करीब दो साल पहले एक दिन माँ से नाराज़ होकर, गुस्सा होकर एक कविता लिखी थी। उस कविता में भी उसके लिखे जाने का अपराधबोध शामिल था। बाद में उसे फाड़ कर फेंक दिया और अब तक मैं अपने आप को उस कविता का दोषी मानता हूं।
माँ भी एक इंसान है, उसमें भी बहुत सी कमियाँ हैं, लेकिन अमूमन उन्हें कोई नहीं लिखता। उन्हें पढ़ना भी किसी को पसंद नहीं, शायद इसीलिए मैंने वह कविता फाड़ी हो।
जो भी हो, कुछ दिन पहले एक ब्लॉग पर चन्द्रकांत देवताले की 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता' पढ़ी और बहुत पसन्द आई। लेकिन उसके बाद से यह बात कचोटती रही है कि मैंने क्यों उसे कविताओं में बाँधने की कोशिश की?
अपने लिए इसी नए अपराधबोध के साथ माँ के लिए कुछ क्षणिकाएं प्रकाशित कर रहा हूं।
1
मैं समझता था कि उसे
चप्पलों के जल्दी घिसने की
फ़िक्र है,
वो सिखाना चाहती थी कि
घसीटूं नहीं कभी,
पैर उठाकर चलूं।
2
जो नहीं पिटे माँओं से
वे इतने कच्चे रहे
कि ख़ुद टूट गए
या तोड़ दिए गए।
3
माँ नहीं ढूंढ़ती
हर लड़के में बेटा,
मैं हर उम्रदराज़ औरत में
माँ ढूंढ़ता रहता हूं।
मैं स्वार्थी हूं।
4
दीदी बहुत बार बन जाती हैं
मेरी माँ भी।
माँ नहीं सीख पाई
दीदी बन जाना।
5
पिता कहते हैं,
पानी ले आ।
मैं नहीं उठता,
डाँटने लगते हैं पिता,
माँ ले आती है
पानी के दो गिलास
और चुपचाप बैठ जाती है।
6
पिता हो जाते हैं
’सिर्फ़ पति’ बहुत बार
माँ नहीं हो पाती
’सिर्फ़ पत्नी’
एक क्षण को भी।
7
राजू की माँ!
दीपा की माँ!
वे भूल जाती हैं अपने नाम
धीरे धीरे
और सहेलियों को भी
ऐसे ही पुकारती हैं।
8
जिनकी माँएं नहीं होती,
वे बच्चे खाना खाते ही
सो जाते हैं
और जग जगकर
उन्हें कम्बल नहीं ओढ़ाना पड़ता।
9
वह नहीं खाती
सड़क पर गोलगप्पे।
हम सबकी इज्जत ने
बाँध रखी हैं
उसके दिमाग,
उसकी जीभ पर जंजीरें।
10
जवान होती बेटियाँ
लूट लेती हैं माँ से
भाइयों के हिस्से का भी समय।
मतलबी होती हैं लड़कियाँ
माँ बनने से पहले तक।
11
ममतामयी माँएं
नहीं बाँट पाती
अपने बच्चों का प्यार।
इसीलिए उसे मौत लगते होंगे
प्रेम-विवाह।
12
मैं भी बोलता हूं
उससे झूठ,
वो भी बोलती है झूठ
बहुत बार।
हम जानते हैं कि
हम जानते हैं,
फिर भी...
13
कहकर कि
कहीं नहीं मरेगा कलमुँहा, लौट आएगा।
रात भर
चैन से सोई रही माँ।
सच...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
18 कविताप्रेमियों का कहना है :
मतलबी होती हैं लड़कियाँ
माँ बनने से पहले तक।
bahut achhe...
वाह !
मज़ा आ गया गौरव ... बहुत अच्छा , बहुत ही अच्छा !!
गौरव जी, माँ के लिए इतनी संवेदनशील क्षणिकाएँ लिखने के लिए बधाई
^^पूजा अनिल
बहुत सुंदर | अच्छा मिश्रण है |
माँ जैसे विषय पर तो एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है |
-- अवनीश तिवारी
माँ की हर बात मी ममता छिपी होती है बस उसे समय रहते पहचानते नही हम
पिता हो जाते हैं
’सिर्फ़ पति’ बहुत बार
माँ नहीं हो पाती
’सिर्फ़ पत्नी’
एक क्षण को भी।
kya baat hai.... sach sirf sach
जो नहीं पिटे माँओं से
वे इतने कच्चे रहे
कि ख़ुद टूट गए
या तोड़ दिए गए।
वाह! गौरव जी !
गौरव जी,
एक एक क्षणिका सहेजने लायक -
माँ तो माँ है आखिर
- तामाचे के साथ
मेरे आँसुओ से पहले
माँ के आँसुओं को
मैने निकलते देखा है..
मेरी हार फिर मेरी जीत बन गयी
गौरव...दिल को छू गयीं आपकी क्षणिकाएँ! लिखते रहिये...
मैं अक््सर सोचता हूं...गौरव कैसे भांप लेता है मेरे सोचों को....और अक््सर खुद को यह कहकर तसल््ली दे लेता हूं ....मेरा पहले का नातेदार है वो...
क्या कहूँ? बस इतना कि लिखते रहिये इन दिल को छू लेने वाली क्षणिकाओं को।
बहुत खूब गौरवजी... दिल से निकली हुई क्षणिकाएँ है ! माँ विषय पर हैं इसीलिए कुछ कह नही पाऊँगा पर हाँ इसमें से कुछ क्षणिकाएँ कमज़ोर भी लगीं ...
पर फिर भी अदभुद !
bhai sirf apne hisse ka hi pyaar lete hai ladkiya. sayad maa ke karib hokar vo pyaar ko batna sikhti hai.
or haaan maa pyaar batna janti hai sayad samaj ke daar se, apne bachcho ko apne pankho me chhipana chahti hai isiliye samaj jis kaam ki svikarti nahi deta use uske bachche karte hai to daar jati hai ki kanhi uske bachcho ka gharonda banne se pahle hi na jal jaye.
behad achchi akshnikaye hai
bahut hi badhiya,har kshanika ka andaz juda,sundar. badhai.
गौरव बहुत ही कुशलता से मां के बारे में लिखा है। पसन्द आया.........
गौरव जी!मेरे हिसाब से
माँ पर आप से अच्छा कोई नहीं लिख
सकता .....
ये बात मेरे साथ साथ आपकी हर
क्षणिका खुद कहती है
शानदार, हमेशा की तरह! sp. 5, 6, 7!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)