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क्षणिकाएं (अभिषेक पाटनी)


बागीचा
‘माँ’ ने ख्वाबों का
बागीचा बना रखा है
वहीं से हर रोज़
तोड़ लाती है
हौसलों के फल

इत्तेफ़ाक़
उसके ख्वाब ...
मेरे ख्वाब ...
अलग-अलग हैं
ये महज इत्तेफ़ाक़ है
दोनों के ख्वाब में ...
दोनों ही हैं!

वंशज
बहन ने
भाई सरीखे पति के लिए
मन्नत माँगी थी
भाई ने भी
अपनी बहन जैसी ही
लड़की से शादी की ठानी है
ये आदम के वंशज
कहाँ आ गए हैं!

रहस्य
सुबह रास्ते पर...दोनों मिले थे
मैं भी...मेरा साया भी
शाम को मैं लौटा घर
रास्ते में साया कहीं रह गया...
ये नियम था या इंतज़ार..
..क्योंकि जिस दिन सिर्फ साया लौटा
उसके बाद से अब तक
मैं नहीं दिखा हूँ !

उलझन (1)
सड़क के किनारे
ख़ुद से टकरा कर
वो गिर पड़ा है...
वो निकला था शिकार को..
ख़ुद को पाकर
अब हिल चुका है

उलझन (2)
सड़क पर ही दोनों पड़े थे
ज़िंदगी भी...मौत भी...
संभल जाता तो मौत मिलती
बिखर जाता तो ज़िंदगी...
लेकिन वो सोच रहा है...
ठीक वैसे ही
जैसे...पहली बार
आदम फल खाने को सोच रहा था।

फितूर
इक चाहत...
उससे लिपटीं चाहतें...
उनके अंदर सिमटी चाहतें...
उन चाहतों से जुड़ी...
छोटी-छोटी शबनमी चाहतें....
...और फिर बेवजह
कोनों को देखना..मुस्कुरा देना...
फितूर ही तो है...

मजबूरी
बेवजह ज़िंदगी में बहुत कुछ हुआ
बेवजह हँसना-गाना...खाना-पीना...बहुत कुछ
लेकिन सच कह रहा हूँ
बेवजह आजतक रोया नहीं हूँ...
और रोना हर रोज़ पड़ता है...
पता नहीं क्यों….???

बुढ़ापा
अनुभव के पराकाष्ठा के साथ
समय के आगे नतमस्तक हो जाना
बुढ़ापा...कई कमियों का नाम है
इस अवस्था में कम हो जाती है...
नींद...भूख...प्यास और आकर्षण
लेकिन खत्म कुछ भी नहीं होता!

आकर्षण
विपरीत गुण-धर्म के बीच
आकर्षण...एक नियम है
समय के सापेक्ष
इसमें कमी भी...एक सत्य है
लेकिन एक झुकाव बना रहता है....
क्योंकि...नियम है !

औचित्य


ग्रह-उपग्रह बने रहें
दिन-रात से सजे रहें
पृथ्वी अपनी श्रेष्ठता संग
सदियों तक बनी रहे
और इसके जीवों में
संवेदना बची रहे
जीवन-पर्यन्त
श्रद्धा-विश्वास-आस्था का
संगम रहे धरा
भावनाएं पूजी जाएं
और सुन्दरता जाएं सराही
दया-क्षमा-त्याग से
सजी रहे मनुष्यता
प्रेम की क्यारियों में
मुस्कान-सी फूल खिलें
और श्रम के बाद सदा
सफलता के फल मिलें
आस टूटे न कभी
आस सदा बनी रहे
इसलिए हे नारी आपको
प्रसव का वरदान मिला
इसलिए ‘उस’ आस्तिक ने
सृष्टि में है ‘मां’ रचा!
(मदर्स डे के मौके पर पूरे मां कौम को नमन)

न जाने कितने और बाकी हैं?


चांदनी बारूद-सी उतरती है जहन में
आग पहले से लगा रखी है
हरपल धमाकों में गुजरता है
चीथड़ों में ज़िन्दगी उड़ी जाती है

खामोशी तूफान-सी आती है नज़र में
हर सय शिकवा किए जाता है
हर रात कांच के मानिन्द कोई*
न जाने कई बार बिखर जाता है

नशा जज़्बात-सी करामाती है असर में
सरेआम राज़ खोले जाती है
कितने रिश्ते मिट चुके हैं अब तक
न जाने कितने और बाकी हैं?

