कभी हो ऐसा
मैं बैठा देखता रहूँ उस दरख्त को
और उस दरख्त से कोई पत्ती न झडे
बल्कि अँखुआ जाए एक कली
मेरे पास वाली टहनी पर
कभी हो ऐसा
माँ झट्क कर झाड दे धूप की चादर
और खन्न से गिरे एक सूरज
माँ बाँध ले उसे आँचल के कोने से
कभी हो ऐसा
बादलों का कारवाँ गुज़र जाने पर
छूट जाए उनकी डायरी
जिसमे लिखे हो उनके नाम पते
और बारिश की तफ्सीलें
और उस डायरी को पढ लूँ मैं
कभी हो ऐसा
हवाओं में उडने लगें पहाड
और हवाऐं गुज़र जाऐं
पिता के सीने से हो कर
हल्का हो जाए पिता का सीना
कभी हो ऐसा
जब मैं गुज़रू प्रलय से
तो जल जाऐं मेरे वस्त्र मेरा शरीर
बह जाऐं मेरे हर्ष मेरे शोक
लेकिन एक तारा बचा रह जाए
मेरी आँख में
कभी हो ऐसा...
- अवनीश गौतम
रचना-काल : सितम्बर 1994
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
adbhut..........
बहुत बहुत सुंदर……रूमानी
कभी हो ऐसा
माँ झट्क कर झाड दे धूप की चादर
और खन्न से गिरे एक सूरज
माँ बाँध ले उसे आँचल के कोने से
कभी हो ऐसा
हवाओं में उडने लगें पहाड
और हवाऐं गुज़र जाऐं
पिता के सीने से हो कर
हल्का हो पिता का सीना
-बहुत प्यारी पंक्तियाँ, मोह लिया गया..
-बधाई..
अवनीश जी,
बिम्बों ही बिम्बों में कही गयी एक सश्क्त अभिव्यक्ति है। कई बिम्ब इतने उत्कृष्ट हैं कि सोच को नया आकाश प्रदान करते हैं मसलन:
"माँ झट्क कर झाड दे धूप की चादर
और खन्न से गिरे एक सूरज
माँ बाँध ले उसे आँचल के कोने से"
"बादलों का कारवाँ गुज़र जाने पर
छूट जाए उनकी डायरी"
"हवाओं में उडने लगें पहाड
और हवाऐं गुज़र जाऐं
पिता के सीने से हो कर
हल्का हो जाए पिता का सीना"
"बह जाऐं मेरे हर्ष मेरे शोक
लेकिन एक तारा बचा रह जाए
मेरी आँख में"
प्रत्येक बिम्ब आपकी नयी कविता पर गहरी पकड को प्रतिपादित करता है। भाव और शिल्प दोनों ही उत्कृश्ट। बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अवनीश जी,
कविता 'कभी हो ऐसा' पढ़ कर ऐसा लगा जैसे यह कविता मुझसे भी जुड़ी हो ....हर किसी के मन की आकंछओं को आपने अपनी कविता के माध्यम से बहुत ही सुन्दरता से व्यक्त किया है जो की हमारे अंतर्मन को छू जाती है ....ऐसे ही लिखते रहिए ....
अवनीश जी
बहुत सुन्दर कल्पना की है --
कभी हो ऐसा
माँ झट्क कर झाड दे धूप की चादर
और खन्न से गिरे एक सूरज
माँ बाँध ले उसे आँचल के कोने से
बहुत ही सुन्दर अलंकार योजना है । बधाई स्वीकारें ।
बन्धु अवनीश जी
कभी हो ऐसा
जब मैं गुज़रू प्रलय से
तो जल जाऐं मेरे वस्त्र मेरा शरीर
बह जाऐं मेरे हर्ष मेरे शोक
लेकिन एक तारा बचा रह जाए
मेरी आँख में
कभी हो ऐसा...
