ना समझ पाया स्वयं को
पोथियों में बाँचता
मौन वाणी हो चली है
शब्द भीतर नाचता
कश्तियां कागद-कलम से
खींचती थी मौन आँखें
कर्म की भाषा न समझी फड़फड़ाती भव्य पाँखें
उड़ न पाई एक डग उस गगन के विस्तार में
चित्र राहों का कभी
मंजील नही पहुँचता
मौन तूलिका हो चली है
रंग भीतर नाचता
बखेड़ा यदि राह में
खुद राह को मालुम कब
भोग ने भोगा अभी जो
भोग को मालुम कब
सुन न पाई जिन्दगी
विश्लेषणों में दिल की धड़कन
सोंच पाता हूँ मैं क्या
दिन भर यही मैं सोंचता
मौन वाणी हो चली है
शब्द भीतर नाचता
-हरिहर झा
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
कश्तियां कागद-कलम से
खींचती थी मौन आँखें
कर्म की भाषा न समझी फड़फड़ाती भव्य पाँखें
उड़ न पाई एक डग उस गगन के विस्तार में
चित्र राहों का कभी
मंजील नही पहुँचता
मौन तूलिका हो चली है
रंग भीतर नाचत
आद्भुत काव्य रचना है झा जी को बहुत बहुत बधाई
सोंच पाता हूँ मैं क्या
दिन भर यही मैं सोंचता
मौन वाणी हो चली है
शब्द भीतर नाचता
अति सुन्दर।
मुझे तो एक-एक पंक्ति अच्छी लगी...बहुत अच्छी रचना,,,,बधाई!
माननीय
बहुत सुन्दर.
आपकी श्रेष्ठ रचनाओं में से एक .
बधाई
.
सुन न पाई जिन्दगी
विश्लेषणों में दिल की धड़कन
.
JHA SAHEB SACH HI HAI !
सध न पाई ज़िन्दगी
उलझ मन के व्यापार में
सादर
विनय के जोशी
ना समझ पाया स्वयं को
पोथियों में बाँचता
मौन वाणी हो चली है
शब्द भीतर नाचता।
---वाह!
चिंतन मनन के लिए मजबूर करती आपकी इस कविता ने बहुत प्रभावित किया।
वस्तुतः स्वयं को वही समझ सका है जिसे सत्य का ग्यान हो गया हो--
फिर वह बेचैन आत्मा से महान आत्मा बन जाता है।
अति सुंदर मौन .बधाई .
बहुत खूब, मौन पर दिल खोलकर लिखा, बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
यह मौन ही प्राप्य है.....जब इसे हासिल कर लें,जीवन के अनेक मायने मिल जाते हैं,
सार्थक मौन
इन पंक्तियों ने सबसे ज्यादा प्रभाव छोडा
ना समझ पाया स्वयं को
पोथियों में बाँचता
मौन वाणी हो चली है
शब्द भीतर नाचता
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