युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताओं के शब्द बहुत जाने-पहचाने हैं, अपने आसपास के लगते हैं। उन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि ये तो मेरे ही शब्द हैं। परंतु उन शब्दों की कई लेयरों में जो काव्यात्मकता छिपी है, वो उनको ख़ास कवि बनाती है।
'व्यथा वृत्त'
कथित उत्तर-आधुनिक सदी में
वह आदमी
आदमी होने की निराशा भोग रहा था
कहता जा-जाकर हित मित्रों से
कि उसे दुख है, दिक़्क़त है
जो चाहिए उसकी क़िल्लत है-
कोई उसकी नहीं सुनता
कि भूखा रह जाता है वह
और उसे कोई नहीं पूछता
कि वह काम करते-करते
थक जाता है
और आराम के लिए
कोई नहीं कहता
कहता कि वह रोता रहता है
तो दुनिया हँसने लगती है
इस बात का उसे दुख है
उसे दुख है कि लोग हँसी को
हँसी की तरह नहीं हँसते
उसे दुख था तो वह निराश था
अपने मन की व्यथा-कथा
उसने सबसे कही
उन सबसे जिन पर उसे
भरोसा था कि
वे उसे प्यार करते हैं
उसने कहा
हाल यही रहा तो
वो नहीं रहेगा
उसने रो-रोकर कहा
कि वह कुछ कर लेगा
कि कोई उसकी नहीं सुनता
वैसे उसकी सुनते तो सब
बल्कि कई तो सुनते हुए
उसके साथ-साथ रोने लगते
मगर जब सचमुच ही
उसकी आत्मा दरकने लगती
तब इगी-दुगी तक हँसने लगते
कि वह नौटंकी कर रहा है
आख़िर उसे क्या दुख हो सकता है
सब कुछ तो भरा है उसके यहाँ
यह ठीक था
सब कुछ भरा था उसके यहाँ
लेकिन वह जहाँ भी हाथ डालता
ख़ालीपन ही पाता
लोग उसकी इसी बात का
भरोसा नहीं करते
हालाँकि अपने-अपने जीवन में
सबका यही अनुभव था
लेकिन इसे सार्वजनिक करने को
कोई तैयार न था
सब चाहते तो थे
कि एक-दूसरे के कन्धे पर
अपना माथा रखकर
मिल-जुलकर रोएँ
पर सब अपने-अपने कन्धे बचाना चाहते
और आँसू तो कतई नहीं दिखाना चाहते
सब दुखी थे और ख़ुश थे
वही दुख को दुख की तरह
कहने और नहीं सहने का
साहस कर रहा था
इसलिए हास्यास्पद हो रहा था
यह बात वह समझ रहा था अच्छी तरह
इसलिए वह जिस-तिस से लड़ पड़ता
ग़ैरो से वह शिक़ायत करता
मगर अपनों के प्रति
उसका ग़ुस्सा ख़ास था
और ख़तरनाक था
और चूँकि वह औरों से हटकर था
इसलिए सब उससे हटकर रहना चाहते
इस बात से वह और दुखी था
जब उससे अपना दुख
देखा नहीं गया
और दूसरों का दुख कीचड़ की तरह
उसके सामने फैला ही रहा
घूम-घूमकर अपने सभी हित मित्रों को
वह प्रणाम कर आया
जिनके जो छोटे-मोटे कर्ज़ थे
चुका आया
जो नहीं चुका सकता था उसके लिए
माफ़ी माँग आया
और गाँव से बाहर नहर के कछार पर
ज़हर खाकर
छटपटाकर मर गया
वह मर गया तो भोज हुआ
उस भोज में
अपने-पराये
कौए, बिलार, भालू, राक्षस सबने
डकार कर जलेबी-पूरी खायी
एक ब्राह्मण ले गया उसकी बछिया खोलकर!
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह क्या खूबसूरती से शब्दों का जाल बुना है आपने एक बहुत अच्छी कविता है ये , पर कहीं अंत में जाकर शब्द डगमगा रहे से प्रतीत हो रहे है | माफ़ कीजियेगा मैं इतना ज्यादा नही जानता पर इस कविता को पढ़कर मन में जो आया लिखा दिया |
आदमी बना कर उपरवाले ने मुझसे पूछा,
"अभि " कैसा महसूस करते हो आदमी होकर,
मैंने कहा एक कठपुतली बनायीं है आपने,
सुख दुःख के पहियों पर चलने वाली,
महसूस कुछ ऐसा ही करता हूँ मैं भी,
जैसा महसूस करते हैं आप एक कठपुतलीकार होकर !!!
एक शब्दशिल्पीकी ही ऐसी अभिव्यक्ति हो सकती है मैने महसूस कुअ है कि इसका रचनाकार शब्दो़की कठपुतली नहीं है बल्किइस रच्ना के शब्द इसकी कलम की कठपुत्ली हैम बहुत सुन्दर्
उसे दुख है कि लोग हँसी को
हँसी की तरह नहीं हँसते...
वाह.. क्या कटाक्ष है!!
adbhut abhivyakti.......
Ooper wala sochta hain " maine to bakshi thi ruhaniya isme, bhavna, sanveg aur samvedna isme ....par insaan bhi jaldi hi practial ho gaya . ... ab to har mamla professional ho gaya
lajawab.
bahut hi badhiyaa
अभिषेक जी,
शायद, इस माध्यम पर की गई रिक्वेस्ट खाली ही रह जाती होगी? मैंने पहले भी आपसे अनुरोध किया था कि यदि संभव हो तो श्री हरेप्रकाश जी उपाध्याय का संपर्क सूत्र कोई उपलब्ध हो तो कृपया दीजियेगा, मेरा इंतजार जारी है आज तक।
मैं निर्मला कपिला जी कि बात की हामी भरता हूँ कि शब्द शिल्प की कला के माहिर हैं श्री हरेप्रकाश जी, और उनके इन उम्दा शिल्पों से परिचित कराने के लिये अभिषेक जी का भी शुक्रिया।
" उन सबसे जिन पर उसे
भरोसा था कि
वे उसे प्यार करते हैं
उसने कहा
हाल यही रहा तो
वो नहीं रहेगा
उसने रो-रोकर कहा
कि वह कुछ कर लेगा
कि कोई उसकी नहीं सुनता "
यह पंक्तियाँ पढते यह मह्सूस होता है कि पाठक अपने आस-पास ही ऐसे किसी व्यक्ती को जानता हूँ और उसे बिना देर किये हुये उसकी बात सुन लेना चाहिये, यही लेखकीय सफलता है।
सादर, साधुवाद,
मुकेश कुमार तिवारी
Mitron aap sabka aabhar. mai aap sabon kee rachnat yatra se thoda bahut parichit bhi hoon. achchha lagega ham aapas me sanvad banayen.
ek bar fir shukriya....
internet pr bahut gati nhi hone ke karan aap sabse niyamit sanvad nhi rakh pa rha hoon. afsos hai....
mera mobile-09910222564
Hare prakash upadhyay
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