शादी का मौसम गुजरने के बाद अगली शादी की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पिता अपनी राजकुमारियों के लिए राजकुमार ढूँढ़ने लगते हैं। ऐसे ही एक पिता जो अपनी कुँवारी बेटी के लिए वर ढूँढ़ रहा है, की चिंताओ और वेदनाओं को कविता के रूप में लेकर उपस्थित हुए हैं हिन्द-युग्म के सक्रियतम कार्यकर्ता अवनीश एस॰ तिवारी। इनकी यह कविता जुलाई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता के तीसरे स्थान पर है।
पुरस्कृत कविता- कुँवारी बेटी का बाप
बेटी के जन्मदिन के शाम,
मेरे आस की मोमबत्तियां बुझती हैं,
उसकी बढ़ती उम्र के चढ़ते दिन मुझे,
नजदीक आ रहे निवृत्ति की याद दिलाते हैं,
बरस का अन्तिम दिन उसके मन में प्रश्न और
मेरे माथे पर चिंता की रेखा छोड़ जाता है |
बेटी के साँवले तस्वीर पर बार बार हाथ फेरता हूँ,
शायद कुछ रंग निखर आए,
उसके नौकरी के आवेदन पत्र को बार बार पढता हूँ,
शायद कहीं कोई नियुक्ति हो जाए,
पंडितों से उसकी जन्म कुण्डली बार-बार दिखवाता हूँ,
शायद कभी भाग्य खुल जाए|
हर इतवार वर की खोज में, पूरे शहर दौड़ लगा आता हूँ,
भाग्य से नाराज़, झुकी निगाहों का खाली चेहरा ले घर को लौट जाता हूँ,
नवयुवक के मूल्यांकन में भ्रमित मैं,
अपने और इस जमाने के अन्तर में जकड़ जाता,
वर पक्ष के प्रतिष्टा और परिस्थिती के सामने,
अपने को कमजोर पा कोसता-पछताता |
रिश्तेदारों के तानों की ज्वाला से सुलग ,
मित्रों के हंसी की लपट में भभक ,
परिवार के असंतोष में झुलस,
अंत में एक अवशेष सा रह जाता हूँ |
इस जर्जर, दूषित दहेज़ लोभी समाज से लड़नेवाले,
किसी विद्रोही नवयुवक की तलाश करता हूँ,
मैं परेशान एक कुंवारी बेटी का बाप,
इस व्यवस्था के बदलने की मांग रखता हूँ |
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ३॰५, ५॰५, ६॰१, ८॰५
औसत अंक- ५॰७२
स्थान- आठवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७॰८, ७, ५॰७२(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰८४
स्थान- तीसरा
पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'दिखा देंगे जमाने को' भेंट करेंगे।
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
मित्रों,
हिंद युग्म पर मेरी यह पहली पुरस्कृत रचना है | यह कविता मुझे बड़ी प्रिय लगी और कुछ हद तक वास्तविकता के काफी निकट | पोलियो के मर्ज़ की तरह दहेज़ जैसी सामजिक बुराइयों का सफाया होना ही चाहिए |
कविता पसंद करने के लिए धन्वाद |
आपका ,
अवनीश तिवारी
"अंत में एक अवशेष सा रह जाता हूँ "
इस सुंदर रचनाकी पीडासे पाठक भी कुछ ऐसाही महसूस करता है. अवनीशजी, बहुत बढिया !
बरस का अन्तिम दिन उसके मन में प्रश्न और
मेरे माथे पर चिंता की रेखा छोड़ जाता है |
बेटी के साँवले तस्वीर पर बार बार हाथ फेरता हूँ,
शायद कुछ रंग निखर आए,
रिश्तेदारों के तानों की ज्वाला से सुलग ,
मित्रों के हंसी की लपट में भभक ,
परिवार के असंतोष में झुलस,
अंत में एक अवशेष सा रह जाता हूँ |
इस जर्जर, दूषित दहेज़ लोभी समाज से लड़नेवाले,
किसी विद्रोही नवयुवक की तलाश करता हूँ,
मैं परेशान एक कुंवारी बेटी का बाप,
इस व्यवस्था के बदलने की मांग रखता हूँ |
दिन प्रति दिन बड़ी होती कुवारी बेटी के पिता की मनः स्तिथि का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है आपने | कविता कड़वी सामाजिक व्यबस्था को दर्शाती है | खुबसूरत अविव्यक्ती |
अवनीश जी
.......
