काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन (विशेषांक)
विषय - विश्व पितृ दिवस
चित्र - मुकेश सोनी
अंक - सत्ताइस
माह - जून २००९
चाहें कोई भी देश हो, संस्कृति हो माता-पिता का रिश्ता सबसे बड़ा माना गया है। भारत में तो इन्हें ईश्वर का रूप माना गया है। यदि हम हिन्दी कविता जगत की कवितायें देखें तो माँ के ऊपर जितना लिखा गया है उतना पिता के ऊपर नहीं। कोई पिता कहता है, कोई पापा, अब्बा, बाबा, तो कोई बाबूजी, बाऊजी, डैडी। कितने ही नाम हैं इस रिश्ते के पर भाव सब का एक। प्यार सबमें एक। समर्पण एक।
विश्व पितृ दिवस की शुरुआत २०वीं सदी के प्रारम्भ में बताई गई है। कुछ जानकारों के मुताबिक ५ जुलाई १९०८ को वेस्ट वर्जेनिया के एक चर्च से इस दिन को मनाना आरम्भ किया गया। रुस में यह २३ फरवरी, रोमानिया में ५ मई, कोरिया में ८ मई, डेनमार्क में ५ जून, ऑस्ट्रिया बेल्जियम के लोग जून के दूसरे रविवार को और ऑस्ट्रेलिया व न्यूज़ीलैंड में इसे सितम्बर के पहले रविवार और विश्व भर के ५२ देशों में इसे जून माह के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। सभी देशों इस दिन को मनाने का अपना अलग तरीका है।
एक पुराने भजन की चार पंक्तियाँ याद आ जाती हैं:
पिता ने हमको योग्य बनाया, कमा कमा कर अन्न खिलाया
पढ़ा लिखा गुणवान बनाया, जीवन पथ पर चलना सिखाया
जोड़ जोड़ अपनी सम्पत्ति का बना दिया हक़दार...
हम पर किया बड़ा उपकार....दंडवत बारम्बार...
परन्तु आज के दयनीय हालात पर कुछ समय पहले मैंने कहीं एक बूढ़े पिता की व्यथा में ये पंक्ति पढ़ी थी। बचपन में मैंने अपने चार बेटों को एक कमरे में पाला पोसा, अब इन चार बेटों के पास मेरे लिये एक कमरा भी नहीं है!!
न जाने क्यों हम इतने कठोर हो जाते हैं।
हिन्दयुग्म ने पिछले वर्ष भी विश्व पितृ दिवस मनाया था। अगर पिछली बार के काव्यपल्लवन की कवितायें भी मिलायें तो हिन्दयुग्म पर अब तक करीबन ४० कवितायें पिता को समर्पित करी जा चुकी हैं।
अभी हाल ही में हिन्दयुग्म के अतिथि कवि हरेप्रकाश उपाध्याय द्वारा पिता पर लिखी हुई एक कविता प्रकाशित हुई थी।
हिन्दयुग्म के पसंदीदा कवियों में से एक गौरव सोलंकी की कविता 'पिता से' सबसे ज्यादा पसंद की गई कविताओं में शामिल है। 'पिता से' कविता के बाद हिन्द-युग्म के पाठकों ने गौरव को दिल में बसा लिया। इसी कविता को शैलेश भारतवासी ने अपनी आवाज़ भी दी।
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
अन्य कविताओं में शामिल है गिरिराज जोशी की 'पापा! आप समझ रहे हैं ना' जिसे ४१ टिप्पणियाँ प्राप्त हुई और खूब सराहा गया। मनीष वंदेमातरम् ने अपनी एक क्षणिका में पिता को खेत में खड़ी फसल कहा। तुषार जोशी ने 'ओ बाबा कितने, प्यारे हो तुम' में अपनी सरल लेखनी से पिता पर कलम चलाई
शोभा महेन्द्रू ने पुरूष के एक महान चेहरे के रूप में 'एक पिता' को बताया, निखिल आनंद गिरि ने अपने 'पापा के नाम' कवितानुमा एक खत लिखा है और पिता के प्रति अपनी सारी संवेदनाएँ व्यक्त करने की कोशिश की है। अवनीश एस. तिवारी ने भी कुँवारी बेटी के पिता की चिंताओं व भावनाओं को कविता द्वारा प्रस्तुत किया|
आज फिर हम लेकर आयें अपने पाठकों की पिता को समर्पित कवितायें। इस बार हमारे साथ एक छोटे से नन्हे कवि सीतापुर से आठवीं कक्षा के नील श्रीवास्तव भी जुड़ रहे हैं। छोटा सा बचपन अपने पापा के बारे में क्या सोचता है जरूर पढ़ें।
हिन्द-युग्म के सभी पाठकों को पितृ दिवस की बधाइयाँ। यदि आपके मन में भी कुछ भाव आ रहे हों या कोई वाकया याद आ रहा हो तो टिप्पणी कर हमारे साथ जरूर बाँटें।
अपने विचार ज़रूर लिखें
वो,
शख्स जो मुझे बात बात पर
डाँटता था
या मेरी शैतानियों से तंग आकर
कभी मारता भी था
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
वो,
कभी अच्छे मूड़ में हो तो
घुमानए भी ले जाता था
यदि तनख्वाह के बाद घर लौटा है
तो कुछ भी मांग लो ना नही कहता था
मैं,
कभी खंगालने लगूं उसकी जे़ब
या खोल लूँ ऑफिस का बैग
नाराज हो जाता था
मेरी,
कोई बात अच्छी लगी हो तो
बाँहों में भर लेता
या कभी मेरे बालों में
अपनी खुरदुरी उंगलियाँ फिराता
या कभी रोने लगता
मुझे अपने सीने से लगाकर
जैसे,
एक बेनाम सा रिश्ता था
हम दोनों में
या कोई कशिश थी
जो बांधकर रखती थी
हम,
दोनों में
अक्सर किसी न किसी बात पर
हो जाती थी तकरार
अगर मैं नाराज हूँ तो मनाता भी नही था
पूरा,
बचपन बीत गया
खिलौने से दूर
बस, आग ही पलती रही मेरे सीने में
मैं,
जिन्दगी भर अभिशप्त रहा
आग को अपने सीने में
सहेजे जीते रहने के लिये
गलियाँ छूटी, मुहल्ला छूटा
फिर छूटते गये दोस्त
और वो शख्स भी
अब,
वो शख्स
आता है मेरे ख्वाबों में
मेरे सीने की आग नापता है
और शोलों की चमक में
खोजता है अपने आप को
मैंने,
बहुत बार कोशिश की
कि, मैं नाम दे सकूं हमारे रिश्ते को
या कोई पहचान दे सकूं
ठीक से तो कुछ याद आता नही
हाँ, माँ किसी मौके पर कुछ
कहा था हमारे रिश्ते के बारे में
--मुकेश कुमार तिवारी
उस इन्सान की इबादत,
उसकी दुआओं का
फल हूँ मै।
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
जिसने मुझे बनाया है,
उसकी छाया,
उसका प्रतिरूप हूँ मैं।
वो अथाह सागर हैं,
महज
एक कतरा ही हूँ मैं।
फिर क्यूँ ?
समझते हो मुझे महान!
महान! मैं नहीं,
वो इन्सान हैं
जिसकी सन्तान हूँ मैं।।
--तरूण सोनी ’तनवीर’
पिता का रूप
तेरी आँखों की सच्चाई मेरी ज़ंजीरें
तेरे चेहरे का भोलापन मेरी बेडी
तेरी सांसें , जिंदगी का हासिल मेरी
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
तेरे थके पाँव की मंजिल ,मेरा कान्धा ;
मैं खुद से भाग सकता हूँ,
जिंदगी से भाग सकता हूँ
मगर जाऊं गा कहाँ तुझ से भाग कर !
तपती धूप की शिद्दत,
बर्फ सी ठंढी हवाएं ,
तेज़ ओ तुन्द तूफां के झक्कड़ ,
दुनिया के काले नाग और कंटीले रास्ते ;
मुझे हिफाज़त करनी है तेरी एक नाज़ुक पौध की मानिंद ,
तेरी उम्र को सींचूं गा मै अपने रगों के खून से ,
अपने फ़िक्र ओ फ़न से ;
खाद दूँ गा तेरी जड़ों को
अपने पसीने की बूंदों से ;
तुझे बढ़ता देखूँ गा मैं
एक मुस्तहकम दरख्त की मानिंद ,
वो दरख्त कि जिस में
इल्म की शाखें हों ,
अक़ीदे के फूल हों,
फ़राएज़ के फल हों ;
खिदमत का साया हो,
और सब्र ओ सुकूं के बर्ग हों
वो दरख्त जो सूख कर भी जिंदगी बख्शे ;
मैं तुझ में ढूंढूं गा वो इंसा
जिस में अज़्म हो
किरदार हो,
हिम्मत हो;
जो मेरी उन जंगों को जीत ले ,
जिन्हें मैं हार आया था न जाने कितने साल पहले
नहीं, मेरे बेटे नहीं !
अभी तुम्हे मेरे काँधे पर बहुत दूर जाना है
.................................................