निशब्द हो गया हूं आपकी रचना पढ़कर
बस काव्य की जो हैंग ओवर वाली स्थिति है
उससे गुजर रहा हूं
किस पंक्ति को कहूं कि यही श्रेष्ठ है
बहुत बहुत धन्यवाद
ऐसी रचना का रसास्वादन कराने के लिये
बहुत सुंदर......
....उस दरख्त से कोई पत्ती न झडे
बल्कि अँखुआ जाए एक कली
मेरे पास वाली टहनी पर
हवाओं में उडने लगें पहाड
और हवाऐं गुज़र जाऐं
पिता के सीने से हो कर
बह जाऐं मेरे हर्ष मेरे शोक
लेकिन एक तारा बचा रह जाए
मेरी आँख में
कभी हो ऐसा...
कभी हो ऐसा...
कभी हो ऐसा...
कभी हो ऐसा...
-बधाई..
कभी हो ऐसा
माँ झट्क कर झाड दे धूप की चादर
और खन्न से गिरे एक सूरज
माँ बाँध ले उसे आँचल के कोने स
और क्या कहा है आपने -
कभी हो ऐसा
हवाओं में उडने लगें पहाड
और हवाऐं गुज़र जाऐं
पिता के सीने से हो कर
हल्का हो जाए पिता का सिना
काश कभी सचमुच ऐसा हो,
आपने रचना का काल diya है अगर नही भी देते तो कोई फर्क नही पढता कविता आज भी उनती ही ताजी है, गुलज़ार साब के शब्दों में " गीत कभी बूढे नही होते, उनके चहरे पर कभी झुरियां नही पढ़ती...."
बहुत अच्छे अविनाश जी
माँ झट्क कर झाड दे धूप की चादर
और खन्न से गिरे एक सूरज
माँ बाँध ले उसे आँचल के कोने से
बादलों का कारवाँ गुज़र जाने पर
छूट जाए उनकी डायरी
हवाओं में उडने लगें पहाड
और हवाऐं गुज़र जाऐं
पिता के सीने से हो कर
हल्का हो जाए पिता का सीना
अवनीश जी,
बहुत हीं सुंदर कविता है। बिंबों के प्रयोग ने इसमें चार चाँच लगा दिये हैं। आपको इस रूप में पढना अच्छा लगा। बधाई स्वीकारें।
बहुत बहुत सुंदर लगी आपकी रचना अवनीश जी...भाव और सुंदर बिम्ब ..
कभी हो ऐसा
बादलों का कारवाँ गुज़र जाने पर
छूट जाए उनकी डायरी
जिसमे लिखे हो उनके नाम पते
और बारिश की तफ्सीलें
और उस डायरी को पढ लूँ मैं
कुछ दिल के क़रीब थी यह पंक्तियां
बधाई सुनार रचना के लिए !!
..इस कविता की तारीफ सुन कर अजीब लगा.कुछ काल्पनिक लुभावनी इच्छाओं को एक प्रार्थना की शक्ल देती इस कविता के बरक्स मेरी दूसरी कविता कहीं ज्यादा ठोस, सुचिंतित और बहुस्तरीय थी पर वह इस मंच के अधिकांश पाठकों को पसंद नहीं आई..खैर आप सबको यह कविता पसंद आई. आभार!
अवनीश जी आप अपनी तारीफ खुद ही कर लेते हैं। आपकी यह कविता अच्छी है और यदि आपको अपनी यह कविता पसंद नहीं थी तो क्या पाठकों का इम्तिहान ले रहे थे? आपकी दूसरी कविता पाठको नें खारिज कर दी लेकिन आपको अच्छी लगी इसमें कविता के इस मंच के लिये आपको अजीब नहीं महसूस करना चाहिये। आत्ममंथन की आवश्यकता है।
अब कुछ मज़ा आया!
अच्छी कल्पना है.
बधाई
अवनीश तिवारी
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