काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - चित्र पर आधारित कवितायें
चित्र - शामिख फ़राज़
अंक - तेइस
माह - फरवरी २००९
चित्र पर आधारित काव्य-पल्लवन की शृंखला में इस बार अंक शामिख फ़राज़ के चित्र पर आधारित है जिस पर २१ कवियों ने अपनी राय रखी। अगर चित्र पर नजर डालें तो उस में भीड़ दिखाई गई है। जिसे देखते ही एक गज़ल सुनी थी कभी जिसका एक शे’र याद आ जाता है:
ज़िन्दगी की राहों में रंज-ओ-गम के मेले हैं,
भीड़ है कयामत की फिर भी हम अकेले हैं।
अधिकतर कवियों ने इसी विषय को आधार बनाकर कविता लिखी है। पिछले दिनों ही हिन्द-युग्म पर श्याम सखा ’श्याम’ की कलम से भी इस विषय पर कुछ ऐसी ही पंक्तियाँ निकली थी। हर व्यक्ति के मन में एक कवि छुपा होता है। हर व्यक्ति का किसी परिस्थिति को देखने का अपना एक नजरिया होता है।
इस बार हमारे साथ सबसे छोटी कवयित्री पाखी मिश्रा भी जुड़ी हैं जो बाल-उद्यान को नियमित पढ़ती हैं। इस बार इन्होंने काव्य-पल्लवन में भी भाग लिया है। कविता में बालपन है और हम उसे ज्यों की त्यों प्रकाशित कर रहे हैं। कुछ नये नाम भी आपको देखने को मिलेंगे और कुछ अलग विचार भी.. भीड़ से हटके।
आवश्यक सूचना: यदि आप भी अपना कोई चित्र अथवा फोटॊ जनवरी माह के काव्यपल्लवन के अंक के लिये भेजना चाहें, तो हमें २८ परवरी २००९ तक kavyapallavan@gmail.com पर भेजें। कृपया ध्यान रहे कि आपकी तस्वीर अथवा स्केच कहीं भी प्रकाशित न हुए हों।
आइये पढ़ते हैं हमारे २१ कवियों को।
आपको हमारा यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतायें।
*** प्रतिभागी ***
मनु ’बेतखल्लुस’ | एम ऐ शर्मा " सेहर" | विवेकरंजन श्रीवास्तव | पाखी मिश्रा | प्रदीप वर्मा | मुकेश सोनी | संगीता स्वरूप | मुहम्मद अहसन | पंखुड़ी कुमारी | पुनीत सहलोत | शन्नो अग्रवाल | दिनेश "दर्द" | सुरिन्दर रत्ती | कमलप्रीत सिंह | गोविंद शर्मा | शामिख फ़राज़ | शिखा वार्श्नेय | शारदा अरोड़ा | आशा जोगळेकर | रोहित चौबे "रौशन" | जय कुमार
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
बस आदमी से उखडा हुआ आदमी मिले
हमसे कभी तो हँसता हुआ आदमी मिले
इस आदमी की भीड़ में तू भी तलाश कर,
शायद इसी में भटका हुआ आदमी मिले
सब तेजगाम जा रहे हैं जाने किस तरफ़,
कोई कहीं तो ठहरा हुआ आदमी मिले
रौनक भरा ये रात-दिन जगता हुआ शहर
इसमें कहाँ , सुलगता हुआ आदमी मिले
इक जल्दबाज कार लो रिक्शे पे जा चढी
इस पर तो कोई ठिठका हुआ आदमी मिले
बाहर से चहकी दिखती हैं ये मोटरें मगर
इनमें, इन्हीं पे ऐंठा हुआ आदमी मिले.
--मनु ’बेतखल्लुस’
महानगरों की
बिखरी हुयी भीड़ का
एक हिस्सा बन
ढूँढती............
नीलापन लिए
खुला आकाश
अपनापन जताती
वो गलियाँ मुहल्ले
चेहरे पर चिपकी
एक अदद मुस्कराहट
कोलाहल से दूर
एक शान्त कोना
अपने आप को
सहलाती समझाती
इन सब में ढूढती
अपना वजूद
--एम.ए. शर्मा
हाँ गुमशुदा हूँ मैँ,
महानगर में ........,
मेरी पहचान हैं
बस कुछ नम्बर,
घर, गली का ,
पोस्ट आफिस का पिन कोड नम्बर,
है मेरा पता
फोन का या नम्बर मोबाइल का ,
ढ़ूंढ़ लेता है मुझे भीड़ में भी
और मैं चाहकर भी स्वयं को
अपने में ही ढ़ूंढ़ने के लिये तक
निकाल नहीं पाता
पल दो पल
बस समय की सुइयों के साथ
भोर से रात तक घूमता रहता हूँ ,
जिंदगी की तलाश में.