हासिल- उपलब्धि
फ़िक्र ओ फ़न - चिंता एवं कला
मुस्तहकम - मज़बूत
इल्म - ज्ञान
अक़ीदे - विश्वास, आस्था
फ़राएज़ - कर्तव्य
खिदमत - सेवा
बर्ग- पत्ते
अज़्म- निश्चय
किरदार - चरित्र
--मुहम्मद अहसन
पिता
एक ऐसा किरदार
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
जो दे जीवन को आधार
करता है भरण-पोषण
उठाये कन्धो पर हमारा भार
पिता
एक ऐसा व्यक्तित्व
जो दिखता है सख्त
किन्तु है कोमल ह्रदय
जीवन के पग-पग पर
हमको दिलाता विजय
पिता
एक नाम जो जरूरी है
यही हमारी पह्चान की धुरी है
यूँ तो जन्म देती है माँ
पर वो भी इस नाम के बिना अधूरी है
पिता
एक अटूट हिस्सा जीवन का
साथी हमारे बालपन का
मेला हो या हो भारी भीड़
दिखाये हमें दुनिया की तस्वीर
पिता
जिसके कांधों पर चढ़ इतराते हम
कभी घोड़ा बना उसे इठ्लाते हम
बनकर बच्चा हमारे साथ
मिलाता वो कदम से कदम
--दीपाली तिवारी
अधिक प्रशंसा तनिक प्रतारण ,
उपदेश नहीं बस स्वयं उदहारण
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
सीमित शिकायत जग ,जीवन से ,
क्रोधित नहीं किसी भी कारण .
मृदुभाषी सन्यासी जैसे
कार्य कुशल कर्तब्य परायण .
धर्मालु धर्मांध नहीं पर ,
करते प्रतिदिन प्रभु गुण गायन ,
स्थितप्रज्ञ मर्मज्ञ पिता जी !
नर में लगते एक नारायण .
--डा. कमल किशोर सिंह
पिता को कितना था रूलाया?
पिता बनकर समझ आया।
क्रोध मेरा,
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
उन्होंने झेला,
जेब में न था,
एक धेला,
माँगों का था,
बस झमेला
जब मैंने
आँसू बहाया,
दिल मैंने,
कितना दुखाया?
पिता बनकर समझ आया।
अभाव,
उन्होंने,
खुद थे झेले,
मुझको दिखाये,
फिर भी मेले,
मेरी मुस्कराहट की खातिर,
अपने दु:ख थे,
उन्होंने ठेले।
उनको,
कितना था रूलाया?
पिता बनकर समझ आया।
रोया, रूठा, भाग छूटा,
फिर भी
उन्होंने,
न,
तनिक कूटा,
ढूढ़कर वापस ले आये
आँसू पौंछ,
माँ से मिलाये,
खाया न कुछ भी,
बिना खिलाये।
जिद कर,
कितना सताया?
पिता बनकर समझ आया।
पढ़े, लिखें,
आगे बढ़े हम
कर्म उत्तम,
करते रहे हम,
चाह थी बस,
उनकी इतनी,
पूरी कर पाये हैं कितनी?
मारा क्यों था?
मुझमें जूता।
मारकर क्यों था मनाया?
पिता बनकर समझ आया।
भले ही घर से निकालूँ,
भले ही उनको मार डालूँ,
समझेंगे नहीं,
फिर भी पराया,
कहेंगे नहीं,
मुझको सताया।
कितना था ऊधम मचाया?
पिता बनकर समझ आया।
चाहते हैं मुझको कितना?
काश!
तब मैं समझ पाता,
दिल नहीं,
उनका दु:खाता।
ऋण नहीं है,
जो चुकाऊँ,
रकम दे पीछा छुड़ाऊँ।
मेरा नहीं कुछ,
जो दे पाऊँ,
चरणों में खुद को चढ़ाऊँ।
मैंने केवल गान गाया,
पिता बनकर समझ आया।
--संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
यूँ तो ऊँगली थाम के मुझको चलते थे बाबा मेरे
जब बड़ा सा नाला आता कंधे मुझे चढाते थे बाबा मेरे
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
कुछ यूँ छोटी छोटी बातें मुझको सिखाते थे बाबा मेरे
लिखने से पहले हाशिया छुड़वाते थे बाबा मेरे
जब आँगन की ईंटों से टकराके मैं गिर जाता
ईंटों को खूब फिर चिल्लाते थे बाबा मेरे
रोता था आंसुओं से जब भी मेरे हर आंसू का मोल लगाते
फिर ढेर सारा खट्टा मीठा चूरन दिलवाते थे बाबा मेरे
जब साईकल सीखते पे गिरता था बार बार मैं
तब दोबारा उठने की हिम्मत ताक़त बन जाते थे बाबा मेरे.
--शामिख फ़राज़
माता की ममता पिता का दुलारा
प्यार हम तुझसे बेशुमार करते हैं..
कंधे पर बैठाकर कुछ ख्वाब संजोये
सीना तान के फिर इज़हार करते हैं..
शिकवे गिले क्या करें इनसे
जहाँ ये हमारा आबाद करते हैं ..
खालीपन सूनापन जब महसूस होता है
इन लम्हों को फिर हम याद करते हैं..
ये मेरी बगिया के सुन्दर फूल
ये जान ये दिल तुम्हें निसार करते हैं..
--एम.ए.शर्मा ’सहर’
काश...... आज आप हमारे साथ होते
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
हमारे सर पर आपके दोनों हाथ होते
आपकी हँसी , आपकी जिन्दादिली
मुश्किलों में भी वो हँसी - ठिठोली
आज भी मुझको याद आती है ...
काश के हम आपको कभी न खोते
काश आज आप हमारे साथ होते ................
मुझे डर लगता है आपको याद करना
मैं खुद में ही उलझा रहना चाहता हूँ
चाहता हूँ किसी पल आपका ख्याल न आये
आपकी तस्वीर से मैं नजरें चुराता हूँ
क्योंकि, मैं जानता हूँ , आपकी याद मैं सह नहीं पाउँगा
आपको याद करूँगा तो, आपके बिना रह नहीं पाउँगा
अब तो हम आपको दिल की गहराइयों में हैं संजोते
काश आज आप हमारे साथ होते ................
मेरी हर सफलता की चमक आपके चेहरे पर दिखती
मेरी निराशाओं में आप ही तो हौसला देते
मुझसे ज्यादा मेरी खुशियों की चिंता आपको सताती
आज भी हर ख़ुशी आपका अहसास है दिलाती
लगता है मेरे हर पल में आप सदा होते
तो, दुःख में भी हम कभी नहीं रोते
काश आज आप हमारे साथ होते ................
पर मैं जानता हूँ कि मैं अकेला नहीं हूँ
आज भी आप कहीं न कहीं बस रहे हो यहाँ
आपकी आँखें शायद आज भी देखती होंगी
कि, आपके बिन हम तड़प रहें है यहाँ
इसलिये , जैसे गए थे आप अचानक ,
वैसे ही वापिस आ जाइये
क्योंकि, मैंने सुना है इश्वर के यहाँ चमत्कार भी है होते
मैं राह देखूंगा आपकी हर पल , जागते या सोते
" पापा" आ भी जाओ तोड़कर 'जीवन-मरण' के समझौते ...................
--अमित साहू
अन्तिम इच्छा
पुत्र का जन्म पिता के लिए
खुशियों की सौगात लाया,
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
पिता ने प्यार से पुत्र को गोद में लिया
और बाहों में झूला झुलाया !
अंगुली पकड़ चलना सिखाया
अपने हाथों से हर इक निवाला खिलाया,
अक्षरों से पुत्र की पहली मुलाकात करवाई
काँधे पे बिठा कर ये दुनिया दिखाई !!
पिता ने अपनी मेहनत-मशक्कत से
पुत्र के लिए इक महल बनवाया,
बड़े अरमान से पिता ने उस महल में
पुत्र की हर सुख-सुविधा को जुटाया !
पुत्र की ओर देख पिता मन ही मन में बोला-
'कोई आशा नहीं रखता हूँ तुमसे,
मगर ये उम्मीद जरूर है दिल में
कि हमारे दिए संस्कार व्यर्थ नहीं जायेंगे !
आने वाले वक़्त में यही संस्कार तुम्हें
एक नेक-दिल और अच्छा इन्सान बनायेंगे,
कलियुग की इन संगदिल पथरीली राहों पे
तुम्हें संभल कर चलना सिखायेंगे !!
हम जानते हैं की एक आशा ही
इंसान के सब दुखों की जननी है,
हमें भी तुमसे अपने बुढापे के लिए
कोई बड़ी भारी आशा नहीं रखनी है !
हम तुमसे अपने आने वाले बुढापे में
दो मीठे बोलों की उम्मीद जरूर रखते हैं,
वृद्ध-आश्रम के फैले हुए लम्बे दालानों की बजाय
घर के एक छोटे कमरे में ज्यादा जी सकते हैं !!
उस वक़्त हमारे लड़खड़ाते क़दमों को
तुम्हारी मज़बूत बाँहों का सहारा मिल जाये,
हमारे बुढापे की तन्हाइयों को
तुम्हारे दो मीठे बोलों का सहारा मिल जाये !
कभी हम भी तुम्हारे बच्चों के साथ
अपना बिसरा हुआ बचपन दोहराना चाहेंगे,
बस....और आखिरी वक़्त तुम्हारे घर से
तुम्हारे ही कन्धों पे जाना चाहेंगे !!'