न जाने....


तड़प दोनों में है बराबर का
न जाने किसका दर्द ज्यादा है
जमीं पे गिरे टुकड़े का...
...या बदन के उस हिस्से का

सबब ज़िन्दगी है दोनों में
न जाने किसमें सीलन ज्यादा है
बहते लहू के क़तरों में...
...या ढ़लकते हुए अश्कों में

असर हालात कर गए ऐसे
न जाने कौन पहले थम जाए
थम-थम के चलती-सी सांसे...
...या बेतहाशा दौड़ती धड़कन

न जाने क्या होने वाला है...
न जाने किसका दर्द ज्यादा है...
न जाने किससे आस बाकी है...
न जाने कौन आनेवाला है?

चाहत


अजीब-सी चाहत है…
कि अपना-सा कोई हो
अपने जैसा भी हो
उसकी आंखें...उसकी बातें...
उसकी हंसी...उसका साथ
सिर्फ एहसास...सिर्फ एहसास!

नहीं वो ऐसी नहीं
न ही वो…वैसी है
वो बस है वो...
जिसकी मुझे जरूरत है

हां! मैं जानता हूं उसे
मैंने अक्सर उसे गुनगुनाया है
मैंने महका है उसे
फिर भी ढ़ूंढ़ता हूं!

वो भी है कहीं पास ही
ढ़ूंढ़ती-सी मुझे को ही
उनींदी...अलसाई...अल्हड़-सी
गुनगुनाती-मुस्काती परी-सी
बिल्कुल मेरे ख्वाहिश-सी
मेरे जज़्बातों की कमी-सी!

अजब-गजब


है अजब ये दुनिया भी
मुश्किलों से भरी पड़ी
दर्द-आंसू-जिन्दगी
और न जाने क्या-क्या?
बस जीए जाने की खातिर
ढ़ूंढ़ते हैं क्या-क्या?

है अजब से लोग सारे
ये सुनाए फैसले
ज़ुर्म किसका...कौन ज़ालिम
बस वही जो है नहीं
बेवजह में हे ख़ुदा
हरवक्त तेरा नाम लें!

है अजब दस्तूर ये
ऐसे मिले यहां सजा
दर्द चुराओ जो किसी का
दर्द वो दोगुना मिले
और जो चुराई खुशी
तो छिन जाए सारी खुशी!

है अजब जज़्बात सारे
करते हैं उल्टा असर
बेबस करते हैं खुशी में
ग़म में देते हौसला
आंसू सुला देते हैं जैसे
और हंसी देती हैं जगा!

है अजब ये दुनिया भी..
हैं अजब से लोग सारे..
हैं अजब दस्तूर ये...
हैं अजब जज़्बात सारे....

शिवांश


अमृत के प्याले से वंचित
शिव को नियति ने दिया विष
बंट चुके क्षण समस्त उत्सव के
वैराग्य ही उसको हुआ शेष
नृत्य तांडव, नेत्र रक्तिम,
जटाधारी हुआ शंकर....विषाद से
फिर करता वो सृजन कैसे?
संहार इसलिए ही ध्येय हुआ

हुआ प्रारंभ जब तांडव
लगा खुलने नयन त्रय
कदाचित् स्रष्टा को कौंधा
नीलकंठ के अवसाद का
विभक्त किया कोटि ज्योति में
छींट डाला संसार में
हर युग में होने लगा जन्म
मानव रूपों में शिवांश का

रहने लगी है धरा त्रस्त
जब-तब खुल उठता है त्रिनेत्र
स्थिति विकट हुई प्रलय सदृश्य
हा! अभी शेष होने को है
कोटि सहस्त्र ज्योति के अंश
क्षीण हो चुकी धरा है
कदाचित् झेलने को और दंश

भाव के घाव!


असह्य दुर्गन्ध...
लिजलिजा-सा...
धूप को तरसता
ढांपने की कोशिश में
कई बार चिपक जाता है
तन के कपड़ों से
फिर खींचने पर
सिहरन उठती है...
टीस होती है
क्या करूं?
ये मेरे ही तन पर
लगा हुआ घाव है!

