दो अतिवादी छोरों के बीच
सामंजस्य साधने की कोशिश में
कई बार मैं
अतिक्रमण कर जाता हूं
अपनी सीमाओं का
और कई बार तो
मै स्वयं
किसी अतिवादी से कम नहीं दिखता
थक गया हूं....
दोहरी जिंदगीसे
थक गया हूं...
दोहरेपन को दूर करने की कोशिश से
इस छद्म सुधार की कोशिश में
मैं अपना मूल स्वरूप ही
विकृत कर बैठा हूं
दोनों फेफेड़ों में/से
एक साथ...एक ही हवा
भरना/निकालना चाहता हूं
दोनों आंखों से
एक ही चीज देखना चाहता हूं
दो हाथों से एक काम करना
और दो पैरों से
एक ही दिशा में जाना चाहता हूं
मैं अपना दोगलापन
पाटना चाहता हूं....
(कृपया इन चाहतों को भौतिक परिपेक्ष्य में न लें )
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
दोहरी जिंदगीसे
थक गया हूं...
दोहरेपन को दूर करने की कोशिश से
इस छद्म सुधार की कोशिश में
मैं अपना मूल स्वरूप ही
विकृत कर बैठा हूं
बहुत अच्छे अभिषेक जी!
भला कविता के अर्थ भौतिक परिपेक्ष्य में
लेने के लिये थोड़े ही हैं
Right said Harihar ji,
Kavita* (*Conditions Apply) theek hai ........ achha prayas hai ......
दोनों फेफेड़ों में/से
एक साथ...एक ही हवा
भरना/निकालना चाहता हूं
दोनों आंखों से
एक ही चीज देखना चाहता हूं
दो हाथों से एक काम करना
और दो पैरों से
एक ही दिशा में जाना चाहता हूं
Panktiyan sheershak ke saath nyay karti hui prateet hoti hain
रचना सुंदर भी है और बहुत गहरी भी |
अपने भीतर का सच बयान करती है |
"में/से" और "भरना/निकालना" जैसी शब्द रचना मुझे नयी लगी और गद्य के करीब |
क्या इससे बचना चाहिए या फ़िर यह प्रयोग सही है ?
अवनीश तिवारी
कविता और अकविता के बीच सीमा रेखा कहाँ है कौन जाने?
पाठक को कुछ संकेत देने की क्या ज़रुरत?
पाठक रचनाकार से कम समझदार नहीं होता.
यह रचना अध्यात्मिक अर्थों में ली जाये या भौतिक अर्थों में यह स्वतंत्रता पाठक को देना क्या ठीक न होगा?
वैसे किसी भी अर्थ में ली जाए रचना कुछ न कुछ देती ही है.
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I felt tat this poem well depicts the varying shades in the character of a person.
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