-- अनु केवलिया
बाबा तुम्हारे कन्धों पर चढ़ कर
न जाने कितने मेले मगरे देखे
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
न जाने कितनी दुनिया देखी
बाबा तुमने मुझे दिखाई दुनिया
जब मुझे समझ भी नहीं थी
दुनियादारी की
कभी दायें कंधे
कभी बाएँ कंधे
कभी दोनों टाँगे
एक-एक कंधे पर रखकर
मैं लेता रहा आनंद
दुनिया के नजारों का
और जब मैं ज़मीन पर
चलने लायक हुआ तो
तुमने उतार दिया ज़मीन पर
लेकिन मैं चला नहीं ज़मीन पर
आसमान पर उड़ने लगा
तुमसे दूर...दूर...इतना दूर हो गया
कि तुम्हारे गहरे अनुभवों को भी
दरकिनार कर दिया
जब-जब घर में
टी. वी.,फ्रिज,कंप्यूटर,माईक्रो
जैसे उपकरणों ने दस्तक दी
मैंने उनसे दूर रहने की
हिदायत देते हुए कहा
तुम नहीं समझोगे बाबा
नए ज़माने की चीज़ों को
मुझे कंधे पर बैठा कर
दुनिया दिखाने वाले बाबा
मैंने खींच दिए परदे
तुम्हारे कमरे के आगे
ताकि ड्राइंग रूम में बैठे
मेरे दोस्तों को
तुम्हारी भनक भी न पड़े
तुम्हे हर चीज़ तुम्हारे कमरे में ही
पहुंचाने की ज़िम्मेदारी ले ली
ताकि तुम बाहर के
कमरों में आकर
हमें दखल न दो
मै तुम्हारे सिरहाने बैठ कर
दवाएं देता रहा
और तुम्हारे प्राण उड़ने की
करता रहा प्रतीक्षा
जिंदगी को अपने कंधो पर
दिखाने वाले बाबा
मैं तुम्हे नहीं बैठा पाया
अपने कन्धों पर
जीते जी कुछ नहीं कर पाया
तुम्हारे लिए
बस अंत समय में
''कन्धा'' ही दे पाया तुम्हे |
--संगीता सेठी
एक पिता की यही कहानी
पिता परमेश्वर पिता है ज्ञानी, पिता विद्वान, पिता विज्ञानी,
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
एक वृक्ष की एक कहानी लादे फल खड़ा अभिमानी,
सुर-मुर नदिया सी बहती है ऐसी उसकी जवानी,
लहरों में भी सीधा चलता है, हाथ में दो घूँट पानी,
दो सवालो में तय करता अपनी आगे की जिंदगानी,
दो सवालो में रह जाता उसकी आँखों का वो पानी ,
दो खंजर से ही वो मरता वरना मौत उसे कहाँ आनी,
एक पिता की यही कहानी, एक पिता की यही कहानी |
--नितिन अग्रवाल
हर पल प्रहर गुजर कर
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
दिन महीने वर्ष बनकर
आया है पर्वों का पर्व
महापर्वराज पितृ दिवस
पितृ दिवस पर होता हर्ष
विश्व पिताओं को दूं बधाई
पिता पालक जनक बन
देते जीवन को नव जीवन
हो वात्सल्यस्वरूप की खान
दुखहर्ता सुखकर्ता सा है नाम
न्यौछावर रहता है तन मन
ऐसे पिता होते सदा महान
--मंजु गुप्ता
माँ पवित्र पूज्य, पिता भी भगवान,
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
सारे तीरथ चरणों में, घर बसे भगवान
वो खुशकिस्मत जिनको, इनका आधार मिला,
पायी असीम कृपा, और बहुमूल्य सामान
संस्कृति की धरोहर, सौंप देंगे तुमको,
आने वाली पीढियों को, देंगे कुछ इनाम
पुत्र श्रवण कुमार मिले, जीवन हो सफल,
पिता की मेहनत का फल, बुढ़ापे में आराम
चलना, फिरना, पढ़ना, लिखना, सब तो सिखाया,
पिता, गुरू, मित्र भी, उन्हें कोटि-कोटि प्रणाम
पिता तो पिता है, न आस रखे बच्चों से,
देना-देना सीखा बस, प्रेम है निष्काम
समृद्ध हों धनवान हों, बच्चे हमारे "रत्ती"
पिता की यही कामना, वो सच में हैं महान
--सुरिंदर रत्ती
जब जब जन्म दिया
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
पुत्र को माँ ने
एक अनोखी डोर बाँधी पिता ने
दुनिया मे नाम कराने का,
एक सफल मुकाम दिलाने का,
सपना पाल लिया
बिन कहे पिता ने ,
जब जब उंगली पकड़
आगे बढ़ने को
कदम बढ़वाए हैं
मेरा हाथ थामेगा एक दिन
कुछ ऐसे ख्वाब सजाए हैं ,
जब जब चोट खाई पुत्र ने
अनदेखी पीड़ा का दंश
झेला है पिता ने
घर के किसी कोने ने
देखा है हर वो आँसू
जो क्रोध वश हो
जिगर के टुकड़े को
मारने पर
पिता की आँखों ने बहाया है,
कैसे निर्मम हो सकती हैं
वो आँखें ,
जिन्होने दो नन्ही आँखों को
ख्वाब देखना सिखाया है ,
ये बात वो क्यू नही जानते
जो रंजिश की तलवार चलाते हैं ,
कैसे भूल जाता है उनका दिल
वो पल ,
वो लम्हे ,
जब काँटा बेटे को लगा था
और पाँव उनका सूज गया था ...
--रेणु दीपक
पापा बहुत अच्छे ....
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
मुझे बहुत प्यार करते ....
जब भी मैं गलती करता ....
वे मुझको डांट भी देते ....
और तो और ...
मेरा छोटा भाई....
जब शैतानी करता .....
तो पापा साथ-साथ.....
मुझको भी डांटते हैं ....
मेरे पापा.....
मेरे साथ खूब खेलते हैं .....
मेरे पापा ....
हर कठिन घड़ी में ....
मुझको....
हिम्मत बंधाते हैं ....
मैं अपने पापा का .....
खूब रखता ख्याल .....
और करता .....
उनको बहुत प्यार ......
--नील श्रीवास्तव
मेरे पापा
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
मेरे अस्तित्व के बारे में,
जैसे ही लगी भनक
सुनते ही माँ के कंगन की खनक
वे उछले खुशी से और
माँ को अपने अंक में भींचा
कहने लगे हुआ आज अंकुरित
जिसे इतने दिनों से सींचा
और मचलकर बोले
दो ना मुझे एक बेटा
जिसे कंधे पर बिठा कर अपने
मैं लौट चलूँ बचपन को,
यह सुनते ही
माँ की सुन्दर सी पलकें
लाज के बोझ से और भी हुई भारी
हर्ष मिश्रित भय से वे कुछ सहमी बेचारी
साथ साथ रक्तिम हुए कपोल
और मुँह से फूटे ये बोल
ना बाबा ना
मुझे तंग करने के लिए
एक तुम ही हो काफी
वो भी तो होगा तेरा ही साथी
यदि आया बेटा तो
होगा तो तुम्हारे ही जैसा
वो भी चाहेगा खूब पैसा
मैं तो लाऊंगी एक प्यारी सी गुड़िया
जो महकायेगी अपना आंगन
बनेगी मेरी परछाई
संग संग करेगी तुम्हारी खिचाई
फिर दोनों संग-संग
लौट चलेंगे बचपन को,
यह सुनते ही गरजे पिता
नहीं चाहिए मुझे बेटी
इतनी भी नहीं है
हमारी अकल खोटी
हमेशा से हमारे खानदान में
पहले बेटा ही होता आया है
ये मैंने अपने बाप से विरासत में पाया है
नहीं देख सकता मैं
होते हुए तुम्हारा ये अपमान
यदि जनोगी एक बेटा
तो पाओगी अपनों से भी सम्मान ,
सुनते ही माँ हुई हतप्रभ
अहसास वेदना का उनकी
गर्भ में मैंने किया सहमकर
फिर भी दिखाई अपनी प्रतिक्रिया
मैंने उचक-उचककर
परन्तु इच्छानुसार पिता की
लायक बेटा ही तो बनना
बनी थी मेरी विवशता |
पलने लगा गर्भ में मैं
पापा मुझको अनुभव करते
माँ के पेट से कान लगाकर
मुझसे प्यारी बातें करते
माँ की पीर दूर करने को
कितने मुझको गीत सुनाते
जैसे ही मैं थोडा हिलता
पापा फ़ौरन खुश हो जाते
बड़े जतन से बड़े प्यार से
माँ का वो पेट सहलाते
माँ की सेहत की खातिर वो
नियमित माँ का चेक-अप कराते
काट-काट कर फल खिलाते
अपने हाथों जूस पिलाते
जब भी माँ उदास हो जातीं
माँ के सच्चे साथी बनते |
कुछ-कुछ सहमे पिता हमारे
अस्पताल में थे बेचारे
जैसे सुना कि आया बेटा
सुनकर फूले नहीं समाये