अकेला नहीं हूँ मैं महानगर में,
मैं भीड़ का एक हिस्सा हूँ यहाँ
भीड़ की पहचान बन जाता है कभी
कोई झंडा.
भीड़ पर होता है लाठी चार्ज..
भीड़ में फूटता है बम ..
अगले दिन की खबरों में
आदमियों की संख्या के रूप में दर्ज हो
जाती है मेरी मौत.
हाँ गुमशुदा हूँ मैँ ..
महानगर में
--विवेक रंजन श्रीवास्तव
इस भीड़ में खोये लोगों ,
आज की इस दुनिया के लोगों
निकालो थोड़ा वक्त अपने
देश के सम्मान के लिए ,
यूको बैंक में काम करते -
रहते हो तुम पूरे दिन ,
सामने देश का झंडा
लहराता पर ,
तुमने उसे देखकर
अनदेखा कर दिया
वह भी थोड़ा गुमसुम है
और सोचता ,
मुझे सम्मान देने वाले
अब कहां गए ?
--पाखी मिश्रा
नाजुक सा एक ख्वाब
देखा था कभी
आ कर तेरे शहर
खो गया है कहीं
आँखें रीते बर्तनों सी
लुढ़कती रहती हैं
कभी इधर कभी उधर
इस तलाश मे कि
शायद मिल जाऐ कहीं
वह ख्वाब जो कभी
अपना हुआ करता था
वह जो शहर की भीड़ मे
खो गया है कहीं
--प्रदीप वर्मा
अन्धेरी, वीरान सड़कों पर
अकेला ही चला था मै
लेकर उम्मीद की एक
नन्ही किरण ;
अँधेरा छंटता गया और
लोग जुड़ते गए
.. अब सड़को पर हो मेला जैसे और देखो
साहस का परचम ऊँचा लहराता है
--मुकेश सोनी
जंगलात के ठेकेदार हैं कि
जंगल काट रहे हैं
और शहर है कि
इंसानों का जंगल बन गया है.
अनजानी राहों पर
अजनबी चेहरे
हर शख्स के लिए
अकेलेपन का ,
सबब बन गया है.
भीड़ में भी रह कर
क्यूँ तनहा है आदमी
हर शहर है कि भीड़ का
जलजला बन गया है .
गाँव कि धरोहरें
जैसे बिखर सी गयीं हैं
पलायन ही ज़िन्दगी का
सफ़र बन गया है .
दो रोटी कि चाह में
घर से बेघर हो
आम आदमी भीड़ का
चेहरा बन गया है.
--संगीता स्वरूप
यही है मेरा शहर
मनो धुंवा निगलता ,
भीड़ में गुम होता ,
सीने पर हर रोज़ सौ ज़ख्म खाता ,
रिसते ज़ख्मों वाला
यही है मेरा शहर ;
इस शहर में
एहसास के सोते सुखाए जाते हैं
इंसानों के क़द बौने किए जाते हैं
ज़हन पत्थर बनाए जाते हैं
आत्माओं को बोली पर चढाया जाता है
हाँ , यही है मेरा शहर
इस शहर में प्रताड़ना की मीनारें हैं ,
सत्ता के दमघोटू गलियारे हैं
कंक्रीट के जंगल हैं
यह शहर गर्मियों में जलता है
बरसात में गलता है
सर्दियों में केचुल बदलता है ;
इस शहर का हर दूसरा व्यक्ति मैं हूँ .
मुसल्सल दौड़ता , भागता , रेंगता ,
जीने की जंग जीतता- हारता ………….;
यही है मेरा शहर
--मुहम्मद अहसन
ये जगत माया का जाल है
ये जीवन का जंजाल है
कोई समझे ख़ुद को धनवान
तो कोई फटेहाल है
भीड़ का हिस्सा हर इंसान
न कोई अपनी पहचान
कैसा खेल माया का देखो
ख़ुद से है हर कोई अनजान
ऊँची इमारतों और लम्बी सड़कों में
गुम होते जा रहे हैं लोग
अपनी - अपनी किस्मत का
भोग रहे हैं सब भोग
आपाधापी मारामारी
व्यस्तता बन गई है बीमारी
भौतिक सुखों की दौड़ लग रही
रो रही है आत्मा बेचारी
इतना कष्ट भोग चूके
फ़िर भी ढूंढ रहे हैं और
कष्टों से भरी ये दुनिया
कोई नही करे ये गौर
प्रकृति के नाम पे
सिर पे एक आसमान बचा है
उसका व्यापार नही हुआ अब तक
शायद उसमे बहुत खर्चा है
लूट - खसोट कर प्रकृति को
जीर्ण कर मानवता को
क्षतिज के पीछे दौड़ रहे हैं
भूल कर वास्तविकता को
शोर - शराबे में में दब गई
या जबरन दबा दी गई है
कोमलता ,
निश्छलता ,
उदारता ,
पवित्रता ,
विनम्रता
और भी बहुत कुछ ....