इस जर्जर, दूषित दहेज़ लोभी समाज से लड़नेवाले,
किसी विद्रोही नवयुवक की तलाश करता हूँ,
मैं परेशान एक कुंवारी बेटी का बाप,
इस व्यवस्था के बदलने की मांग रखता हूँ |
हर बाप अपनी बेटी के विवाह के समय तो यही सोचता है किंतु जब बेटे के विवाह के अवसर आता है तो सारी नैतिकता और यह सब भुला देता है.
अस्तु एक अच्छी वैचारिक प्रस्तुति के लिये साधुवाद ... स्नेह
हमेशा आपकी समीक्षाओं से पाला पड़ता रहा,आज आपकी कविता से मुखातिब होने का मौका मिला.अंदर में कहीं दबी हुई वेदना उमड़ पड़ी.साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"
दमदार ,ह्रदय को चूने वाली रचना के लिए बहुत बहुत आधी अवनीश भाई !!
Sadar
Divya Prakash
कविता के शीर्षक से ही अनुमान लग जाता है कि कविता अत्यन्त मार्मिक होगी और पढ़ कर ऐसी ही अनुभूति होती है
मध्य और अंत कि पंक्तिया बहुत ही सवेदनशील और खुबसूरत है.इस विषय पर कई कविताये एवं लेख पढ़े है पर उनमे से ये सबसे अच्छी लगी.
ये कविता हम सब कि भावनाओ का प्रबल नेतृत्व करती है. और हा कविता के तुंरत बाद आपकी समीक्छा पढ़ा कर अच्छा लगा
-deepali
इस जर्जर, दूषित दहेज़ लोभी समाज से लड़नेवाले,
किसी विद्रोही नवयुवक की तलाश करता हूँ,
मैं परेशान एक कुंवारी बेटी का बाप,
इस व्यवस्था के बदलने की मांग रखता हूँ |
अवनीश जी
बहुत सुन्दर लिखा है। एक बेटी के बाप की पीड़ा को बहुत खूब उभारा है।
अवनीश जी,
पाठक सहज ही इस पीड़ा से खुद को जुड़ा हुआ पाता है। अच्छा प्रसंग उठाया है आपने। वैसे ९०% समस्या तो माँ-बाप की बेतुकी हठधर्मिता की वजह से है। जिस दिन विवाह का आधार बड़ों की इच्छा की बजाय प्रेम होगा उस दिन समस्या समाप्त हो जाएगी। क्योंकि बेटी के बाप की भी सारी दृष्टि पैसे पर केंद्रित होती है जैसा कि बेटे के बाप की, तो ऐसे में मुश्किलें खड़ी होना स्वाभाविक है।
अवनीश जी,
समाज के कटु सत्य को लेखनीबद्ध करने के लिए बहुत बहुत बधाई.....अच्छी लगी आपकी रचना....लिखते रहिए....सस्नेह!
डा. रमा द्विवेदी
आपकी कविता बहुत अच्छी है।
पढ़कर मैं इतना प्रभावित हुआ कि अपनी डायरी के पृष्ठ पलटने लगा।
इस समस्या पर अपनी कविता से उध्दरित चंद लाइनें लिख रहा हूँ
इस उम्मीद में की बात आगे बढ़े----
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---पाने की हवश और खोने के भय ने
ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है
जहाँ-
बेटे-पपलू बन आते हैं जीवन में
बेटियाँ-बेड़ियाँ बन जाती हैं पाँव में
एक्किसवीं सदी का भारत
आज भी
गूँगा है शहर में
बहरा है गाँव में।
---देवेन्द्र पाण्डेय।
बरस का अन्तिम दिन उसके मन में प्रश्न और
मेरे माथे पर चिंता की रेखा छोड़ जाता है |
बेटी के साँवले तस्वीर पर बार बार हाथ फेरता हूँ,
शायद कुछ रंग निखर आए,
bahut payari kavita hai
saader
rachana
बरस का अन्तिम दिन उसके मन में प्रश्न और
मेरे माथे पर चिंता की रेखा छोड़ जाता है |
बेटी के साँवले तस्वीर पर बार बार हाथ फेरता हूँ,
शायद कुछ रंग निखर आए,
बहुत ही मार्मिक रचना..
बहुत बहुत बधाई अवनीश जी...
sach kaha, baap ke man mein hone wali halchal ko bahut acche saleeke se ubhara hai, kavita bahut acchi lagi, dil ko chhuu gayi. Badhai
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