फ़ौरन ही लड्डू बंटवाए
अस्पताल में नोट लुटाये
माँ को वार्ड में लेकर आये
घबराहट में अपने बेटे को
ओ0 टी0 में ही भूल के आये
पर जैसे ही मैं आया याद
पापा ने मुझे दिया सहारा
मेरे पास ही समय गुजारा |
शल्यक्रिया से था मैं आया
मेरी माँ को भी समझाया
रखना अवश्य अपना ध्यान
उठाना मत भारी सामान
कैसे माँ काम निपटाती
कैसे घर में खाना पकातीं
अपनों नें जब किया किनारा
आखिर पापा बने सहारा
घर का सारा करते काम
संग में रखते माँ का ध्यान ,
घंटों पापा मुझे खिलाते
मुझको अपनी गोद उठाते
मेरा सारा काम निबटाते
लोरी तक वो मुझे सुनाते
व्यवसाय की भी जिम्मेदारी
वो भी संग में लगती भारी
माँ के सारे नाज उठाते
हाथों से मुझको नहलाते
जॉन्सन बेबी सोप लगाते
मुझको अपने गले लगाते
मेरी एक किलकारी सुनकर
अपने गम सारे भूल जाते |
थोडा बड़ा हुआ मैं जैसे
माँ के आँचल में सोता था
जैसे हाथ लगाते माँ को
फौरन जोर से मैं रोता था
फिर से दोनों मुझे सुलाते
खीझते थोड़ा मुझ पर पापा
करवट वो लेकर सो जाते
उठकर सुबह चूमते मुझको
कांधे पर मुझको बैठाते
मुझको पापा खूब घुमाते
सुनकर मेरी तोतली बोली
झुककर वो घोड़ा बन जाते
माँ बोलती टिक-टिक-टिक-टिक
पापा मुझको सैर कराते
जब मैं बिस्तर गीला करता
इस्तरी करके उसे सुखाते,
जब बीमारी मुझे लग जाती
माँ के संग जागते पापा
सुबह सुबह को बड़े प्यार से
स्कूल मुझे ले जाते पापा
तरह तरह से मुझे हँसाकर
गाना मुझे सुनते पापा
आत्मविश्वास बढ़ाने को मेरा
संग में दौड़ लगाते पापा
कभी किसी से ना वो डरते
बड़े वीर थे मेरे पापा
शैतानी प्रिय शौक था मेरा
खूब पिटाई करते पापा
फिर समझाते वो मुझको
शैतानी तो नहीं है अच्छी
पढना-लिखना यदि अपनाओ
सफल व्यक्ति तुम बन सकते हो
माँ तो पढ़ना-लिखना सिखाती
अक्षर अक्षर ज्ञान कराती
मेरी पढ़ाई को ले करके
बेफिक्र हो चले मेरे पापा
उनसे सीखा सब कुछ मैंने
आदर्श मेरे हैं मेरे पापा |
सब कुछ अब तो पास में अपने
संग में आज नहीं माँ-पापा
उनके ना रहने पर ही
उनकी कीमत पता चली है
उन्हें याद कर-कर के
कतरा-कतरा हूँ मैं रोता
किसी बुजुर्ग का बनूँ सहारा
मन में अपने चाह यही है
यदि मैं ऐसा ही कर पाऊँ
यही तो उनको श्रद्धांजलि है |
क्योंकि आज
चार बच्चों को पालता है एक पिता
लेकिन चार बेटे मिलकर भी
एक पिता को पाल नहीं पाते ||
-अम्बरीष श्रीवास्तव
घर आंगन में बरगद की छाया से छाये बाबूजी।
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
नन्हीं गुड़िया पूछ रही है क्या ले आये बाबूजी ।।
गुडिया पप्पू की पढ़ाई की उचित व्यवस्था करना है ।
इसीलिये घर के गहने गिरवी रख आये बाबूजी ।।
बाबूजी ने दिया सहारा तब तो मैं चलना सीखा ।
अगर कभी मैं गिरा उठाने झट से आये बाबूजी ।।
कम पैसों में घर का खर्चा अम्मा कैसे ढोती है ।
तीस बरस हो गए अभी तक समझ न पाये बाबूजी ।।
राम रहीम सभी के घर में बाबूजी आते जाते ।
एक दिया दीवाली पर हर घर दे आये बाबूजी ।।
सारी उम्र नौकरी करके बाबूजी ने क्या पाया ।
इस युग में भी बा-इज्जत वापिस घर आये बाबूजी ।।
--सजीवन मयंक
नेवीगेशन विकल्प
मुकेश कुमार तिवारी
तरूण सोनी ’तनवीर’
मुहम्मद अहसन
दीपाली तिवारी
डा. कमल किशोर सिंह
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
शामिख फ़राज़
एम.ए.शर्मा ’सहर’
अमित साहू
अनु केवलिया
संगीता सेठी
नितिन अग्रवाल
मंजु गुप्ता
सुरिंदर रत्ती
रेणु दीपक
नील श्रीवास्तव
अम्बरीष श्रीवास्तव
सजीवन मयंक
नीलम प्रभा
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
तेरे आशीषों की छाँव तले ये लता हर पल फूले-फले
कहीं भूले से ये छाँव हटे ना
सुख की ये शारदीय धूप हटे ना
प्यार के उजले ये बादल छंटे ना .....
भाग हमारा हम हैं तुम्हारे
तेरी आँखों के चाँद -सितारे
बचपन बीता आई जवानी
पर इस मीठे सागर का ये पानी
अपनी दुआओं से कभी भी घटे ना.....
ठहरे न दुःख तेरी आंखों के आगे
रोज एक सुख करवट लिए जागे
ऊँचा आकाश है मन्दिर ऊँचा
पर कब हमने इनको है पूजा
सरे किस्मत तेरे दर से उठे ना ....
जीवन-पात्र मेरा खाली रह जाता
पिता के रूप में जो तुम्हें नहीं पाता
इसके आगे नहीं निष्कर्ष कोई
दूसरा नहीं मेरा आदर्श कोई
और कहीं पे कभी हम तो झुके ना.....
हृदय फलक पर चित्र तुम्हारा
बड़े ही मन से ज़िन्दगी ने उतारा
एक-एक पल का रंग संजोया
भावों की तूलिका को इसमें डुबोया
बाद मेरी मृत्यु के भी चित्र ये हटे ना ....
--नीलम प्रभा
छोटा-सा मेरा घर
सुखी परिवार
इस परिवार की घनी छाँह-मेरी मां
मजबूत जड़- मेरे पापा
जिस पेड़ की जड़ जितनी मजबूत होती है.
उस पेड़ की छांह उतनी ही घनी होती है.
पापा...
जिम्मेदारियों को
कंधों पर उठाते हैं.
कभी बच्चों के साथ
बच्चा बन जाते हैं.
घोड़ा बन पीठ पर बिठाते हैं
दादा- नाना बन
कहानियां सुनाते हैं.
कभी शिक्षक बन पढ़ाते हैं.
कभी मां बन दुलराते हैं.
वे गीता कुरान की तरह पवित्र हैं
पापा...
मेरे पापा मेरे सबसे अच्छे मित्र हैं
--डॉ॰ सुरेश तिवारी
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
61 कविताप्रेमियों का कहना है :
काव्यपल्लवन भी एक प्रकार की प्रतियोगिता है जिस में चित्र देख कर कविता लिखना होता है.
खेद है कि इस अंक में प्रकाशित कुछ कविताओं को छोड़ कर अधिकतर कवितायेँ चित्र पर आधारित नहीं हैं. अधिकतर पिता-पुत्र के संबंधों पर आधारित सामान्य प्रकार की कवितायेँ हैं.
इन्हें क्यूँ प्रकाशित किया गया है, समझ से परे है. इन को लिखने के लिए चित्र की आवश्यकता ही नहीं थी.
मूर्ख हैं मेरे ऐसे वे प्रतियोगी जिन्हों ने इस को गंभीरतापूर्वक लेते हुए चित्र पर कविता भेजी.
मुहम्मद अहसन
पापा के बारे में पढ़कर दिल भर आया
सारे कवियों की रचनाएँ अच्छी लगीं, विशेषकर कक्षा ८ के बालकवि नील श्रीवास्तव , मुकेश कुमार तिवारी , शामिख फ़राज़ , मुहम्मद अहसान, नितिन अग्रवाल की कवितायेँ प्रभावशाली लगीं,
अम्बरीष श्रीवास्तव की ये पंक्तियाँ भी दिल को छू गयीं ..............
सब कुछ अब तो पास में अपने
संग में आज नहीं माँ-पापा
उनके ना रहने पर ही
उनकी कीमत पता चली है
उन्हें याद कर-कर के
कतरा-कतरा हूँ मैं रोता
किसी बुजुर्ग का बनूँ सहारा
मन में अपने चाह यही है
यदि मैं ऐसा ही कर पाऊँ
यही तो उनको श्रद्धांजलि है |
क्योंकि आज
चार बच्चों को पालता है एक पिता
लेकिन चार बेटे मिलकर भी
एक पिता को पाल नहीं पाते ||
यह पढ़कर मैं भी पापा के प्रति अपने भावः व्यक्त कर रहा हूँ....
मेरे पापा प्यारे प्यारे
वो हैं जग से न्यारे-न्यारे
ऑफिस से जब घर वो आते
हमारे लिए सौगातें लाते .....