शायद इन्सान और इंसानियत भी
--पंखुड़ी कुमारी
जीती जागती ज़िन्दगी को दफनाता ये शहर,
हर मुफलिस को अमीरी के ख्वाब दिखाता ये शहर.
हकीक़त से कोसों दूर है गलियाँ इसकी,
हर किसी को उम्मीदों के पुल बंधाता ये शहर.
न उगते सूरज की परवाह इसे, न ढलती शाम की,
अंधेरे उजालों, उजालों अंधेरों में भागता ये शहर.
चीखुं, चिल्लाऊं, कहानी किसे अपनी सुनाऊं,
भीड़ में गुमनाम बनाता ये शहर.
ऊँची - ऊँची इमारतों के बीच,
दिल के रास्तों को तंग बनाता ये शहर.
ना पडौस यहाँ पे , ना कोई चबूतरा,
गाँव की याद में हर वक्त रुलाता ये शहर.
ना कोई गली अपनी, ना कोई मौहल्ला,
केवल सड़कों से मुलाकात करवाता ये शहर.
ना चाची की डांट यहाँ पे, ना बच्चों की शैतानी,
हर पल प्यार के लिए तरसाता ये शहर.
बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में आता है हर शख्स,
जीती जागती ज़िन्दगी को दफनाता ये शहर.
--पुनीत सहलोत
ग्रीष्म-शीत, धूल-गंध या आंधी और बारिश आये
रंग-बिरंगा अमर तिरंगा गगन के नीचे लहराये
चारों तरफ़ सैलाब भीड़ का बढ़ता जाता उसके नीचे
चेहरे उभर रहे हैं कितने कोई आगे भागे कोई पीछे.
उलझन सी है बेकलता है सबके तेज कदम हैं
कभी न होती सडको पर भीड़ कभी भी कम है
बारिश में, आंधी में या हो सूरज आग उगलता
भीड़ की दरिया में हर कोई पुतले जैसा चलता.
बाजारों में लोग हर तरफ़ जैसे हो कोई मेला सा
चहल-पहल में भी कोई-कोई बैठा यहाँ अकेला सा
कोई पेड़ के नीचे वैठा है थका हुआ संघर्षों से
यहाँ फुटपाथों पे बूढे-बच्चे भीख मांगते बरसों से.
कोई चलता है पैदल कोई बैठा है रिक्शे में
कारों में चले अमीरी इस जीवन के किस्से में
साँसों की गर्मी है यहाँ और पसीना रहा टपक
चोर-उचक्के भी यहाँ छिपे होंगे कहीं रहे भटक.
एक दरिया की तरह ही यह लोग बहे चलते हैं
पल-पल करके दिन-रात सदा यूँ ही ढलते हैं
बैंक, दुकानों में देखो लोगों का ही है जमघट
भरी हुई हर जगह और लेन-देन का है झंझट.
टोली में सब अपनी हँसते-गाते और खाते-पीते
कितने बच्चे स्कूल भी जाते होंगे करते बातें
कोई मस्त सा, कोई व्यस्त सा, कोई मचाता शोर
नये नजारे आये दिन यहाँ दिखते हैं चारों ऑर.
--शन्नो अग्रवाल
दूर तक दौड़ते रास्तों पर ये लोग,
जा रहे हैं कहाँ कुछ खबर ही नहीं
बात इतनी सी है के कुछ खो गया,
क्या खो गया, कुछ खबर ही नहीं
ये इमारतों के वन ठूंठ से ताकते,
साखरुपी खिड़कियों कि ओट से झांकते
सब मकीं छोड़कर चल दिए हैं मकाँ,
पर गए वो किधर कुछ खबर ही नहीं.
दूर तक दौड़ते रास्तों पर ये लोग.........
