वो आसमान में दिखा परिंदा है।
उड़ रहा है, शायद वो जिंदा है।
तल्खी-ए-ज़ीस्त महसूस किया
आदमी होने पे वो शर्मिंदा है।
ये जहाँ नहीं जागीर किसी की
मालिक वो खुदा तू करिंदा है।
औरों का गम देख भरे आँसू
वो इसी शहर का बाशिंदा है।
मस्जिद, मंदिर, गिरजा में दिखे
सच सुरेश वो आदमी चुनिंदा है।
शब्दार्थ- तल्खी-ए-ज़ीस्त- जीवन की कड़ुवाहट, ज़िदंगी की कड़ुवाहट, करिंदा- कर्मचारी
यूनिकवि डॉ॰ सुरेश तिवारी
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत बढिया रचना है बधाई।
sunder rachnaa,,,
achchhee rachna.
bahut sahi...
Achchi Gajal hai... Abhi "waah...!" ke sher aaye hain, "Aahh....!" ke sher aana baaki hai. Lata hai kaafiya aapne thoda mushkil le liya hai.....
fir bhi achha laga ........ badhai
kaafi achhi lekhni
डॉ. सुरेश जी,
तल्खी-ए-ज़ीस्त महसूस किया
आदमी होने पे वो शर्मिंदा है।
कितना अच्छा ख्याल है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
मस्जिद, मंदिर, गिरजा में दिखे
सच सुरेश वो आदमी चुनिंदा है।
...............waha bhi give n take ka formula chalta hain.....atti uttam
औरों का गम देख भरे आँसू
वो इसी शहर का बाशिंदा है।
bahut umda Suresh Sir. choo gayee dil ko, ab kahan aisa hota hai??
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