कहाँ गई संवेदना, कहाँ गया है नेह।
सबकी आँखों में भला, क्यों दिखता संदेह॥
नयी पौध ने गढ़ लिये, नये-नये प्रतिमान।
रिश्तों के वट वृक्ष का, टूट गया अभिमान॥
विष कोई पीता रहा, हर क्षण आठों याम।
किसी और को ही मिला, नीलकंठ का नाम॥
वही दक्ष क़ाबिल वही, वो ही चतुर सुजान।
छल प्रपंच के शास्त्र का; जिसे असीमित ज्ञान॥
क्यों बगिया में है नहीं; अब वो मधुर सुगन्ध।
फूलों से क्यों आ रही; है बारूदी गंध॥
चींटी के पर क्या उगे, सिर पर चढ़ा गुमान।
उसे लगा आकाश को; वही रखे है थाम॥
जंगल-जंगल जंग है, जंगल लहूलुहान।
रही न कौड़ी मूल्य की, अब आदम की जान॥
सड़कों से तो ना रही, अब कोई भी आस।
पगडंडी में ही करें; मंज़िल नयी तलाश॥
विश्वासों के गढ़ ढहे, आस्था के कंगूर।
जो जितना ही पास था; वो अब उतनी दूर॥
काट-छाँट करते रहे; तना डालियाँ मूल।
मन बोन्साई हो गया, आगे बढ़ना भूल॥
"सत्यप्रसन्न"
कोरबा (छत्तीसगढ़)