--दिनेश "दर्द"
इन नज़रों ने शहर की तस्वीर उतारी है,
जहाँ तलक नज़र दौड़ाई ज़िन्दगी भारी है
बोली जानवरों की सी बोलनेंवाले सारे,
मोहब्बत के हो नहीं सकते वहशत के पुजारी हैं
जीस्त की दुशवारियों से लराज़ता आदमी,
कुछ बदख़ू मिजाज़ियों का ज़ुल्म जारी है
अब इस हिर्स के जाल का असर देखिये,
रिश्तों को निभाना मजबूरी और लाचारी है
जज़्बा-ऐ-नाकाम के चर्चे रोज़ सुनते रहे,
पर किसी ने न कबूला, ग़लती हमारी है
रोज़ नये मुआमले पेश आने लगे बहोत,
एक से बचता हूँ तो दूजे ने ठोकर मारी है
जिस मुल्क़ में सैय्याद क़फ़स लिये फिरते हों,
होगी क़ैद देंगे सज़ा अब तुम्हारी बारी है
तुम भी इस भीड़ में खो जाओ तो ग़म नहीं,
हरेक दिल बेहलानेवाले खिलौने का व्यापारी है
पीने की आदत न थी हमको ग़मों ने पिलायी,
साक़ी ने जाम भर दिये अब अजब ख़ुमारी है
इस आलम में एक अल्लाहवाला ढून्ढ लाओ,
जिसे अपनी रूह नहीं सबकी रूह प्यारी है
गुलशन में गुलों के साथ कांटे भी दोस्तों,
मगर महकते फूलों ने न हिम्मत हारी है
"रत्ती" माना के तहज़ीब विरासत में नहीं मिलती,
वाइज़ की सोहबत उसकी जुस्तजू तुम्हारी है
--सुरिंदर रत्ती
इस गुलाबी ठण्ड में
गुलाबी नगरी की बीतीं यादें ,
बीते दिन
आज बरबस उभर आए हैं
इस शहर की गुलाबी आभा
अपनी तमाम ऐतिहासिक
परम्पराओं और परिवेश की
पृष्ठ भूमि को साथ लिए है
नगर की गुलाबी छटा
जहाँ इस के लोक धैर्य
सहिष्णुता और सौहार्द का प्रतीक है
वहीं इस का नगर नियोजन और
व्यस्त बाज़ारों की गरिमा
दशकों से चिरपरिचित रही
इसी सौजन्य और सांस्कृतिक संपन्नता ने
पिछले वर्ष
एक बहुत ह्रदय विदारक स्वप्न देखा था
जिस की हकीकत ने इसे विरासत से बहुत दूर फेंक दिया था
अभी तक चली आ रही
सर्व धर्म सह अस्तित्व का
एक जीवंत आदर्श
आज फिर
इस दुष्कर महाप्रश्न का उत्तर ढूँढ ने को तत्पर है
--कमलप्रीत सिंह
भीड़ मुझे डराती है,
लिया जन्म जब मैंने,
खुशी में लड़के की सोच,
आ खड़े हुए भीड़ में,
पर, देख मुझे, मायूस ही,
लौट पड़े बस लक्ष्मी ही कह,
सोचा जब मैंने, कदम बाहर रखने की,
माँ ने रोक दिया,
भीड़ ही के डर से,
डरते-डरते जब सोचा, मैंने,
तामील हासिल करने की,
तो रोका मुझे भीड़ ने,
घर के काम-काज के बहाने से,
प्रिंदे की तरह उड़ना पसन्द था मुझे,
उड़ने की सोची तो,
भीड़ ने नोच लिए मेरे पर,
सबके सामने उस बाजार में,
भीड़ देखती रही तमाशा,
और बस तालियाँ ही बजा रही थी,
देख चीर-हरण एक और द्रोपदी का,
बस यूँ ही,
भीड़ मुझे डराती रही,
हाँ, भीड़ ने दी मुझे तलवार,
कह झाँसी की रानी,
पर, भीड़ ही ने मुझे हराया,
बस, यूँ ही तलवार बनके, खँजर,
चीर गई मेरे तन को,
पर, भीड़ ने ना फिर कहा वीरांगना मुझे,
समाधि बनाकर मेरी,
``कुलच्छिनी´´ का नाम दे दिया,
इसी भीड़ ने मुझे।।
--गोविंद शर्मा
मेरे ख्याल से शाम ढली है और पॉँच बजे हैं
घर को लौटने वाले देखो हाँ लौट पड़े हैं
फिर मेरे बदन में से जाने कौन बोला था
शायद खुदा के शहर में इन दिनों मेले लगे हैं
तब मेरी रूह बुदबुदाती है कि कुछ सिक्कों की
खातिर इनकी ज़िन्दगी में झमेले लगे हैं
और हाँ आँख बोली क्या ख़ास है इसमे
बस कुछ लोग थमे हैं, कुछ लोग खड़े हैं
तब दिल पलटवार करता है उसपे कुछ यूँ
इनकी ज़िन्दगी की रफ्तार देख कहाँ रुके थमे हैं
दौड़ती ज़िन्दगी वक्त मिले तो तू ही बता देना कि तस्वीर
क्या क्या कहती है यह सवाल फ़राज़ की समझ से परे हैं
--शामिख फ़राज़
इन भीड़ भरी सड़कों पर चलता
हर शख्स अकेला लगता है
इस रेले मैं ना गुम हो कहीं
अपनी पहचान बनाता दिखता है
सदियों से लूटा गया जिसे
अपनो ने धोखा दिया उसे फिर भी
दुनिया के नक्शे मैं तिरंगा
सर उठा लहरता दिखता है.
