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Sunday, June 08, 2008

पिता, बाबा, पापा पर विशेष संकलन



हिन्दी कविता माँ की महिमा, माँ का गुणगान जिस आवृत्ति से करती दिखती है, उतनी भारी संख्या में पिता पर नहीं बिछती। यदि काव्य-पल्लवन की कविताओं को भी जोड़ लिया जाय तो हिन्द-युग्म के संग्रहालय में लगभग 1500 कविताएँ हैं जिसमें हमारे खोजे पिता से संबंधित मात्र 10 कविताएँ मिलीं। हिन्द-युग्म के कविता मंच का इतिहास लगभग 2 वर्ष पुराना है। पिता को सीधे संबंधित पहली कविता कवि गिरिराज जोशी ने 17 जून 2007 को 'पापा! आप समझ रहे हैं ना' शीर्षक से प्रकाशित की थी, जिसको लोगों ने खूब सराहा था। 41 प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुई थीं।

इसके कुछ ही दिनों के बाद गौरव सोलंकी ने एक कविता
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विनय के॰ जोशी
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
रचना श्रीवास्तव
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पब्लिश की 'पिता से'। 'पिता से' कविता के बाद हिन्द-युग्म के पाठकों ने गौरव को दिल में बसा लिया। हिन्द-युग्म के ही यूनिकवि रह चुके अभिषेक पाटनी टिप्पणी करके लिखते हैं कि वे गौरव की यह कविता समय निकालकर खुराक की तरह पढ़ते रहते हैं या यूँ कहिए की खाते रहते हैं।

अभिषेक पाटनी का कहना है कि -
गौरव भाई...मैं इस एक एहसास के बिना पला-बढ़ा हूं...बावजूद इसके...जब भी आता हूं एक बार पढ़ लेता हूं...हां अपनी मां के लिए मेरे पास कुछ ऐसे ही भाव हैं...ये अलग बात है कि वह भारत की आम मांओं की तरह...तनिक कम पढ़ी-लिखी गृहणी हैं...खैर बेइजाजत या बाइजाजत मैं इस कविता को बार-बार पढ़ने जरूर आता हूं....


विश्व दीपक ने लिखा कि गौरव की यह कविता पढ़कर उनकी आँखों में आँसू आ गये। एक बेनामी टिप्पणीकारा ने जो लिखा वो सच में पठनीय है।

Anonymous का कहना है कि -
कहाँ से शुरू करूँ समझ नही आ रहा, गौरव जी ने ये कविता लिखकर अनजाने मे मुझ पर एहसान किया है,मेरा अपने पापा से हमेशा से सबसे ज्यादा लगाव रहा है, और तालमेल इतना गहरा की हम आँखों से एक दूसरे की बात समझ लेते हैं, पापा पहले आर्मी मे थे, इस कविता मे जिस हिम्मती नौजवान की बात की गई है, वैसे प्रत्यक्ष देखा है मैने अपने पिता को, और आज विशेषकर पिछले 3-4 महीने से अस्वस्थ हैं ,मधुमेह, रक्तचाप और न जाने कितनी छोटी-छोटी बीमारियों ने जैसे उन्हे जैसे थका सा दिया है, मै उनके काफी करीब रही हूँ जानती हूँ कि अगर मैने धीरज खोया तो उन्हे सबसे ज्यादा तकलीफ होगी, इसलिये उनके सामने कभी खुदको परेशान नही दिखा पाई हमेशा हिम्मत देती रही की परेशान होने की बात नही है सब ठीक हो जायेगा। कभी ये नही कह पाई की पापा प्लीज़ जल्दी ठीक हो जाऒ मुझे आपको बीमार देखकर अच्छा नही लग रहा, आज ये कविता पढते वक्त कब आँखों से आँसू निकले पता नही, खुलकर, फूट-फूटकर खूब रोयी जितना मै रो सकती थी, लग रहा था जैसे 4 महीने से जो कुछ घुटन अन्दर जम गई थी वो बाहर निकल गई हो, अब अपनेआप को काफी हलका महसूस कर रही हूँ। बहुत बहुत धन्यवाद।


शैलेश भारतवासी ने इसे अपनी आवाज़ भी दी। वाराणसी की शीला सिंह कहती हैं कि पिता पर इतनी बढ़िया कविता उन्होंने आज तक नहीं पढ़ी।

मनीष वंदेमातरम् ने अपनी एक क्षणिका में पिता को खेत में खड़ी फसल कहा। तुषार जोशी ने 'ओ बाबा कितने, प्यारे हो तुम' में अपनी सरल लेखनी से पिता पर कलम चलाई तो मोहिन्दर कुमार ने अपनी कविता 'बाबुल बिटको' में विवाह के बाद विदा होती बेटी के प्रति पिता की भावनाओं को चित्रित किया।

