मेरा स्वागत यहीं था
काटे गए डोर
का अवशेष
अब भी बचा
है मुझमेM...
यहाँ...
देखती थी
लाल चिडिया को
जब पंख फैलाती थी
उड़ नहीं पाती थी..
फड़फड़ाती थी..
बहुत देर तक...
चिड़ा उड़ता रहता था
अपने में मगन...
बिना उसपे ध्यान दिए....
अब तो..
पंख है उसके पास
ये भी उसे स्मरण नहीं.
मैं भी एक,
लाल चिड़िया...
तुम्हारे लिए
समर्पित होते
हुए भी...
अपने अंदर
झूलते रस्सी से
अटकी हूँ....
मन में कहीं
छोटी सी एक नदी
है...
उसमें रंग बिरंगी
मछलियाँ रहती
हैं.....
दिन में उन्हें दबा
देती हूँ..
पर रात मे...
मेरी स्वतंत्रता
में...
एक-एक मछली
उछलती है...
तैरती है...
ले जाती है मुझे
सफेद संगमरमर के
ताजमहल के पास
वहाँ अकेली होती
हूँ मैं...
दूर-दूर तक तुम
नहीं दिखते...
दिखती है वही
लाल चिड़िया
उड़ते हुए...
सवेरे मछलियाँ
छुप जाती हैं...
और मैं लाल चिड़िया
बैठी रह जाती हूँ
उदास..
चिर उदास...
यूनिकवयित्री दिव्या श्रीवास्तव
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुंदर लगी यह रचना...बधाई।
रचना इशारों में ही बात करती है,जो अच्छा है...दिव्या ने रात की बेबसी को जिस सच्चाई के साथ कविता में परोसा है, वो काबिलेतारीफ है...और गहरी रचनाओं की उम्मीद में...
निखिल
गहरी भावः हैं नन्ही सी चिडिया के जज्बातों में
बहुत खूब
सवेरे मछलियाँ
छुप जाती हैं...
और मैं लाल चिड़िया
बैठी रह जाती हूँ
उदास..
चिर उदास...
बहुत सुन्दर।
कमाल का लिखा है आपने दिव्या जी। बहुत गहरी कविता।
बहुत अच्छी रचना है...
परआख़िर में आकर मुझे भी लगता है के निखिल जी का बहुत सही है....
इशारा ख़त्म होने से कुछ तो फर्क लगा है ...
बधाई आपको...
निखिल जी को धन्यवाद .!!
पर रात मे...
मेरी स्वतंत्रता
में...
एक-एक मछली
उछलती है...
तैरती है...
ले जाती है मुझे
सफेद संगमरमर के
ताजमहल के पास
******************
बहुत ही दार्शनिक कविता लिखी गई है ... निसंदेह एक अच्छा साहित्य रचा जा रहा है हिंद युग्म पर
नन्ही चिडिया की ऊँची भावनाए .खूब लिखा है सांकेतिक प्रतिबिम का प्रयोग बहुत सुंदर तरीके से किया है
सादर
रचना
bahut hi khubsoorat kavita hai. Aap ko bahut sari badhaiyan itni acchi rachana ke liye.
सवेरे मछलियाँ
छुप जाती हैं...
और मैं लाल चिड़िया
बैठी रह जाती हूँ
उदास..
चिर उदास...
chidiyaa ke maadhyam se bahut kuch kah diya aapne . Badhaaii
aapki puraani wwli dhaar ab bhi barkarrar hai,padhkar khushi hui.
gajab ki bhawavyakti!
adbhut!
ALOK SINGH "SAHIL"
स्वागत से आरम्भ है, लेकिन अंत उदास.
चिडिया-गाथा में निहित, हास आस कुछ प्यास.
धुप छाँव से शोक-सुख, के पिंजरे में बंद.
श्वास शब्द ले आस ने, रचे प्यास के छंद.
नेह नर्मदा बह रही, दिवस देखता मौन.
निशा-उषा संग खेलती, जान सका है कौन.
तैर रही हर मीन में, ताजमहल है एक.
जिसको होना चाहिए, वही नहीं है नेक.
सुबह अकेली दिख रही, चिडिया लाल उदास.
अंधियारे में रात को, करती 'सलिल' उजास.
श्री वास्तव में पा सकी, चिडिया चिडवा रंक.
दिव्या नव्या जिजीविषा, कमल 'सलिल' जग पंक.
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
यहाँ...
देखती थी
लाल चिडिया को
जब पंख फैलाती थी
उड़ नहीं पाती थी..
फड़फड़ाती थी..
बहुत देर तक...
चिड़ा उड़ता रहता था
अपने में मगन...
बिना उसपे ध्यान दिए....
अब तो..
पंख है उसके पास
ये भी उसे स्मरण नहीं.
मैं भी एक,
लाल चिड़िया...
तुम्हारे लिए
समर्पित होते
हुए भी...
अपने अंदर
झूलते रस्सी से
अटकी हूँ....
peeda ki gahraai ko itne gahre shabd divya ji ,aapki gindgi divya ho isi kaamna ke sath .
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)