--शिखा वार्श्नेय
दौड़ है
भागम भाग है
महानगर की
पहुँचता कोई कहीं नहीं
एक झण्डे तले
शक्ति नहीं
भक्ति नहीं
विरक्ति नहीं
बस आसक्ति है
पाने की
दौड़ है
महानगर की
--शारदा अरोड़ा
भीड़ भरा ये शहर कितना अकेला है
हर रोज लेकिन शहर में लगता इक मेला है,
हर कोई आता है यहाँ सीढी बनाने को इसे
कौन सजाये या सँवारे, सब फुरसत का खेला है ।
आत्मा शहर की दब गई कूडे के ढेरों में
सिसकियाँ सुन लेना इसकी नियमों के फेरों में ।
बचालो इसे, सम्हालो इसे, यह शहर तुम्हारा है
किसी गैर का नही, लहरा रहा तिरंगा प्यारा है ।
--आशा जोगळेकर
मानव , मकानों और
वाहनों की इस भीड़ - भाड़ में ,
अपनों को
पहचानने की व्यर्थ कोशिश
करता मैं तनहा पताका ;
शायद सभी पराये हो चले हैं ,
जीवन की इस आपाधापी में
--रोहित चौबे "रौशन"
भीड़- भाड़ से भरा था इक सहर
उस शहर में ढूंढ रहा था किसी को नजर
ऐसा लग रहा था कितना अलग सा है ये नगर
झाँक रहा था ऊपर चिल चिलाती दोपहर
भाग रहे थे लोग अपने धुन में इधर से उधर
भीड़- भाड़ से भरा था इक शहर
उस शहर में ढूंढ रहा था किसी को नजर
चलते -चलते डग मागा रहे थे हमारे कदम
रुके नही हम चलते रहे हमरे कदम
चाहत के आस हुए ना कम
किसी की तलाश में भटक रहे थे मगर
भीड़- भाड़ से भरा था इक शहर
उस शहर में ढूंढ रहा था किसी को नजर
आसमान को चूमती ऊँची -ऊँची इमारत चारों ओर
सड़क को छूता एक ओर से दूसरी ओर
सहमे हुए थे हम मगर
टूटा नही था अभी आस का डोर
भीड़- भाड़ से भरा था इक शहर
उस शहर में ढूंढ रहा था किसी को नजर
--जय कुमार
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
31 कविताप्रेमियों का कहना है :
manu ji ke lekhan ke kya kahane behad umda likha hai ... bahot khub...aur achhi shayari hai.. halaki punit abhi naya hai magar achha prayas kiya hai usne bhi...
arsh
बाहर से चहकी दिखती हैं ये मोटरें मगर
इनमें, इन्हीं पे ऐंठा हुआ आदमी मिले.
kya khoob hai,seedhi si baat itne achche andaaj me .
ek baat chitra bhejne waale se poochna chaahungi,ye humaare desh ka chitra to nahi ,gar hai bhi to phir dhawj humaara nahi ,is dhawaj ke baare me badi utsukta ho rahi hai jaane ke liye .
pakhi beta ,jaisa aap likhti hain kuch str usse badhiya nahi hai ,magar prayaas karne par aapko badhai .
baaki sab ki rachnaayen bhi man ko bhai ,humare parivaar me naye sadasyon ko "sehar" ji (khaastaurpar aapko kah rahi hoon )bhaag lene ka shukriya
एक बार चित्र देख कर लगा था कि इस पर ज्यादा कुछ लिखा नहीं जा सकेगा | पर वाह रे कवि ह्रदय , बाहर के शोर को अन्दर के शोर से जोड़ते हुए क्या शानदार कवितायें रची हैं ? आप ने जिस क्रम में इन्हें लिखा है उसी क्रम में कवियों ने मेहनत की , ऐसा लगता है | सचमुच जहां न पहुचे रवि , वहां पहुंचे कवि |
नीलम जी ने मुझसे पूछा कि यह चित्र कहाँ का है. यह अपने देश के शहर का ही चित्र है. दरअसल यह जयपुर का चित्र है जो मैंने हवा महल की छत से खींचा है.
manu ji mujhse kaha tha ke wo mere photo par likh payen ya na likh payen lekin comment zaroor karenge lekin unse pahle main unhen unki acchi rachna ke lie badhai dena chaunga.