जब भी हम आपस में लड़ते
पापा हमको डांट पिलाते
चुपके से हम छोड़ शरारत
अपनी किताबें पढ़ने लगते ......
हमको पढ़ता देख के पापा
बारी-बारी गले लगाते.....
आज जो कुछ भी हम हैं
पीछे उसके हैं दुआएं आपकी
आज आप तो नहीं हैं संग में
हमें राह दिखायेगी तालीम आपकी....
रेहान सईद खान
09621909669
मिरदही टोला सीतापुर
काव्य पल्लवन में प्रकाशित लगभग सारी रचनाएँ अच्छी लगी. सिवा मोहम्मद अहसन की रचना के! इनकी रचना तो अच्छी ही नहीं वरन बहुत अच्छी है ये दम्भ-रहित तो हैं हीं साथ-साथ काफी विद्वान् भी लगते है
शैलेश भारतवासीजी को अविलम्ब अपना कार्य प्रभार इन्हें ही सौंप देना चाहिए | लगता है इस कार्य हेतु इनसे योग्य व्यक्ति कोई नहीं है |
ये एक अच्छे कवि तो बन गए पर लगता है बहुत जल्द ही एक अच्छे इन्सान भी बन जायेगें!
अहसन भाई ,
आपकी नाराजगी जायज है ,पर काव्य पल्लवन ,इस पर प्रेषित की गयी सभी कविताओं को प्रकाशित करता है
मैं रेहान जी से पूर्णतया सहमत हूँ |
हमारी कामना है कि ईश्वर मुहम्मद अहसन जी को बहुत जल्द ही सदबुद्धि दे!
व्यंग्य को दरकिनार रखते हुए, चित्र के मुख्य फीचर्स निम्न प्रकार हैं
नौजवान पिता के काँधे पर एक कोमल सा पुत्र, कड़ी ठंढ, पैदल यात्रा
किन कवियों की कविताओं में ये फीचर्स इंगित हो पाए हैं!? फिर चित्र का अर्थ ही क्या रहा?
हिन्दयुग्म को उस के संचालक ही अपनी नीतियों के हिसाब से चलाएं गे ,किन्तु संचालकों को अपने पूर्वाग्रहों से बाहर निकल कर देखने की फुर्सत नहीं है शायद.
बात दंभ की कहाँ है! क्यूँ दो दिन पहले श्याम सखा श्याम को अपनी ग़ज़ल का एक शे'एर निकालना पड़ा? क्यूँ कि उस की व्याकरण गलत थी और यह मैं ने इंगित किया था. श्याम जी ने वह शे'र निकाल कर अपना बड़प्पन दिखाया था.
अगर हिन्दयुग्म तर्क सुनने के लिए तैयार नहीं तो यह उस की अपनी समस्या है किन्तु कम से कम सुधी पाठकों को misinform तो न रखा जाए.
मुहम्मद अहसन
मुझे संगीता सेठी जी,अम्बरीश जी, संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी जी की कवितायें अधिक पसंद आयी. हालांकि सभी ने बहुत ही अच्छी तरह से पिता के व्यक्तित्व को उभारा है.सभी को बहुत-बहुत बधाई.
चाहे कुछ कवितायें चित्र पर आधारित नहीं भी हैं तो भी आज पितृदिवस पर ये एक अच्छी प्रस्तुति है मुझे सभी कवितायेम भाव मय और आज के लिये उपयुक्त लगी शुभकामनायें और सभी को बधाई
चाहे कुछ कवितायें चित्र पर आधारित नहीं भी हैं तो भी आज पितृदिवस पर ये एक अच्छी प्रस्तुति है मुझे सभी कवितायेम भाव मय और आज के लिये उपयुक्त लगी शुभकामनायें और सभी को बधाई
किस चीज़ की बात करें .... अहसन जी के गुस्से की या इतनी अच्छी कविताओं की ..... चलिए दोनों की ही कर लेते हैं ..
सर्वप्रथम तो आज पहली बार मैंने किसी भी काव्य पल्लवन की सभी कवितायेँ पढ़ी हैं और सभी बहुत अच्छी हैं ....... सभी रचनाकारों को बधाई
अहसन जी का गुस्सा जायज है जब कोई किसी अनुशासन में कविता लिखेगा और उसी कैटेगिरी में दूसरी कवितायेँ जो उस अनुशासन में नहीं हैं प्रकाशित होंगी तो उसे गुस्सा आएगा ही
काव्य पल्लवन के लिए एक चित्र दिया गया था जिस पर कविता लिखनी थी चित्र के हिसाब से थोडी बहुत मिलती जुलती बस चार पांच कवितायेँ होंगी ...... बाकी कवितायेँ बहुत उम्दा हैं परन्तु सामान्य रूप से पिता को समर्पित कर लिखी गयी हैं हालांकि इस से उनका महत्त्व कम नहीं हो जाता ...........
अच्छा होता की इन कविताओं को दो भागों में विभाजित करके प्रकाशित कर दिया जाता प्रथम भाग में चित्र के अनुरूप और दूसरे भाग में अन्य कविताओं को प्रकाशित कर दिया जाता जिससे चित्र को ध्यान में रखकर लिखने वाले को भी अलग से महत्त्व मिल जाता ......... मेरा सुझाव है बाकी तो सम्पादक महोदय पर है ..........
अरुण मित्तल 'अद्भुत'
मैंने,
बहुत बार कोशिश की
कि, मैं नाम दे सकूं हमारे रिश्ते को
या कोई पहचान दे सकूं
ठीक से तो कुछ याद आता नही
हाँ, माँ किसी मौके पर कुछ
कहा था हमारे रिश्ते के बारे में
मुकेश जी आवश्यक तो नहीं प्रत्येक रिश्ते को नाम दिया जाय, कभी-कभी कोई रिश्ता नाम की सीमा में बंध भी नहीं पाता; फ़िर भी पता नहीं क्यों? समाज में रिश्तों को नाम दिये बिना रहना संभव नहीं हो पाता.
मैं मुहम्मद अहसन साहब के विचार से सहमत हूं. वास्तव में कवि की लेखनी किसी चित्र की सीमा में बंधना स्वीकार नहीं करती. वे चित्र पर कविता लिखने में सफ़ल हुए हैं. अतः प्रशंसा के हकदार हैं.
सभी कवियों की रचनाएँ अच्छी लगीं |
विशेषकर मुहम्मद अहसन जी की रचना दर्शाए गए चित्र के अनुरूप लगी उन्हें बहुत बहुत- बधाई !
परन्तु उनकी इस तरह क्रोधित होने की प्रवृत्ति उनकी रचनाधर्मिता पर प्रतिकूल असर डाल सकती है , खैर ये तो वन्य जीवन की संगत का असर है ,
या फिर वे इसलिए क्रोधित होते हैं कि उनकी सर्वोत्तम रचना को अन्य सामान्य रचनाओं के साथ स्थान दे दिया गया है |
इसलिए उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है | कभी उनका भी समय आएगा और वे भी सूर , कबीर और तुलसी के समांतर छपेंगे |
हमारी शुभकामनायें उनके साथ हैं |
विश्व पिता दिवस पर सभी रचनाकारों की रचनाएँ सराहनीय लगीं | तथा अच्छे कमेंट्स के लिए सभी को धन्यवाद |
आदरणीय दिशाजी व आदरणीय रेहान जी को उत्साहवर्धन हेतु विशेष धन्यवाद |
क्योंकि आज विश्व पिता दिवस है अतः जो रचनाएँ दर्शाए चित्र पर पूरी तरह आधारित नहीं हैं उन्हें हतोत्साहित करना भी उचित नहीं |
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
नीलम जी,
पिछले माह तो मैं ने काव्य पल्लवन की किसी कविता पर टिपण्णी नहीं की थी क्यूँ कि सभी कवितायेँ दिए गए चित्र पर आधारित थीं. इस बार जैसा कि अदुभुत जी ने कहा एक आध अपवाद के अतिरिक्त कोई भी चित्र पर आधारित नहीं है. ऐसे में मेरी टिपण्णी स्वाभाविक है.
रेहान साहब,
दुनिया का सब से आसान काम है दूसरे पर कटाक्ष करना. और सब से मुश्किल काम है उस का जवाब न देना. आप की किसी बात का जवाब दे कर मैं अपनी गरिमा कम नहीं करना चाहता किन्तु एक बात अवश्य पूछूँ गा. आदमियों के अच्छे और बुरे होने का judgement देने का हक आप को किस खुदा ने दे दिया !
शिव प्रताप जैसवाल जी,
आप से मैं इतना ही कहूँ गा कि हिंद युग्म को थोडा बारीकी से पढ़ा करें तो शायेद आप को काव्य पल्लवन के बारे में बहतर जानकारी होती.
अनुराग जी,
आप के लिए भी वही कहूँ गा कि कटाक्ष बहुत बहादुरी का काम नहीं होता है. मेरे विचार से कटाक्ष का प्रयोग तभी कोई करता है जब किसी के पास तर्क का खजाना ख़तम हो जाता है
हिन्दयुग्म,
मेरे विचार से आप को काव्य पल्लवन के झंडे तले ये कवितायेँ आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं थी,जहां चित्र देख कर कविता लिखनी होती है. बहतर होता आप पिता-पुत्र या पिता-पुत्री की थीम पर खुले फ़ोरम पर कवितायेँ आमंत्रित करते.