निर्विकार...थकी...
पथराई-सी आंखें
प्रस्तोता हैं...
स्पंदन ऐसा कि
निरंतर किसी ऊंचाई से
गिर रहा हूं
और हर उस क्षण में
हृदय में
नाद हो रहा है
कुछ घुल रहा है
कुछ टूट रहा है
क्या कहूं?
ये मेरे मन में
आनेवाले भाव हैं!

तृष्णा


क्षितिज – जहां नभ-धरा
मिलते-से प्रतीत होते हैं
वर्षा की सुसज्जित बूंदें
दूरी को पाटती-सी हैं
एक सामीप्य...एक मिलन की
अनुभूति करवाती हैं
जैसे
मंदिर का पुजारी
अपने स्तुति से
आस्तिक और श्रद्धेय के
निकटता का आडम्बर करता है
और तृष्णा धरी रह जाती है

जैसे
नदी के दोनों किनारे
मिलने को आतुर हो
और मिलन की चाह मे कई बार
सूखने की सीमा तक चले आते हैं
अंतर निरंतर रहता है
अस्तित्व मिटने पर भी
विरह शेष रह जाती है

फिर भी
वर्षा का उपक्रम जारी है...
पुजारी का मंत्रोच्चार भी...
सूखी-भरी नदियों का प्रवाह भी!

कोना


मकान का वो हिस्सा
जो चहल-पहल से दूर
घर के दायरे से परे
आंगन के पिछवाड़े का कोना
जहां झाड़ियां बिना इजाज़त
बेमन से उग आई हैं
शायद कुछ जानवरों का
आना-जाना लगा रहता हो
पर घर के पूर्वजों का बसेरा
यकीनन वही है!
मकान में दरवाज़े से लेकर
दरो-दीवार तक
सब नये-से हैं
सिर्फ वही हिस्सा पुराना-सा
बिना लोहे का जंग खाया हुआ
जकड़ा-सा दिखता है
हां! उस तरफ से जाकर देखने पर
मकान भी
खंडहर-सा लगता है
कई बार तो वो कोना
आदमी-सा शक्ल बनाए
घूरता है...कई बार
रोता...भींगता...भिंगोता....
सिसकता...रूलाता...और न जाने
कितने हरकतों से
वो मकान को ज़िन्दा रखे हुए है....

वहम


उसकी आंखें
पता नहीं क्या कहती हैं
मुझे देखती हैं...चाहती हैं...
या चिढ़ाती हैं
एक तलाश रहती है
एक अजनबीपन भी है
ये मेरी नजरों का...
एहसास है...असर है
या सिर्फ वहम है
उस जैसा ही है कोई
जो गुनगुनाता है
उस जैसा ही कोई
अक्सर रूलाता है
उस जैसा ही कोई
हर वक्त अकेले में
चुपचाप
मेरे करीब चला आता है
फिर उसका होना
महज इत्तिफ़ाक क्यों है
वह नहीं होकर भी
मेरे पास क्यों है
अगर ऐसा कुछ नहीं
तो फिर...
मेरे ये जज़्बात क्यों हैं

दोगलापन


दो अतिवादी छोरों के बीच
सामंजस्य साधने की कोशिश में
कई बार मैं
अतिक्रमण कर जाता हूं
अपनी सीमाओं का
और कई बार तो
मै स्वयं
किसी अतिवादी से कम नहीं दिखता
थक गया हूं....
दोहरी जिंदगीसे
थक गया हूं...
दोहरेपन को दूर करने की कोशिश से
इस छद्म सुधार की कोशिश में
मैं अपना मूल स्वरूप ही
विकृत कर बैठा हूं
दोनों फेफेड़ों में/से
एक साथ...एक ही हवा
भरना/निकालना चाहता हूं
दोनों आंखों से
एक ही चीज देखना चाहता हूं
दो हाथों से एक काम करना
और दो पैरों से
एक ही दिशा में जाना चाहता हूं
मैं अपना दोगलापन
पाटना चाहता हूं....
(कृपया इन चाहतों को भौतिक परिपेक्ष्य में न लें )

क्योंकि....