चित्र पर कविताओ का सिलसिला अब चल निकला है .. बधाई सभी को . मेरा सुझाव है कि चित्र देते समय चित्र का भी कोई शीर्षक डाल दिया करें तो शायद कवियों की संख्या और बढ़े ....
सभी के विचार पढ़े..
बहुत ख़ुशी हुई ..सभी प्रतिभागियों को बधाई !!!!
मनु जी को खास तौर से
अक्सर मेरे से आगे आगे चलने पर :))
नीलम जी..... सही कहा है आपने हमारे हिन्दयुग्म परिवार में सभी नवोदय कवियों का स्वागत है
आगे भी अपना yoogdaan इसी तरह देते rahenge इसी ummeed के साथ
सभी को बधाई !!!
M.A SHARMA (sehar)ji ,
hum aapse behad naaraj hain ,theek hai ki
[koi haath bhi n mialaayega jo gale miloge tapaak se ,
ye ajeeb mijaaj ka shahar hai jara faasle se mila kijiye ]
ab to kaafi din ho gaye hai ,jara poora naam aur poora parichay bataane ki jahmat kijiye
nahi to hum aapse naaraj hi rahenge ,aapki neelam didi
मुझे लगता है कि शामिख जी के चित्र पर लिखी गयी यह कवितायेँ संकेत कर रही है कि शायद आगे भी काफी लोगों के मन में एक कवि की भावना के बीज अंकुरित होना शुरू हो जाएँ. इस जरिये इतने लोगों के बारेमुझे में भी जानने का मौका मिला. सबकी रचनाएं पढ़कर बहुत अच्छा लगा. मनुज जी और शमिख जी को बधाई!
शामिख जी, पूरे महीने में अक ही शेर हुआ था...साचा इसे क्या भेजूंगा ...कम्मेंट करते वाक्क ही लिख दूंगा....आप के ऑनलाइन होते ही ना दस मिनट में न केवल ग़ज़ल हो गयी .......बल्कि आप सभी की दुआ से इसी के साथ कल कविता कोष में भी नाम आ गया...
नीलम जी ,..ये पाखी मिश्रा अगर वोही नन्ही परी है...तो इसे अभी से स्तर वतर की बातों की टोपी ना पहनाएं...........
सभी को बहुत बहुत बधाई ......खासकर नन्ही पाखी को.....
विवेक जी,
मेरे ख्याल से शीर्षक देने के बाद ...कवियों की द्रष्टि में ...एक खटका सा आ लग सकता है...जो US की सोच को और कहीं जाने देने में रुकावट भी डाल सकता है....मसलन कई कवियों ने लहराते झंडे की बात की है ..जब की इस पर मेरा ध्यान नहीं गया.....शीर्षक एक होने से ...एकरसता आ सकती है...जो वैसे तो गलत नहीं है....पर मुझे लगता है के इस से कवी की सोच प्रभावित हो सकती है.....एक जगह ठहर सकती है.....ये मेरा निजी विचार है....
बाकी नियंत्रक जी जाने ..........
मनुज जी,
शीर्षक न देने के बारे में जो आपकी दुविधा है मैं उससे सोलहों आना बिलकुल सहमत हूँ.
अपने आप ही सबको सोचने का मौका मिलना चाहिए कि चित्र के भाव क्या कह रहे हैं.
sorry!sorry!sorry!
main jaldi mein apna bichar batatay huay kahna bhool gayi thi ki main koi niyantrak nahin hoon. maafi chaahati hoon kisi bhi galatfahmi ke liye.
तीन बार सॉरी देख कर हमें लगा के आप....मनु को ....मनुज लिखने के लिए सॉरी कह रहे हैं...::))
मालूम है के आप नियंत्रक नहीं हैं.....पर अपने विचार रखने का सब को हक़ है.....जैसे विवेक जी को,,,,मुझे ,,,वैसे ही आपको भी,,,,,
गौर करना सिर्फ और सिर्फ ..नियंत्रक जी का काम है....
जो न विवेक जी हैं...न मैं....और न आप....
BAAKI ABHI AAPKO JANAA NAHIN HAI...
चित्र वाकई बहुत अच्छा था। मैंने जब ये चित्र देखा तो मैंने भी ये सोचा था कि ये किस जगह का है.. भारत का है ये तो हिन्दी में "यूको" बैंक पढ़कर पता चल गया था...बाद में हॉर्डिंग को ज़ूम कर के देखा और सब कुछ गुलाबी देखा तो समझ में आ गया कि जयपुर शहर ही है..