मुहम्मद अहसन
सभी कवियों नें बहुत ही अच्छी तरह से पिता के किरदार को उभारा है.सभी को बहुत-बहुत बधाई.
प्रिय अहसन भाई के लिए,
सारे कमेंट्स पढ़ने के बाद महसूस हो रहा है कि आप की बात तो जायज लगती है पर हो सकता है आपका बात कहने का तरीका बेहद गुस्से वाला हो जो अन्य पाठकों को कटाक्ष करने के लिए शायद मजबूर कर देता हो | ऐसे में सबको एक साथ नसीहत देना भी शायद ठीक नहीं लगता. अपने को काबिल ठहराते हुए दूसरों को मूर्ख ठहराने का हकभी अल्लाह ने शायद किसी को नहीं दिया होगा. आप अपनी बात सादगी एवं शालीनता से भी कह सकते थे! जो हिंद-युग्म आपको अपनी काबिलियत साबित करने का मौका देता है उसे गलत ठहराना भी शायद सही नहीं होगा.
अंत में किसी का कहा हुआ एक शेर है :-
"बातों में तल्खियाँ हों, ये जरूरी तो नहीं,
रास्ते और भी होते हैं, शिकायत के लिए. "
यहाँ पर मेरा उद्देश्य आपको नसीहत देना नहीं है , उम्मीद है आप मुझे ये सब लिखने के लिए माफ़ करेंगे.
आदरणीय अहसन जी,
आपकी शिकायत बिलकुल जायज है। और चित्र आधारित कविताओं की शृंखला में यह पहली बार हुआ है कि हमने चित्र की थीम से अलग कविताओं को भी प्रकाशित किया है। काव्य-पल्लवन पहले विषय विशेष आयोजित किया जाता था, उसमें सभी कविताओं को शामिल करना आसान हो जाता था।
असल में मुकेश जी का यह चित्र हमारे पास बहुत पहले सा था। और हमने यह चित्र काव्य-पल्लवन के लिए चुन भी रखा था। हमने सोचा कि इस पर काव्य-पललवन जुलाई में आयोजित कर लेते हैं, जून में विषय विशेष कर देते हैं। लेकिन इससे परेशानी यह हो सकती थी कि अगले महीने जब हम इस चित्र को रखते तब भी बहुत सी कविताएँ पिता थीम से संबंधित आ जातीं। इसलिए हमने एक पंथ दो काज का रास्ता निकाला।
खैर हमने इससे यह सीखा कि आगे से हम ऐसा न ही करें तो ठीक है, नहीं तो बहुत से पाठक आहत होते हैं। काव्य-पल्लवन में फिल्टर रखने की बात भी विचाराधीन है। जो पाठक अन्य पाठक/पाठकों की टिप्पणियों से आहत हुए हैं, या हमारी किसी गतिविधि से तो हम खेद प्रकट करते हैं।
सभी कवितायें प्यारी हैं,,,
अहसन जी के बात अपनी जगह सही होते हुए भी उन का समर्थन करना मेरे लिए मुश्किल है,,
कारण ,,,!!
सबसे पहला कारण तो खुद मैं हूँ,,,,
इस चित्र पर एक भी शे'र नहीं लिख पाया , जबकि सीधा साफ़ चित्र था,,,,,
अगर जबरन लिखने की कोशिश भी करता तो भी मुझसे तो एकदम से चित्र पर नहीं लिखा जाता,
मुझे खुद दिक्कत है के जो चीज सामने दिख रही है ,,,वो सिर्फ एक माध्यम है कुछ कहने की शुरुआत करने का,,,,,
और ये कहना कहाँ तक पहुँच सकता है,,,,, चित्र से कितनी,,, कितनी ही दूर जा सकता है ,,, ये हमें भी पता नहीं होता ,,,यहाँ तक के इतनी टिप्पणिया पढ़ कर भी अब तक ध्यान नहीं गया है पिता की तरफ,,, वो कंधे पे चढा गोलू-मोलू ही दिख रहा है अब भी,,,
और मैं तो इस पर भी कुछ लिख पाता तो उसी को भेज देता ,,,पर,,,
:-(
सभी रचनाकारों को अच्छी कविताओं हेतु मधुर भावमय बधाई |
काव्य-पल्लवन के सुधी पाठक गण आदरणीय अह्सनजी व अन्य पाठकों की टिप्पणियों में इतना उलझ कर रह गए कि सीतापुर के एक नन्हें मुन्ने कक्षा -8 के छात्र कवि नील श्रीवास्तव की कविता पर टिप्पणी करना ही भूल गए | उसका हिंद -युग्म पर आना ही महत्वपूर्ण है, हम उसक स्वागत करते हैं |
वास्तव में इस नन्हें से बचपन नें अपने पिता के प्रति दिल खोलकर अपने सारे भाव अत्यंत संक्षेप में ही व्यक्त कर दिए हैं |
और तो और ...
मेरा छोटा भाई....
जब शैतानी करता .....
तो पापा साथ-साथ.....
मुझको भी डांटते हैं ....
मेरे पापा.....
मेरे साथ खूब खेलते हैं .....
मेरे पापा ....
हर कठिन घड़ी में ....
मुझको....
हिम्मत बंधाते हैं ....
मैं अपने पापा का .....
खूब रखता ख्याल .....
और करता .....
उनको बहुत प्यार ....
नील श्रीवास्तव को हिंद युग्म पर आने के लिए बहुत बधाई |
आशा है कि वह आगे निश्चय ही हिंद युग्म का वाहक बनेगा |
आभार,
अवधेश
सभी रचनायें बहुत ही अच्छी लगी कुछ पंक्तियां दिल को बहुत करीब से छू गई, सभी रचनाकारों को बधाई ।
विभा जी,
अगर क्रोध में किसी को मूर्ख कहा तो अपने को ही.
कौन सी अशालीन टिपण्णी की?, बताएं गी? आप ही गिन कर बता दीजिये चित्र पर आधारित कितनी कवितायेँ थीं. आप ही समझा दीजिये कि यदि हिंद युग्म को इस विषय वस्तु पर सामान्य प्रकार की कवितायेँ आमंत्रित करनी थीं तो चित्र की आवश्यकता ही क्या थी.
हिंद युग्म अमूमन अपनी गलती इतनी आसानी से स्वीकार नहीं करता है, खशी है कि इस बार गलती स्वीकार तो की.
आप को उद्ध्रत कर रहा हूँ,
" यहाँ पर मेरा उद्देश्य आपको नसीहत देना नहीं है , उम्मीद है आप मुझे ये सब लिखने के लिए माफ़ करेंगे."
दर असल आप नसीहत देने के सिवा कुछ नहीं कर रही हैं
नियंत्रक महोदय,
बहुत बहुत धन्यवाद कि गलती मानी गयी, सब आप का बड़प्पन है.
आज यह गोलू-मोलू
अपने पिता के कंधे पर
बड़े आराम से बैठा हुआ
दुनिया-जहान की
हर मुसीबत से महफूज है |
कड़ाके की सर्दी
से बेखबर मेरे नौजवान पिता
के कदम बिना लड़खडाए
मेरे ही कल की सोंच में
लगातार आगे बढ़ते जाते हैं |
सच तो यह है कि
मैं ही उनका कल हूँ
उनके द्वारा किये गए
धरम -करम का फल हूँ |
दे सकूं हर गम में
मैं उनको अपना कांधा
हर लूं उनके कांधे का सारा बोझ
अपनी तो बस यही चाह है |
एक सच और है कि
अंतिम समय में
उनको कांधा देते हुए
बेहिसाब आँसू बहेगें |
अनुराग जी,
आप ने वास्तव में इतनी खूबसूरत पंक्तियाँ लिख डालीं कि आप द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर की गयीं टिप्पणियाँ भूल गया, बल्कि उल्टे दुआ देने को दिल कर रहा है. खुश रहिये.
मुहम्मद अहसन
आदरणीय अहसन साहब !
हमने सारी टिप्पणियां पढ़ डालीं | बहुत से लोगों के आपकी टिप्पणी के प्रति स्वाभाविक सहयोगी विचार व व्यंग्य भी पढ़े! उन सबके प्रति आपका आक्रोश भी देखा! आपने स्वयं को व अपने जैसे लोगों को मूर्ख भी कहा ! इतने सारे सम्मानित पाठकों के समक्ष स्वयं को मूर्ख कहकर आप क्या सिद्ध करना चाहते है ये तो आप ही जान सकते हैं वैसे भी आप ही के शब्दों में "दुनिया का सब से आसान काम है दूसरे पर कटाक्ष करना. और सब से मुश्किल काम है उस का जवाब न देना." पर लगता है आप स्वयं को जवाब देने से रोक नहीं पा रहे हैं | साथ-साथ जाने -अनजाने हिंद युग्म पर अनुपयुक्त वातावरण सृजित कर रहे हैं
शायद आपने स्वयं को किसी अन्य व्यक्ति के स्थान पर स्थापित करके नहीं अवलोकित किया होगा | हमने तो आप ही के कथनानुसार हिंद-युग्म का बड़प्पन देख लिया ! अब आपका बड़प्पन देखने की प्रतीक्षा है|
आदरणीय अहसन साहब !