उस हंसी का मूल्य...
उन मुस्काती आंखों का मर्म....
...कैसे जान पाता?
तन पर कपड़े न थे
धंसी आंखें...कंकाली बदनवाले पुत्र को
बदहाल पिता ने गोद में
उठा रखा था
और उसके कंधे पर सिर रखे
वो पिता के मजबूत-सुरक्षित घेरे में
शायद सबकुछ पा रहा था...
...इसलिए मुस्कुरा रहा था...
इसलिए कहकहे लगा रहा था...
पिता भी अपने साये में
पलते अपने नए रूप को देख निहाल था
उसे अपने तंगहाली का कोई मलाल नहीं
ज़िंदगी के उसर क्षणों से
जब वो इतने रस पा रहा हो...
...तो क्यो फ़िक्रमंद हो?
…तो क्यों कोई और कामना हो?
…तो क्यों झखे खुशी को?

सच


सच (1)
सच हवा की तरह है
जो अलग बरतनों में
अलग आकार लेता है
ज़रूरत से फैलता-सिकुड़ता है

सच नमक की तरह है
स्वादानुसार हथेलियों से
हर जीभ तक जगह पाता है
सच ज़्यादा हो तो ज़हर हो जाता है

सच सुकूं है तब तक
जब तक उगला न गया हो
सच परेशान कर सकता है
गर सही परोसा न गया हो
सच हुनर की तरह है
जो उघड़ा हुआ बिल्कुल नहीं जंचता
हर ढ़का सच खूबसूरत होता है
पर हर सच भी ऐसा कहां होता है

सच जड़ की तरह है
जिनसे टहनियां-पत्ते..पूरा पेड़ ज़िन्दा रहता है
बागवां पेड़ों को शक्ल देते हैं
और जड़ों को पानी
ताकि सच ज़मीं के भीतर ही फलता-फूलता रहे
पूरे बाग की ख़ातिर

सच लावे की तरह है
जो धधकता है ज़मीं के भीतर ही
जहां ज़मीं कमज़ोर पड़ी
कि आ जाता है उफनता हुआ
बाहर...एक जलजले के साथ

सच कहां सब पचा पाते हैं
सच कहां सब बता पाते हैं
सच को हर वक्त में
कोई एक संजय ही देख पाता है
क्योंकि सच के उजाले में
आंखें अंधेपन की हद तक चौंधियाती हैं

सच (2)
सच की हक़ीक़त भी कहानी है
सच की ज़रूरत भी कहानी है
सच से सरोकार सबका इतना है
सच हक़ीक़त है सच कहानी है

सच का इस्तेमाल ऐसे होता है
कोई खरीदता है कोई बेचता है
कोई छिपाता है कोई दिखाता है
सच ही सारे हालात भी बनाता है
फिर भी सच बिखर-सा जाता है

ये सिर्फ सच की बदमिजाज़ी है
कि सच हक़ीक़त भी है...कहानी भी।

रास्ता...सफर


क़र्ज क्यों बाकी रहे
फ़र्ज़ क्यों रहे अधूरा
रास्ता आने के लिए है...
तो जाने के लिए भी
सफर बढ़ने का नाम है...
...तो लौटना भी सफर है
कमबख्त ज़िंदगी हर बार
ऐसे नियम क्यों बनाती है
कि सफर मंज़िल-दर-मंज़िल
सिर्फ बढ़ने का नाम है
कि रास्ता कदम-दर-कदम
चलने का नाम है
रास्ता तो तब है
जब चाहा लौटना भी हो
पता नहीं
बहुत कुछ पाने की चाह में
आदमी सब कुछ छोड़
क्यों बढ़ता जाता है
पता नहीं
आदमी किस कारण
ख़ुद का ख़ुदा बनना चाहता है......

सपने


सपने (1)
सपने ऐसे थे....
कि कोंपल भी निकलते....
और पत्ते सूखे....हरे होकर
पेड़ों से लग जाते
कि समंदर भी रहते
और कुछ मीठे हो
सूखी नदियों से मिल जाते
कि सपने....सपने होते
और कुछ सच्चाइयों में भी ढ़ल जाते

सपने (2)
पता नहीं आदमी
ऐसे सपने देखता ही क्यों है
जिसे पूरा.... वो अपने दम पर
कर ही न सके....
जब से होश संभाला है
सपने देखने वालों से परेशान हूं
और उससे ज्यादा परेशान इस बात से
कि कोई भी सपना
सिर्फ अपने लिए नहीं देखता !

