संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.
दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.
सुनिए दोहा-पुरी में, संगीता की तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान.
समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन रविकान्त.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा शांत.
सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
भू प्रगटे देवेन्द्र जी, करने दोहा-गान.
शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.
दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.
पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.
अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूंदकर, बने हुए हैं सूर.
जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.
सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.
स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.
दोहा-प्रेमियों की रूचि और प्रतिक्रिया हेतु आभार। दोहा रचना सम्बन्धी प्रश्नों के अभाव में हम दोहा के एतिहासिक योगदान की चर्चा करेंगे। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बतादी. असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.
इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.
मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..
शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.
किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।
जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.
दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-
जो जिण सासण भा भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.
चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.
चलिए, आज की दोहा वार्ता को यहीं विश्राम दिया जाय इस निवेदन के साथ कि आपके अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोज कर रखिये, कभी उन की भी चर्चा होगी। अभ्यास के लिए दोहों को गुनगुनाइए। राम चरित मानस अधिकतर घरों में होगा, शालेय छात्रों की पाठ्य पुस्तकों में भी दोहे हैं। दोहों की पैरोडी बनाकर भी अभ्यास कर सकते हैं। कुछ चलचित्रों (फिल्मों) में भी दोहे गाये गए हैं। बार-बार गुनगुनाने से दोहा की लय, गति एवं यति को साध सकेंगे जिनके बारे में आगे पढेंगे।
-- आचार्य संजीव 'सलिल'
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
आचार्य ...आश्चर्या.....????????????????
मैं नहीं बस.....!!!!!!!
"" जग सारा अपना लिया , आचार्य ने आज,
क्यूं मोहे बिसरा दिया, हूँ तोसे नाराज ""
बच्चा कक्षा से डरता है तो आप उसे भुला देंगे आचार्य....??
पिछली बार की हर टिप्पणी पर एक एके दोहा.. कमाल है गुरु जी...
हम भी कोशिश करेंगे अगली बार दोहों में ही टिप्पणी करने की... वैसे जो दोहे आपने बताये उनसे जानकारी बहुत बढी..
हा हा...
संजीव जी के दोहों में मनु रह गये बस
आचार्य जवाब देने पर हो जायेंगे विवश...
आचार्य संजीव 'सलिल', सम्पादक दिव्या नर्मदा
संजीवसलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
मनु को कौन भुला सका, रहा हमेशा याद.
लेकिन पत्ता तुरुप का, लेते सबके बाद.
रूठे तो अच्छा किया, दिखा दिया यह आज.
जो अपना होता वही, अपनों से नाराज.
आचार्य संजीव 'सलिल'
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
रोना होता है भला. आँखें होतीं साफ़.
ठीक तरह से कर सकें, दोहे से इन्साफ.
मैं क्या जानूं सिखाना, स्वयं सीखता रोज.
मनु जैसे गुरु की करुँ, हिन्दयुग्म पर खोज.
बच्चा होता बाप का, बाप यही है सत्य.
क्षणभंगुर है 'सलिल' पर, 'मनु' अविनाशी नित्य.
पहले रुलाते हैं फ़िर सबसे बड़ा चाकलेट थमा देते हैं....
प्रणाम.
अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर
जो वे आँखें मूंदकर, बने हुए हैं सूर
बने हुए हैं सूर, चाँद का सपन दिखाते
निज हाथों से आप, देश का दीप बुझाते
--अच्छे दोहों का हुआ आज और भी ग्यान
और एक में है लिखा मेरा भी तो नाम।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
दोहे की महिमा पढ़ी, हुआ हृदय को हर्ष।
हमें भूल जो सब गए, होगा ना उत्कर्ष।।
शोभा से आरम्भ है, शोभा पर ही अंत.
गीतिकाव्य का रसकलश, दोहा रसिक- न संत.
गति यति रस लय भावमय, बेधकता रस-खान.
शोभा बिम्ब-प्रतीक की, 'सलिल' फूंकती जान
दिल गद् गद् है खुशी से, आंखें भी मुसकाएँ।
दोहा चर्चा युग्म पर, सलिल सदृश्य गति पाए।
लिख कर दोहे आपने किया है हिंद का मान
हर एक दोहे में छिपा है गहरा गहरा ज्ञान
हुआ कया जो पिछड गई ,समय की सीमा आज
पिछडे हुए ही भूल गए ,बताया गुरु ने राज
बहा जा रहा सलिल यूं ,जयों दोहा की धार
भुला के हमको तोड दी हर सीमा की दीवार
बिन सीमा हो जाएगी ,धारा बेपरवाह
सीमाओं मे बहोगे तो , मिल जाएगी थाह
देर हुई दरबार में, माफ करें महाराज....
दोहा-महफिल में हमें,शामिल कीजै आज...
मन मेरा हर्षित हुआ...पढ़ कर दोहा आज...
वंदन मेरा स्वीकार करे..धन्य आप महाराज!!!!!
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