अभी-अभी अनुरागजी के प्रति आप की टिप्पणी पढ़ कर आपका बड़प्पन देखने को मिला |
यह सच है कि हमारे क्रोध का प्रारंभ मूर्खता से परन्तु अंत पछतावे पर ही होता है |
साधुवाद स्वीकारें |
धन्यवाद |
आदरणीय अहसानजी,
आशीर्वाद हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद | निश्चय ही आप एक अच्छे व्यक्ति है| ईश्वर आपको हमेशा सलामत रखे!
सभी प्रतिभागियों को बहुत बधाई !!!
पिता दिवस लिखी गयी सभी रचनाओं और विचारों को नमन है !!
अवधेश शुक्ल साहब,
आप को उद्ध्रत कर रहा हूँ
"साथ-साथ जाने -अनजाने हिंद युग्म पर अनुपयुक्त वातावरण सृजित कर रहे हैं "
भला क्या अर्थ हुआ इस का! उपयुक्त वातावरण क्या हुआ!? एक दूसरे की पीठ ठोंकते रहने और शाबाशी देने से ही उपयुक्त वातावरण होता है. मैं हिन्दयुग्म पर आना छोड़ सकता हूँ किन्तु कविता के साथ बेईमानी नहीं बरत सकता हूँ. कविता अच्छी लगे गी अच्छी कहूँ गा , खराब हों गी खराब कहूँ गा. यदि किसी को मेरी बात खराब लगे मेरी टिपण्णी की उपेक्षा कर सकता है या प्रशासक महोदय उसे विलुप्त क्र सकते हैं.
मुहम्मद अहसन
परम् आदरणीय अहसन साहब,
इस टिप्पणी से एक बार फिर आपके बड़प्पन की अनुभूति हुई |
आशा है कि आप हिंद युग्म पर अवश्य आते रहेंगे |
बहत बहुत धन्यवाद |
अवधेश शुक्ला साहब,
क्यूँ तंज़ करते हो हम ग़रीबों पर
मेहमा हैं चंद दिन के , चले जाएं गे
- अहसन
उसका प्रतिरूप हूँ मैं।
वो अथाह सागर हैं,
महज
एक कतरा ही हूँ मैं।
फिर क्यूँ ?
समझते हो मुझे महान!
महान! मैं नहीं,
वो इन्सान हैं
जिसकी सन्तान हूँ मैं।।
तनवीर जी बहुत बड़ा सत्य लिख दिया है, पिता से कितना भी आगे निकल जाय पुत्र किन्तु पुत्र को आगे बढाने का काम तो पिता का ही होता है. पिता ही सदैव महान होता है.
काव्य-पल्लवन का यह अंक तो अपने आप ही मोहम्मद अहसन साहब को समर्पित हो गया बाकी सब-कुछ तो अपने आप पीछे छूट गया यही होता है विवाद का परिणाम.सहित्य भी विवादों से क्यों दूर रहे? चुनाव के द्वारा साहित्यकार का चुनाव होने लगे तो राजनेताओं से आगे प्रचार ब्लोगर कर जायेंगे.
भला क्या अर्थ हुआ इस का! उपयुक्त वातावरण क्या हुआ!? एक दूसरे की पीठ ठोंकते रहने और शाबाशी देने से ही उपयुक्त वातावरण होता है. मैं हिन्दयुग्म पर आना छोड़ सकता हूँ किन्तु कविता के साथ बेईमानी नहीं बरत सकता हूँ. कविता अच्छी लगे गी अच्छी कहूँ गा , खराब हों गी खराब कहूँ गा.
अति उत्तम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारा संवैधानिक अधिकार है और हिन्द युग्म पर रह कर भी इसका प्रयोग करेंगे. आप मैदान में डटे रहें हम भी आपके साथ है. लेखनी का हकदार भी वही है, जो निर्भय होकर लिखे जो सच समझता है किन्तु हम दूसरों की अभिव्यक्ति का भी सम्मान करेंगे.
माननीय अह्सनजी, अनुरागजी, रेहानजी, नीलमजी, शिवप्रताप जैसवाल जी, अवधेशजी, विभाजी, अद्भुत जी, नियंत्रकजी, राष्ट्रप्रेमीजी तथा दर्शाए गए चित्र को समर्पित|
"प्यारा गोलू-मोलू"
कांधे पर बैठा हुआ, दूरी दिखती पास |
मंजिल मिलना तय हुआ, पापा मेरे साथ ||
कांधे उनके दुख रहे, पर मन में उत्साह |
सर्द हवाएं रोकतीं, बड़ी कठिन है राह ||
थके हुए से लग रहे , टूट रहे हैं अंग |
सधे कदम से बढ़ रहे, वे दादी के संग ||
मन्नत पूरी हो चुकी, दर्शन की है आस |
ईश्वर भक्त हम रहें, जब तक तन में साँस ||
मेरा भार उठा रहे, ताने अपना शीश |
उनके भार उठा सकूँ, भगवन दो आशीष ||
|अहसान भाई ,गुस्सा थूकिये ,
हल्ला बोल का अंदाज बरकरार रहे बस यही दुआ है ,
परन्तु उनकी इस तरह क्रोधित होने की प्रवृत्ति उनकी रचनाधर्मिता पर प्रतिकूल असर डाल सकती है , खैर ये तो वन्य जीवन की संगत का असर है ,
अनुराग जी की इस बात में कितना तथ्य है ,हह्हहहहहाहा
तेरे थके पाँव की मंजिल ,मेरा कान्धा ;
मैं खुद से भाग सकता हूँ,
जिंदगी से भाग सकता हूँ
मगर जाऊं गा कहाँ तुझ से भाग कर !
अहसन साहब वास्तविकता का कितना सुन्दर चित्रण किया है आपने, हम भागकर कहां जा सकते हैं.
तपती धूप की शिद्दत,
बर्फ सी ठंढी हवाएं ,
तेज़ ओ तुन्द तूफां के झक्कड़ ,
दुनिया के काले नाग और कंटीले रास्ते ;
मुझे हिफाज़त करनी है तेरी एक नाज़ुक पौध की मानिंद ,
तेरी उम्र को सींचूं गा मै अपने रगों के खून से ,
अपने फ़िक्र ओ फ़न से ;
खाद दूँ गा तेरी जड़ों को
अपने पसीने की बूंदों से ;
तुझे बढ़ता देखूँ गा मैं
एक मुस्तहकम दरख्त की मानिंद ,
वो दरख्त कि जिस में
इल्म की शाखें हों ,
अक़ीदे के फूल हों,
फ़राएज़ के फल हों ;
खिदमत का साया हो,
और सब्र ओ सुकूं के बर्ग हों
वो दरख्त जो सूख कर भी जिंदगी बख्शे ;
तपती धूप की शिद्दत,
बर्फ सी ठंढी हवाएं ,
तेज़ ओ तुन्द तूफां के झक्कड़ ,
दुनिया के काले नाग और कंटीले रास्ते ;
मुझे हिफाज़त करनी है तेरी एक नाज़ुक पौध की मानिंद ,
तेरी उम्र को सींचूं गा मै अपने रगों के खून से ,
अपने फ़िक्र ओ फ़न से ;
खाद दूँ गा तेरी जड़ों को
अपने पसीने की बूंदों से ;
तुझे बढ़ता देखूँ गा मैं
एक मुस्तहकम दरख्त की मानिंद ,
वो दरख्त कि जिस में
इल्म की शाखें हों ,
अक़ीदे के फूल हों,
फ़राएज़ के फल हों ;
खिदमत का साया हो,
और सब्र ओ सुकूं के बर्ग हों
वो दरख्त जो सूख कर भी जिंदगी बख्शे ;
बहुत अच्छी रचना अहसन साहब
ambreesh ji,
great.
aap ki kavita padh ke to bas mazaa aa gaya. kya siidhi saral bhasha mein 'golu - molu' ka chitran kiya hai. chitra ke bilkul nazdeek aap ki kavita. kya baat hai!
prasann rahiye.