कवि श्रीकांत मिश्र कांत ने पिता को को सम्बोधित करते हुए कहा कि 'ओ पिता! लगा है एक युग मुझे, पहचानने में तुम्हें'। हाल ही में विपुल शुक्ला ने भी बाबा (पिता) पर लेखनी चलाई।
'पहली कविता' पर आधारित विशेष काव्य-पल्लवन के दूसरे भाग में विजयशंकर चतुर्वेदी की प्रथम कविता 'बीड़ी सुलगाते पिता' प्रकाशित हुई, जिसे लोगों ने खूब सराहा। इतना कि कइयों ने उसे उनकी पहली कविता मानने से इंकार कर दिया। कविता की अंतिम पंक्तियाँ देखें-

कठिन दिनों में
जब-जब जरूरत होगी हमें आग की
हम खोज निकालेंगे बीड़ी सुलगाते पिता.


कल कवयित्री शोभा महेन्द्रू ने पुरूष के एक महान चेहरे के रूप में 'एक पिता' को बताया, वहीं आज यूनिकवि निखिल आनंद गिरि ने अपने 'पापा के नाम' कवितानुमा एक खत लिखा है और पिता के प्रति अपनी सारी संवेदनाएँ व्यक्त करने की कोशिश की है।

खैर यह तो हुई हमारे संग्रहालय की बात। 'पिता दिवस' के विशेष अवसर पर हिन्द-युग्म को लगातार कविताएँ प्राप्त हो रही हैं।। हम सभी की कविताएँ एक-एक करके प्रकाशित कर रहे हैं। हिन्द-युग्म के मुखपृष्ठ का हैडर को पिता के वात्सल्य का रूप दिया है डिजाइनर राहुल पाठक ने तो 'मेरेकविमित्र' के हैडर को सजाया है प्रशेन क्यावल की कम्पनी वेब एंड मीडिया ने। हिन्द-युग्म के सभी पाठकों को पितृ दिवस की बधाइयाँ। आपके पास भी पिता के लिए कुछ शब्द हों तो hindyugm@gmail.com पर भेजें।
अपने विचार ज़रूर लिखें


धीर गंभीर
गृहस्थ फकीर
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पद्कमल काशी
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कसरती काया
बरगदी छाया
तार्किक दार्शनिक
आस्तिक वैज्ञानिक
एक उम्र गुजारी
पिता जैसा
बनने की कोशिश मे |
फिर एक दिन
एहसास हुआ
मैं तो
अपने पिता सा
न बन पाया
मेरा बेटा
मुझ सा बन गया।
हम जो नहीं है
वह ही सच है
हम जो है
वह भ्रम है।
हर बेटा अपनी उम्र के
पचासवें बरस में
यह कविता लिखता है
यही जीवन क्रम है |


--विनय के जोशी


काश!

काश!
बेटा समझ पाता,
उस वात्सल्यमयी डांट को,
माली की तरह की जाने वाली कांट-छांट को.

काश!
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श्यामसखा 'श्याम'
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बेटा समझ पाता,
बाप की रोक-टोक को,
अपनी लुका-छिपी और नोंक-झोंक को.

काश!
बेटा समझ पाता,
प्रताड़ना के नेह को,
नाराज़ होकर नहीं तजता गेह को.

काश!
बेटा समझ पाता,
अंशी किस तरह सींच रहा अंश को,
भूलकर भी न करता, भावनाओं के ध्वंस को.

काश!
बेटा समझ पाता,
उन गालियों के अम्बार को,
दामन में भर लेता स्नेह के भंडार को.

काश!
बेटा समझ पाता,
कांटे चुनती छांह को,
कभी नहीं, जाता झटक कर बांह को.

काश!
बेटा समझ पाता,
बाप के उर के ताप को,
कोई बेटा नहीं तजता अपने ही बाप को.

--संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी


पिता का रूप

जन्म देती है माँ चलना सिखाते हैं पिता
हर कदम पे बच्चों के रहनुमा होते हैं पिता
फूलों से लहराते ये मासूम बच्चे
प्यारी सी इस बगिया के बागबान होते हैं पिता
कष्ट पे हमारे दुखी होते है बहुत
अश्क आंखों से बहे न बहे पर दिल में रोते हैं पिता
धुप गम की हम तक न पहुँचे कभी
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साया बन सामने खड़े होते हैं पिता
पूरी करने को सारी इच्छाएँ हमारी
काम के बाद भी काम करते हैं पिता
गलतियों पे हमारी डाँटते हैं हमें
डाँट के ख़ुद भी दुखी होते हैं पिता
रो के जब सो जाते हैं हम
पास बैठ देर तक निहारते हैं पिता
जीवन में आती हैं जब दो राहें कभी
सही राह का इशारा कर देते हैं पिता
लड़खड़ाये जो कभी कदम हमारे
आपनी बांहों मे थाम लेते हैं पिता
देने को अच्छा मुस्तक्बिल हमें
पूँजी जीवन भर की हम पे लुटा देते हैं पिता
खुश रहें बेटियाँ दुनिया में अपनी
कर्ज ले के भी बेटी का घर बसाते हैं पिता
निभाने को रीत इस दुनिया की
भरे दिल से बेटी को विदा कर देते हैं पिता
उन्हें छोड़ जब दूर बस जाते हैं हम
चीजें देख हमारी ख़ुद को बहलाते हैं पिता
यहाँ आके ये भी न सोचते हैं हम
के जब न दिया तो क्या खाते हैं पिता
पहले समझ न पाए उन के प्यार को हम
आज हुआ अहसास जब ख़ुद बने हैं पिता
माँ कहती रही पर माना नहीं हमने
बहती रहीं अँखियाँ जब चले गए पिता

--रचना श्रीवास्तव


पापा मेरे पापा

करती हूँ आपसे प्यार बहुत
पर कह नहीं मैं पाती हूँ
कहूँ भी तो कैसे कहूँ ?
कर नहीं पाई हूँ अभी तक आपके
उन सपनों को पूरा
जो देखे थे आपने मेरे लिए
जानती हूँ की
मन ही मन दुखी हैं
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श्यामसखा 'श्याम'
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आप मेरे लिए
देखा है मैंने उस दुःख ,उस दर्द को
टूट गए हैं मेरी विफलताओं से आप
फिर भी मुस्कुराते हैं
की कहीं मैं भी न टूट जाऊं
पापा मेरा वायदा है आपसे आज
नहीं टूटने दूंगी आपकी उम्मीदों को, आशाओं को
क्यूंकि देखा है मैंने हमेशा
आपकी मेहनत, आपकी हिम्मत को
न दिन का चैन, न रात ही आराम किया
आठों पहर बस हमारे लिए ही काम किया .
देखा है मैंने उस चमक को
पकी आंखो में आते हुए
जब भी मैं पास होती थी और
उन आँसुओ को भी
जब मैं बीमार पड़ती थी
मुझे याद है हर लम्हा, हर वो पल
जब आप मेरे साथ खड़े थे .
कभी डांटना, कभी मनाना,
कभी हँसाना, कभी रुलाना
और फिर अपने हाथों से खाना खिलाना
हाँ पापा सब याद है मुझे
पूरी कोशिश करुँगी, करती रहूँगी
आपके सपनों को पूरा करने की
जो देखे थे आपने मेरे लिए
पर अगर पास न हो पाऊं
तो दुखी न होना
भले ही मैं कुछ बन न पाऊं
पर जिंदगी का जो पाठ आपने मुझे पढ़ाया है
नहीं भूलूंगी उसे कभी
और उसी के बल
एक अच्छा इंसान बन जरूर दिखाउंगी
न छोड़ूगी साथ आपका जीवन भर
लाठी की जगह आपका सहारा
मैं बन जाऊँगी
न होने दूँगी आपका बुढ़ापा नीरस
फिर से आपकी वही छोटी सी
गुड़िया मैं बन जाऊँगी।
और एक अच्छी बेटी होने के
सारे फ़र्ज़ निभाऊँगी

--कमला भंडारी


स्पर्श

दुनिया में कदम रखा
तब अजनबी हाथों में खुद को पाकर
बहुत रोया दिल
आपका हल्का सा स्पर्श गालों पर
मुस्कान छाई थी झूले में
मुझे याद है
आप ही थे न बाबा जिन्होंने
माँ से भी पहले
गोद में उठाया था
सहलाया था |

रात के सपने कभी
डर बन आते आँखों में
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आपके स्पर्श की एक थपकी
माथे पर और
नींद भी खुद चलकर आती
अलसाई सी सोने के लिए
हमारे साथ |

ये कदम भी चलना सीखे
आपकी उंगली पकड़कर
लड़खड़ाए ज़रूर, मगर गिरे नहीं
रुके नई, चलते रहे हरदम
कब आपने उंगली छोड़ी न मालूम
और हम बिना सहारे खड़े है आज
आपसे बहोत दूर
केवल उस स्पर्श के बल पर |