ध्वज किसी धर्म/सम्प्रदाय या दल का हो सकता है।
मनु जी से सहमत हूँ कि शीर्षक देने से कवि के मन में वो बैठ सकता है और सोच में व्यवधान डाल सकता है। पर विवेक जी, आप हमेशा हमें सलाह देते रहते हैं जिसके हम आभारी हैं।
हम चाहते हैं कि काव्यपल्लवन को और भी मजेदार बनाया जाये और अधिक से अधिक लोग अपने विचार रखें।
जहाँ तक मुझे लगता है कि प्रदीप वर्मा, मुकेश सोनी, संगीता स्वरूप, पुनीत सहलोत, गोविंद शर्मा, शिखा वार्श्नेय, आशा जोगळेकर व रोहित चौबे "रौशन" जैसे नाम हिन्दयुग्म के मंच पर और काव्यपल्लवन में नये हैं। आप सभी को बधाई और आभार...
Sabse pehle Shamikh bhaiya ko khaas taur pe shukriya kehna chahunga ki unhone muje hindyugm ke bare me bataya or kuchh naya karne ka mauka diya.
Arsh bhaiya or Tapan ji ka shukriya ki aapne meri rachna padhi. abi shuruaat hai, aane wale samay me kuch behtar likhne ki koshish karunga.
aasha karta hu ki apko meri rachnayein pasand aayengi.
aap sabhi se apni kamiyon or galtiyon ke bare me janna chahunga.
agar bata sakein to muje behad khushi hogi.
Puneet Sahalot
http://imajeeb.blogspot.com
ईंट-सीमेंट के इस जंगल के बीच सियाह सड़क पर इधर-उधर दौड़ते-सरकते लोगों पर सभी की कोशिशें काबिल-ऐ-तारीफ़ हैं, शायद मुझे छोड़कर. मगर कहीं किसी धर्मविशेष की अगुआई करती पताका को "तिरंगा" कह देना सचमुच शर्मनाक लगा.
बाकी तो खैर ठीक ही है, मिलते हैं किसी और तस्वीर के साथ.
- दिनेश "दर्द", उज्जैन.
dinesh ji ,
yah jaipur ke rajaao ko pratibimbit karta hai ,agarwo sahar me hain ,to aur shahar ke baahar hai to doosre tarah ka dhwaj fahraaya jaata hai ,baaki jaankari to shaamikh ji hi de paayenge .
शामिख जी,
मेहरबानी करके आप यह पता लगाइए कि यह झंडा किस धर्म या सम्प्रदाय का है.......अब मुझे बेचैनी होने लगी है जानने की क्यों कि मेरे अलावा कुछ और लोगों ने भी इसे तिरंगा कहा है. कविता लिखते समय यह बारीकियां कभी-कभी ध्यान में नहीं रहती हैं. यह झंडा किसका है और क्यों है वहां पर, क्या आप कुछ रोशनी डाल सकते हैं इस मसले पर. बैसे झंडे को झंडा या तिरंगा कह देना इतने अधिक शर्म की बात भी नहीं है. किसी और के मान का प्रतीक भी हो सकता है यह झंडा. हाँ, असलियत जानना भी जरूरी है.
manu ji tatha shanno ji ki baat ka poora poora samarthan karti hoon
नीलम जी,
इसी सहारे की तलाश थी मुझे किसी से. समर्थन के लिए बहुत शुक्रिया
झंडा चाहे ये किसी भी धर्म का हो ,या दल का हो.....
यदि कवी ने इस को देख कर तिरंगा के बारे में कहा या सोचा है ..... तो कोई शर्मनाक नहीं है
है तो मेरे लिए और भी ज्यादा है.........के मुझे तो ये झंडा ही अब दिखा है.....कवी की द्रष्टि से..::))
और कवी का काम ही क्या होता है....आप उसे कुछ दिखाओ और वो कुछ और देखता है....अपने नजरिये से.....कोई भी कलाकार इस मकसद से रचना नहीं करता के वो किसी की अनदेखी...अपमान कर रहा है.....मुझे याद है के जब मैंने काव्य पल्लवन में पहली बार भाग लिया था तो किसी कवी ने.....उस वृद्ध के हाथ में रस्सिया होने की बात लिखी थी......जब की चित्र में कोई रस्सी नहीं थी....मगर कल्पना की नज़रों ने उन हाथों में रस्सी देखि और achi कविता कही.....यही बात इस बात को और भी दृढ करती है के शीर्षक नहीं होना चाहिए.....सब आजाद हैं....अपनी अपनी सोच को लेकर ....अलग अलग रंग में ....नया रचने के लिए.....