सपने (3)
हर किसी के सपने से
कोई जुड़ा है
ऐसा क्यों है...
क्या इसलिए कि
सपने में साये साथ नहीं देते
.....और आदमी
अपनी परछाई की आदत का मारा हुआ।


सपने (4)
मेरे सपनों में कोई था
और उसके सपने में...कोई और
मेरी मजबूरी है कि
मैं उसे उसका सपना
हासिल करने में मदद करुं
क्योंकि मुझे पता है...
कि मैं अपना सपना हासिल करके भी
नहीं हासिल कर पाऊंगा...
...और वो अपना सपना खोकर भी
हासिल कर ही लेगा !

चार छोटी कविताएं


गुज़ारिश मां से....

मेरी किताबों के ऊपर जमी धूल
मत झाड़ना....
और हर रोज मत भूलना....
अगरबत्ती जलाना...
गर्द और धुएं में ही तो
मैं तुम्हारे पास बचा हुआ हूं....मां

भाई से

कभी गुस्सा आए तो....फाड़ डालना
घर के अलमीरे में पड़ी
मेरी सारी तस्वीरें....लेकिन अफसोस
आईना देखोगे तो भी...
....मैं याद आऊंगा ही

बहन से....

मेरे हिस्से की रोटियां
गली के कुत्तों को खिला दिया करना
सुना है...कुत्ते वफादार ज्यादा होते हैं......

ख़ुद से......

हर दिन सोचकर निकलता हूं...
घर से कि आज छोड़ आऊंगा...
अपनी बदकिस्मती को...
किसी चौराहे पर.....
लेकिन हर दिन उसकी वफादारी
मजबूर कर देती है
उन्हें अपने साथ बाइज्ज़त लौटा लाने को
मैं उनके वफादारी का कायल हूं
और...वो मेरे...हर कुछ की....

जरूरतें


आंखों को नमी और
दर्द को दामन चाहिए...बहने के लिए

चाहतें हक़ीक़त में भी ढ़ल सकें
दिल को ऐसी जुबां चाहिए कहने के लिए

कोई है पर सुनता नहीं
ख्यालों को भी रुह चाहिए ढ़लने के लिए

उम्मीदें और बे-पनाह न हों
उनकों जमीं-ओ-डगर ठहरने के लिए

बिलखता हुआ ही बिखरा है हर कोई
सबों को नज़र चाहिए देखने के लिए

डगमगाते तदबीरों का ख्याल ये है
कि सहारे बढ़ आएंगे थामने के लिए

कुछ भी कहीं नहीं हुआ
कोई बेचैन है ख़ुद से उलझने के लिए

कुछ नहीं


कई बार
पलक झपकते ही....
बदल जाता है...
....हर कुछ
और कई बार....
सालों कुछ नहीं होता
बूंदे बरसीं...
बंज़र खेतों में
उग आए हैं घास
और लहरें....
थक गई हैं....
किनोरों पर...
सिर पटकते हुए
कुछ हो जाता है कहीं
कुछ कभी होता नहीं
एक सूनापन ही
रह जाता है हर कहीं
ज़िंदगी के इस तरफ....
ज़िंदगी के उस तरफ
फिर कई बार....
कुछ नहीं होने के लिए भी
तरसता है कोई....!
फिर भी...
हर पल....
हो रहे हैं...हादसे
कुछ नहीं होने के साथ

कौन?...कौन है....?


झांकता है.....कोई....
दीवारों से...छतों से...
पर्दों से....कोनों से...
रात के अंधेरों में
अंधेरों से...सपनों से
कभी स्याह...इच्छाओं की तरह
कभी बेलगाम जज़्बों-सा
कभी बेपरवाह खुशी-सी
कभी बेपनाह दर्द से.....

घूरता है.... कोई....
इन्हीं दीवारों-पर्दों-...
छतों-कोनों-अंधेरो-सपनों से
चीरता हुआ जेहन तक
कभी तीखे सच की तरह
कभी ज़हर बुझे झूठ-सा
कभी लीलने की चाह लिए
कभी खेलने की आस में....

टटोलता है.... कोई....
हवाओं में...अंधेरों में
ख्वाब में...हक़ीक़त में...
जागते हुए....सोते हुए...
कड़े... नंगे... तपिश लिए...
हाथों से......

कोई कुछ टटोलता है
शायद ज़मीर....शायद खोखलापन...
शायद पूर्णता.....शायद अधूरापन
शायद कुछ नहीं....शायद सबकुछ....

घुटन फिर बढ़ रही है.....
कि कोई झांकता-घूरते हुए....
.....टटोल रहा है............