नदी के किनारे
'और' आग तलाशते
एक युवक से
बुझी हुई राख ने कहा-
हाँ !
बचपन से लेकर जवानी तक
मेरे भीतर भी
यही आग थी
जो आज
तुम्हारे पास है।
बचपन में यह आग
दिए की लौ के समान थी
जो 'इन्कलाब जिंदाबाद' के नारे को
'तीन क्लास जिंदाबाद' कहता था
और समझता था
कि आ जाएगी एक दिन 'क्रांति'
बन जाएगी अपनी
टपकती छत !
किशोरावस्था में यह आग और तेज हुई
जब खेलता था क्रिकेट
शहर की गलियों में
तो मन करता था
लगाऊँ एक जोर का छक्का
कि चूर-चूर हो जाएँ
इन ऊँची-ऊँची मिनारों के शीशे
जो नहीं बना सकते
हमारे लिए
खेल का मैदान !
युवावस्था में कदम रखते ही
पूरी तरह भड़क चुकी थी
यह आग
मन करता था
नोंच लूँ उस वकील का कोट
जिसने मुझे
पिता की मृत्यु पर
उत्तराधिकार प्रमाणपत्र के लिए
सात महिने
कचहरी का चक्कर लगवाया !
तालाब के किनारे
मछलियों को चारा खिलाते वक्त
अकेले में सोंचता था
कि बना सकती हैं ठहरे पानी में
अनगिन लहरियाँ
आंटे की एक छोटी गोली
तो मैं क्यों नहीं ला सकता
व्यवस्था की इस नदी में
उफान !
मन करता था
कि सूरज को मुठ्ठी में खींचकर
दे मारूँ अँधेरे के मुँह पर
ले !
चख ले धूप !
कब तक जुगनुओं के सहारे
काटेगा अपनी रातें !
हाँ
यही आग थी मेरे भीतर भी
जो आज
तुम्हारे पास है।
नहीं जानता
कि कब
किस घाट पर
पैर फिसला
और डूबता ही चला गया मै भी।
जब तक जिंदा रहा
मेरे गिरने पर
खुश होते रहे
मेरे अपने
जब मर गया
तो फूँककर चल दिए
यह बताते हुए कि
राम नाम सत्य है।
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कवि-- देवेन्द्र कुमार पाण्डेय
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
मन करता था
कि सूरज को मुठ्ठी में खींचकर
दे मारूँ अँधेरे के मुँह पर
ले !
चख ले धूप !
कब तक जुगनुओं के सहारे
काटेगा अपनी रातें !
बहुत बढ़िया बात रखती हुई कविता आगे बढ़ती है..भाव और संदेश देती हुई यह कविता बहुत सुंदर लगी..बधाई देवेन्द्र जी
"jab mar gaya to phoonk kar chal diye...yeh batate hue ...ki ram naam satya hai"......behtareen panktiyaaan......
पाण्डेय जी ,
कमाल का विद्रोह है
अमूमन सभी के दिलों में तो है पर लेखनी से नहीं निकल पाती है ऐसी आग के रूप में
itni achchi rachna ke liye badhaai
देवेन्द्र जी,
बहुत ही अच्छी कविता
भाव उत्तम, शैली ग्राह्य, प्रवाह विशिष्ठ
बधाई
.
बस मेरे भाई !
पैर ना फिसले
पैर जो फिसला तो
सबसे कीमती बात
अंत में पता चलेगी
"राम नाम सत्य है"
.
सादर,
विनय के जोशी
नश्तर की तरह दिल में उतर गयी ये कविता | और दिल से सारे शब्द गायब हो गए अभिव्यक्ति के लिए
लेखनी की आग कंचन -सी निखरी कविता जो जीवन का अंतिम सच का संदेश देती है .बधाई.
"राम नाम सत्य है"
भाषा की सर्जनात्मकता के लिए विभिन्न बिम्बों का उत्तम प्रयोग, लेखन में व्यंग्य के तत्वों की मौजूदगी से विद्रोह के तेवर और मुखर हो गए हैं।
कि बना सकती हैं ठहरे पानी में
अनगिन लहरियाँ
आंटे की एक छोटी गोली
तो मैं क्यों नहीं ला सकता
व्यवस्था की इस नदी में
उफान !
वाह! क्या बात है..काश हम भी बदल पाते व्यवस्था। सशक्त रचना के लिए बधाई !
बचपन से लेकर जवानी तक
मेरे भीतर भी
यही आग थी
जो आज
तुम्हारे पास है।
.......
इसी का नाम ज़िन्दगी है !
कविता में हर चीज़ बढ़िया लगी.
नदी के किनारे
'और' आग तलाशते
एक युवक से
बुझी हुई राख ने कहा-
हाँ !
बचपन से लेकर जवानी तक
मेरे भीतर भी
यही आग थी
जो आज
तुम्हारे पास है।
बचपन में यह आग
दिए की लौ के समान थी
जो 'इन्कलाब जिंदाबाद' के नारे को
'तीन क्लास जिंदाबाद' कहता था
और समझता था
कि आ जाएगी एक दिन 'क्रांति'
बन जाएगी अपनी
टपकती छत !
A very nice composition.Each and every line creates waves of revolution into the deep parts of the heart.
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