फटाफट (25 नई पोस्ट):

Saturday, December 20, 2008

जिंदगी का एक झरोखा मैंने आज बंद कर दिया


हिन्द-युग्म की पिछले माह की यूनिपाठिका नीति सागर की भी एक कविता अंतिम १२ में स्थान बनाने में सफल हुई थी। आज हम उनकी वह कविता प्रकाशित कर रहे हैं।
पुरस्कृत कविता- झरोखा

जिंदगी का एक झरोखा मैंने आज बंद कर दिया
जिससे झांकते थे जिंदगी के अरमान
और उसकी तमन्ना
अब नही झांक पायेंगे
वो मेरे मन के अन्दर
नहीं जान पायेगी जिंदगी
की क्या है मेरे अन्दर............
जिंदगी आज से मेरी पड़ोसन बन गई है
जो करती है कोशिशें तमाम
मेरे मन के अन्दर आने की
पर हर बार मैं उसे मन के दरवाज़े से ही लौटा देती हूँ .......
सुन कर उसकी आहट मैं बंद कर लेती हूँ
अपने मन के दरवाज़े
वो नहीं जान पाती
मैं अपने छोटे से मन के अन्दर सुकून से रहती हूँ
मैं जानती हूँ गर साथ जिंदगी का लिया
तो वो मुझे भी अपने जैसा बना देगी
जो दिखाती है सपने आसमान के
पर लाकर धरती पर सुला देती है
मैंने अपनी हसरतों को समझा दिया है
कि न लेना साथ जिंदगी का
गर लिया साथ तो न करना विश्वास जिंदगी का.............
कहीं तुम्हें बीच राह में छोड़ जायेगी
या अपने रिश्तेदार (दुःख-दर्द) को तुम्हें दे आएगी.
मुझे डर जिंदगी से नहीं लगता
पर साथ उसका भी कुछ अच्छा नहीं लगता
इसलिए बंद कर दिया आज मैंने जिंदगी का एक झरोखा,
अब सुकून से रहती हूँ मैं अपने छोटे से मन के अन्दर.


प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, ६॰२
औसत अंक- ५॰८५
स्थान- इक्कीसवाँ


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ३॰५, ६॰८५(पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ५॰११६६७
स्थान- ग्यारहवाँ

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

6 कविताप्रेमियों का कहना है :

दिगम्बर नासवा का कहना है कि -

मन के अन्दर से निकली, मन की झरोखों को बदं करती सकून पहुंचाती कविता
अति उत्तम

नियंत्रक । Admin का कहना है कि -

दोहा-प्रशिक्षक संजीव सलिल ने निर्णय लिया है कि अब वे दोहा के रूप में ही कमेंट किया करेंगे।

बंद झरोखा कर दिया, अब न सकेगी झाँक.
दूर रहेगी जिंदगी, सच न सकेगी आँक.
मन में मेरे क्या छिपा, पूछ रही आ द्वार.
खाली हाथों लौटती, प्रतिवेशिनी हर बार.
रहे अधूरे आज तक, उसके सब अरमान.
मन की थाह न पा सके, कोशिश कर नादान.
सुन उसकी पदचाप को, बंद कर लिए द्वार.
बैठी हूँ सुख-शान्ति से, उससे पाकर पार.
मुझे पता यदि ले लिया, मैंने उसको साथ.
ख़ुद जैसा लेगी बना, मुझे पकड़कर हाथ.
सुला रही है धारा पर, दिखा गगन का ख्वाब.
बता हसरतों को दिया, ओढे रहो नकाब.
बीच राह में छोड़ दे, करना मत विश्वास.
दे देगी दुःख-दर्द सब, जो हैं उसके खास.
भय न तनिक, रुचता नहीं, मुझको उसका संग.
देखूं खिड़की बंद कर, अमन-चैन के रंग.

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

बधाई स्वीकारें नीति जी।

Vinaykant Joshi का कहना है कि -

माननीय,
यह तो कवि के भावों को थाम दोहे गढ़ना हुआ, टिप्पणी नही |
दोहों के माध्यम से कविता के गुण दोषों पर प्रकाश डाला जाता तो कवि / कवयित्री
माननीय सलिल जी की विद्वता से अधिक लाभान्वित होते |
२/-जिंदगी आज से मेरी पड़ोसन बन गई है
जो करती है कोशिशें तमाम
मेरे मन के अन्दर आने की
पर हर बार मैं उसे मन के दरवाज़े से ही लौटा देती हूँ .......
--अच्छी लगी यह पंक्तिया, बधाई |
सादर,
विनय

सीमा सचदेव का कहना है कि -

मैंने अपनी हसरतों को समझा दिया है
कि न लेना साथ जिंदगी का
गर लिया साथ तो न करना विश्वास जिंदगी का.............
bahut gahra bhaav samete hai yah panktiyaan . Agar yahi baat hamaari samajh me aa jaaye to shaayd koi dukhi ho hi nahi. Sundar rachna ke liye badhaaii

Anonymous का कहना है कि -

मेरी कविता पर टिप्पडी देने के लिए आप सभी का धन्यवाद! हिन्दयुग्म पर प्रतियोगिता के माध्यम से यह मेरी पहली कविता प्रकाशित हुई,इसलिए कविता के प्रकाशन से अधिक मुझे उसपर आप सभी की टिप्पडी का इंतज़ार था!ताकि मैं अपनी कविता के दोषों को दूर कर सकूँ! विनय जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ!

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)