फिर भी यदि किसी दल या धर्म के सामने कला की बात होगी तो मैं हमेशा कला का ही पक्ष लूंगा..... ..तपन जी चाहें तो मुझे फिर से " बैठक " की धमकी दे सकते हैं.....:::))))))
दिनेश जी, आप देश भक्त मालूम पड़ते हैं..और ये बहुत अच्छी बात है कि झंडे के अपमान पर आप बोले... मैं भी जब तिरंगे का अपमान होते देखता हूँ तो खून खौल उठता है.. हम भी देशभक्त हैं..दिल से हैं...
हो सकता है कि कोई किसी झंडे को तिरंगा कह दिया हो, लेकिन जानबूझ कर कहा हो..ऐसा होना बहुत कम मुमकिन है।
दूसरा.. इसको थोड़ा सकरात्मक नजरिये से देखें तो पायेंगे कि लोगों को हर ओर तिंरंगा ही दिख रहा है..चाहें कोई भी धर्म/सम्प्रदाय/दल/राजा का झंडा हो सबसे पहले तिरंगा ही सोचा जाता है... यहाँ देश सर्वोपरि हुआ...
आशा है आपकी नाराज़गी कुछ कम हुई होगी..
मनु जी.. :-) कभी कोई धमकी नहीं... निवेदन था...यदि किसी विषय पर विवाद होता है तो बैठक से उपयुक्त मंच नहीं है।
शामिख जी, जिज्ञासा शांत करें।
तपन जी,
जहां चार यार मिल जाएँ ,,,
अपनी तो वोही बैठक है,,,:::))
मैं भी तो ये ही कह रहा हूँ के इसमें तिरंगे का अपमान कहा से हो गया...
कुछ न कुछ सम्मान ही हुआ है.......के किसी और झंडे में भी कवियों को ....तिरंगा ही नज़र आया है......और अब ये भी पता लग गया है की ये मुझे क्यूं नहीं नज़र आया...:::))))
तपन शर्मा जी,
आपने ठीक पहचाना बहुतों की तरह मै भी 'हिंदी-युग्म' में नया हूँ....मैंने और मेरे अभिन्न मित्र, रोहित चौबे "रौशन", ने अपने स्तर पर कोशिश की. आप लोगों से जो उत्साहवर्धन मिला है, उम्मीद है की आगे भी लिखने की कोशिश करेंगे.
- मुकेश सोनी, जर्मनी से
मनु जी, तपन जी,
आप दोनों भी सहमत हैं झंडे के बारे में, जानकर तसल्ली हुई. हम में से कोई कभी भी किसी के झंडे का अपमान करने की सोच भी नहीं सकता है. आगे से बारीकियों पर भी धयान देने के लिए चौकन्ना रहना पड़ेगा ( वर्ना कविता लिखने से आउट .. मेरा मतलब....मैं )
'चलो यह सब बंद करें विवाद
अब न रक्खें कोई कड़बी याद
जो बीती ताहि बिसारि कर अब
हम करते हैं सबको धन्यबाद.'
आप सभी से मिलकर बहुत ही अच्छा लगा, कोई तो हैं जो अपने जैसा हैं. मुकेश सोनी के सुझाव पर इस हिंदी के जाल पर सैर किया और अब ये दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया हैं. सभी की कविताये इस प्रतियोगिता में देखि, भावनाओ की गहरे से ओतप्रेट और शिद्धता से भरी हुई बिना चित्र लेने वाले की नज़र की लाइन पर जाते हुए. और हाँ कोई किसी से नाराज़ न हो ये मेरा निवेदन हैं, क्यूंकि सब अच्छा हैं और मन का हैं, ये कितनी अच्छी बात हैं की हिन्दीयुग्म के माध्यम से बिना एक दुसरे को जाने हम जुड़े हुए हैं और इसे आगे बदने में अपना योगदान देने का प्रयास कर रहे हैं, इससे भी अच्छा भला कुछ और हो सकता हैं, और यूँ भी कवि तो वही हैं तो बुरे में भी कुछ अच्छा ढूँढ ले जैसा अपने "जय हो" वाले गुलजार साहब ने इस त्रिवेणी में भी लिखा जैसा....
जुल्फ में ओस की बूंद यूँ चमकती हैं जैसे,
बेरी के पेड़ में हो नन्हा सा एक जुगनू;
क्या बुरा हैं जो छत टपकती हैं ?
ढेर सारी बधाई, शुभकामनाये और साधुवाद
"रोशन"
सब कविताएँ अच्छी लगीं । हरेक की अलग सोच एक ही चित्र पर मज़ा आ गया ।
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