कहाँ गई संवेदना, कहाँ गया है नेह।
सबकी आँखों में भला, क्यों दिखता संदेह॥
नयी पौध ने गढ़ लिये, नये-नये प्रतिमान।
रिश्तों के वट वृक्ष का, टूट गया अभिमान॥
विष कोई पीता रहा, हर क्षण आठों याम।
किसी और को ही मिला, नीलकंठ का नाम॥
वही दक्ष क़ाबिल वही, वो ही चतुर सुजान।
छल प्रपंच के शास्त्र का; जिसे असीमित ज्ञान॥
क्यों बगिया में है नहीं; अब वो मधुर सुगन्ध।
फूलों से क्यों आ रही; है बारूदी गंध॥
चींटी के पर क्या उगे, सिर पर चढ़ा गुमान।
उसे लगा आकाश को; वही रखे है थाम॥
जंगल-जंगल जंग है, जंगल लहूलुहान।
रही न कौड़ी मूल्य की, अब आदम की जान॥
सड़कों से तो ना रही, अब कोई भी आस।
पगडंडी में ही करें; मंज़िल नयी तलाश॥
विश्वासों के गढ़ ढहे, आस्था के कंगूर।
जो जितना ही पास था; वो अब उतनी दूर॥
काट-छाँट करते रहे; तना डालियाँ मूल।
मन बोन्साई हो गया, आगे बढ़ना भूल॥
"सत्यप्रसन्न"
कोरबा (छत्तीसगढ़)
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
आज कहीं कोई संवेदना दिखाई नही देती ज़्यादा से ज़्यादा लोग बस मतलब के लिए दोस्त बनाते है..कुछ ही होते है जो सच्ची यारी करते है..
बढ़िया कविता..बधाई,
भावनाओं की बारिश में ११/१३ के बीज से कई पंकियाँ अंकुरित हो जाती है
सभी दोहे लिखने वाले जानते है कि उनके कुछ ही दोहे सजीव है बाकी तो गणितीय खिलौने है
.
आपके निम्न दोहे में जान है
बधाई |
सड़कों से तो ना रही, अब कोई भी आस।
पगडंडी में ही करें; मंज़िल नयी तलाश॥
सादर,
विनय के जोशी
अच्छी रचना ,,बधाई!
अंतिम दोहे में बोन्साइ का बढिया प्रतीक प्रयोग किया है .बधाई!
गहरी संवेदनी और असीमित भाव लिए दोहे पेश करने के लिए बहुत-बहुत बधाई।
वही दक्ष क़ाबिल वही, वो ही चतुर सुजान।
छल प्रपंच के शास्त्र का; जिसे असीमित ज्ञान
सार्थक दोहे |आज के हालात का सही सही आकलन करती सुंदर बन पड़ी है दोहावली |
बधाई
बहुत-बहुत अच्छी लगी आपकी दोहा-कविता.
ज़िन्दगी के सारे क्रम बदल गए हैं.......साज-सज्जा ऐसे ही हो चले हैं,
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
सत्प्रसंं जी आप अपनी कविताओं में जो साड़ी चीज़ों को एक दुसरे से relate करते हैं वह बहुत बढ़िया लगता है. आपका यह एक अंदाज़ निराला है.
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