ahsan
जब-जब महानता का प्रश्न उठा है
हम सभी ने माँ को ही चुना है
ये सही है कि माँ अतुलनीय है
लेकिन पिता का ओहदा भी कुछ कम नही है
माँ जन्म देती है,तो पिता ऊँगली पकड़ चलाता है
हमारे भरण-पोषण का भार उठाता है
लड़खड़ाताहै जब भी कदम हमारा
हाथ दे बन जाता है वो सहारा
नारियल की तरह है पिता का प्यार
ऊपर से सख्त,अन्दर से नम्रता का भण्डार
हमने जब भी कोई,सपना बुना है
पिता ही तो है,जिसने उसे सुना है
दिया है जीवन को आधार
अनमोल है पिता का दुलार
खो ना जायें भीड़ में कहीं, यही सोचकर
उठा लेता है वो हमें, अपने कांधों पर
कभी पिठ्ठू तो कभी घोडा़ बना है
हमारे लिये हर दु:ख दर्द सहा है
माननीय अहसन जी,
उत्साहवर्धन हेतु शत-शत धन्यवाद |
हमारी कामना है कि आपको स्वस्थ जीवन व दीर्घायु मिले |
आदरणीया दिशाजी,
बहुत खूब ! आपने तो पिता का मर्मस्पर्शी चित्रण कर दिया |
माँ जन्म देती है,तो पिता ऊँगली पकड़ चलाता है
हमारे भरण-पोषण का भार उठाता है
लड़खड़ाताहै जब भी कदम हमारा
हाथ दे बन जाता है वो सहारा
नारियल की तरह है पिता का प्यार
ऊपर से सख्त,अन्दर से नम्रता का भण्डार
हमने जब भी कोई,सपना बुना है
पिता ही तो है,जिसने उसे सुना है
दिया है जीवन को आधार
अनमोल है पिता का दुलार
खो ना जायें भीड़ में कहीं, यही सोचकर
उठा लेता है वो हमें, अपने कांधों पर
कभी पिठ्ठू तो कभी घोडा़ बना है
हमारे लिये हर दु:ख दर्द सहा है
धन्यवाद |
मान्यनीय अम्बरीश जी
उत्साह वर्धन के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद
दीपली पन्त तिवारी "दिशा"
घर में तुम घोड़ा बने थे, यहाँ भी घोड़ा बने हो,
कंधे पर मुझको बिठाये, पैदल सफ़र पर चल पड़े हो |
ठण्ड से सिहरन बहुत है, आवाज़ पर ताले जड़े हैं ,
थकान भी चेहरे पे दिखती, पांव में छाले पड़े हैं |
बगैर किये उम्मीद कोई, मुझको सब कुछ दे रहे हो,
पंक्षियों की मानिंद मुझसे , कोई भी ख्वाहिश नहीं है |
जानते हो पर निकलते ही आसमान में उड़ जाउँगा,
कितना ही मुझको पुकारो, शायद ही साथ होऊंगा |
अथाह प्यार दिल में छिपाए, नारियल से लग रहे हो,
अपनापन कितना है तुममें, सबको जाहिर हो रहा है|
मेरा भार उठा रहे, ताने अपना शीश |
उनके भार उठा सकूँ, भगवन दो आशीष
anbreesh ji ,
sabhi ki yahi ho khawaahish ,isi dua ke saathn achchi kavita ke liye bahut bahut badhaai
नीलमजी,
उत्साहवर्धन के लिए शत-शत धन्यवाद |
रेहान जी,
कंधे पर मुझको बिठाये, पैदल सफ़र पर चल पड़े हो |
ठण्ड से सिहरन बहुत है, आवाज़ पर ताले जड़े हैं ,
थकान भी चेहरे पे दिखती, पांव में छाले पड़े हैं |
चित्र पर लिखने हेतु बधाई |
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
नीलमजी,
उत्साहवर्धन के लिए शत-शत धन्यवाद |
रेहान जी,
कंधे पर मुझको बिठाये, पैदल सफ़र पर चल पड़े हो |
ठण्ड से सिहरन बहुत है, आवाज़ पर ताले जड़े हैं ,
थकान भी चेहरे पे दिखती, पांव में छाले पड़े हैं |
चित्र पर लिखने हेतु बधाई |
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
रेहान जी,
आप की टिप्पणी को समर्पित "पिता का पुरुषार्थ"
आप ही की शैली में रचना का एक प्रयास |
"पिता का पुरुषार्थ"
आपका ही अंश हूँ मैं, आपका ही मान हूँ |
आपकी संचित धरोहर, आपकी संतान हूँ ||
आपसे सब कुछ मिला है, आपका परमार्थ हूँ |
आपके गुण सजते है मुझमें, आपका पुरुषार्थ हूँ ||
आपकी आँखों का तारा, आपकी सौगात हूँ |
आप ही के धर्म से, उपजा हुआ मैं प्रकाश हूँ ||
आपके आशीष से, संस्कार अपने पास हैं ||
कृपादृष्टि चाहूं तेरी, जब तक ये अपनी साँस है ||
स्वर्ग की चाहत नहीं है, वो नहीं कुछ खास है |
आप के चरणों में बसता, स्वर्ग मेरे पास है ||
आपको हँसता ही देखूं , ये ही अपनी चाह है |
ऐ पिता तुझको समर्पित, अपना ये साम्राज्य है ||
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
मुझे लगता है की अहसन जी की नाराज़गी कुछ हद तक जायज़ है. लेकिन शिकायत इतने तल्ख़ अंदाज़ में नहीं करना चाहिए. कवितायेँ चित्र पर आधारित हैं और कुछ नहीं. इस मामले में मुझे अरुण मित्तल जी जा सुझाव अच्छा लगा.
इसी के साथ सभी लोगो को उनकी कविताओं के लिए मुबारकबाद.
इतनी सुन्दर सी कविताओं का रसास्वादन कराने हेतु आप सभी को आभार सहित मेरा धन्यवाद व बधाई |
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
शामिख साहब,
माना कि बक रहा था तल्खी में क्या कुछ न मैं
मगर दुनिया ने छेड़ कर, मेरी तल्खी बढा दी कुछ और
-अहसन
पिता
एक ऐसा व्यक्तित्व
जो दिखता है सख्त
किन्तु है कोमल ह्रदय
जीवन के पग-पग पर
हमको दिलाता विजय
पिता
एक नाम जो जरूरी है
यही हमारी पह्चान की धुरी है
यूँ तो जन्म देती है माँ
पर वो भी इस नाम के बिना अधूरी है
पिता
एक अटूट हिस्सा जीवन का
साथी हमारे बालपन का
मेला हो या हो भारी भीड़
दिखाये हमें दुनिया की तस्वीर
दीपाली जी मां ही नहीं पिता भी मां के बिना अधूरा ही क्यों वह मां के बिना पिता ही नहीं हो सकता. प्रत्येक पुरुष के जीवन को नारी ही दिशा प्रदान करती है.
मृदुभाषी सन्यासी जैसे
कार्य कुशल कर्तब्य परायण .
धर्मालु धर्मांध नहीं पर ,
करते प्रतिदिन प्रभु गुण गायन ,
स्थितप्रज्ञ मर्मज्ञ पिता जी !
नर में लगते एक नारायण .
डा. कमल किशोर जी क्या हम भी पिता के इस स्तर को प्राप्त करपायेंगे?
माननीय अहसन साहब,
बहुतेरे पाठकों नें चित्र के करीब पहुँचती हुई रचनाएँ टिप्पणियों में पोस्ट कर डालीं! लीजिये! आपकी यह इच्छा तो उपर वाले नें पूरी कर दी, अब तो प्रसन्न हो जाइये| हम सब आपको सदैव हँसता-मुस्कराता देखना चाहते हैं |
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
अम्बरीश जी,
मन प्रसन्न हो गया . सही बात तो यह है की टिप्पणियों के माध्यम से प्राप्त कवितायेँ न केवल चित्र के बहुत् निकट हैं बल्कि मेरी कविता से बहतर हैं. मैं सभी कवियों को बधाई देता हूँ
प्रसन्न रहिये
शिकवे गिले क्या करें इनसे
जहाँ ये हमारा आबाद करते हैं ..
खालीपन सूनापन जब महसूस होता है
इन लम्हों को फिर हम याद करते हैं..
ये मेरी बगिया के सुन्दर फूल
ये जान ये दिल तुम्हें निसार करते हैं..
Der aye durust aye, sabhi ki kavita
ek se badhkar ek hai.
Bhadhayi.
Manju Gupta.
तेरी आँखों की सच्चाई मेरी ज़ंजीरें
तेरे चेहरे का भोलापन मेरी बेडी
तेरी सांसें , जिंदगी का हासिल
तेरे थके पाँव की मंजिल ,मेरा कान्धा ;
मैं खुद से भाग सकता हूँ,
जिंदगी से भाग सकता हूँ
मगर जाऊं गा कहाँ तुझ से भाग कर
बहुत फिलोस्फिकल है.
तपती धूप की शिद्दत,
बर्फ सी ठंढी हवाएं ,
तेज़ ओ तुन्द तूफां के झक्कड़ ,
दुनिया के काले नाग और कंटीले रास्ते ;
मुझे हिफाज़त करनी है तेरी एक नाज़ुक पौध की मानिंद ,
तेरी उम्र को सींचूं गा मै अपने रगों के खून से ,
अपने फ़िक्र ओ फ़न से ;
खाद दूँ गा तेरी जड़ों को
अपने पसीने की बूंदों से ;
तुझे बढ़ता देखूँ गा मैं
एक मुस्तहकम दरख्त की मानिंद ,
वो दरख्त कि जिस में
इल्म की शाखें हों ,
अक़ीदे के फूल हों,
फ़राएज़ के फल हों ;
खिदमत का साया हो,
और सब्र ओ सुकूं के बर्ग हों
वो दरख्त जो सूख कर भी जिंदगी बख्शे
अहसान जी कविता को काफी गहराई से लिखा है. मुबारकबाद.
ममनून हूँ शामिख साहेब aur 'mere lafz', आप को इस नज़्म के कुछ हिस्से पसंद आए
अहसन
आप सभी हमारी शुभकामनायें, व अच्छी कविताओं हेतु बधाई !
सभी ने बहुत ही अच्छी तरह से पिता के व्यक्तित्व को उभारा है| सभी को बहुत-बहुत बधाई |
सादर,
नील श्रीवास्तव
छात्र कक्षा आठ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)