||

....... सच पूछो कि दोस्त मेरे


भूखा भाई महानगरो की सड़को पर दिख जाता है |
मासूम उदासी मुख मंडल मजबूर कोई दिख जाता है ||
नया साल क्या हाल बुरा है, भूखे बच्चा-बच्ची रहो मे
कोई अर्ध नग्न फूल लिए दिख जाता है |

सच पूछो कि दोस्त मेरे.......................

पिजा की रोटी की कीमत, ज़ब ढावे की रोटी के साग आयेगा |
माया राहुल जैसी चक्र सुरक्षा, भारत का जन जन पायेगा ||

सच पूछो कि दोस्त मेरे.......................

कोला पेपासी ये जल धारा, जब टाके शेर विक जाएगा |
संसद के उस सभा कक्ष मे, कोई मजदूर,किसान जन हित का प्रश्न उठायेगा ||
ये कवि स्वाजनो सहित मिल, नव वर्ष उसी दिन मनायेगा ||

एक रोटी का टुकड़ा जब इज्जत के वदले प़ता है
सच पूछो कि दोस्त मेरे, मुझे एक नया साल दिख जाता है @

कवि काछिवांत
हरदयाल कुशवाहा
३१/१२/२००९

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