चाहे हम जितने बड़े हो जाए
आपके ममता का स्पर्श
हमेशा महसूस करेंगे
भावनाओ में
अब भी ज़रूरत है
उस स्पर्श के छाँव की
और जीवन भर रहेगी…|

--महक


नहीं भूलता हूँ मैं
तुम्हारा वो बचपन में डाँटना
तुम चाहते थे
कि मैं बोलूँ सच हमेशा
वो उँगली पकड़कर
जो चल देता था मैं साथ तुम्हारे
कभी किराने का सामान
तो कभी सब्ज़ी लाने
थक जाता था
तो उठा लेते थे गोद में,
लोग देखा करते थे मुझे
जब घूम-घूम कर
तब तेल बाती से
उतारा करते थे 'नज़र' मेरी।

याद है अभी भी
वो लगाना 'ओडोमॉस'
हाथ पैरों पर
ताकि न काँटे कोई मच्छर,
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विनय के॰ जोशी
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नहीं पता चलने दिया मुझे कभी
कि स्कूल की फीस के लिये
आते हैं पैसे कहाँ से
जबकि मुझे पता था कि
नहीं मिली है तंख्वाह कई महीनों से
चोट की वजह से
नहीं जा पाये थे तुम दफ्तर!!

नहीं करने देते हो
साफ-सफाई कभी घर की,
डर लगता है तुम्हें
मेरी धूल की 'एलर्जी' से,
आज भी मुझे देते हो
वही बचपन वाला प्यार,
लाड़-दुलार
क्योंकि मैं जानता हूँ
कि मैं रहूँगा
उम्र मे उतना ही छोटा,
हर ज़रूरत पूरी हुई है
अब तक मेरी
'जरूरत' बनने से पहले ही!!

आज भी लगे रहते हो
उन्हीं अखबारों की 'हेडलाइंस' में
और मेहनत करते हो वैसी ही
जैसे करते थे २५ बरस पहले
मेरे पैदा होने के समय,
मैं चाहता हूँ
कि गिनता रहूँ तुम्हारे साथ
आसमान में
तारों के अनगिनत समूहों को,
पहनता रहूँ तुम्हारे लिये
सिलवाई शर्टों को,
करता रहूँ वो बातें
जिन्होंने दिया है दुनिया को
आज का 'तपन',
खो जाना चाहता हूँ
फिर उन्हीं पंचतंत्र की
अनगिनत कहानियों में
जो सुनाया करते थे मुझे सुलाने के लिये,
बनना चाहता हूँ सहारा तुम्हारा
हमेशा के लिये,
चलना चाहता हूँ तुम्हारे साथ-साथ
जैसे चला करता था कभी
उँगली पकड़कर,
बोलो न(?)
पूरी करोगे ये इच्छायें मेरी ?

--तपन शर्मा


मेरे पापा मेरी इच्छा

मेला गया मैं दोस्त के साथ,
पिता भी थे उसके साथ,
पापा के संग मस्ती में था वो,
मस्ती में उसकी,
धमाल मचा रहा था मैं भी,
आगे आइसक्रीम का ठेला था,
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जिद्दी बेटा पापा का,
आइसक्रीम की माँग कर रहा था,
एक मिली उसको और दूसरी मुझको,
मीठी थी आइसक्रीम, पर मुझे स्वादिष्ट न लगी,
झूले का घेरा पास ही था,
झूलने का मजा अब उसे लेना था,
पापा ने उसके,
दोनों को बिठाया झूले पर,
वो चीखे ही जा रहा था,
चीख नहीं निकली मेरी,
बस, उसी को देखे जा रहा था,
खिलौने की दुकान थी नजदीक,
आई उसे खिलौनो की अब तरकीब,
पापा! ट दिलाओ, पापा! चाँद दिलाओ।
चीख-चीखकर माँगे जा रहा था,
पापा ने उसके,
दिलाये उसे खिलौने खूब सारे,
पापा! कितने अच्छे, कितने प्यारे,
अब मुझसे पूछा उन्होंने,
कौन सा लोगे बेटा!
खिलौने बहुत सुन्दर हैं प्यारे-प्यारे,
देखा मैंने दुकान के अन्दर,
कहीं चाँद, कहीं तारे और कई सारे बन्दर,
देव, ईश्वर के खिलौने थे अति सुन्दर,
तभी मेरी नज़र गई,
कोने में पड़े, धूल से बिगड़े,
जोकर पर, जो आधा था ढक्कन के अन्दर,
मेरे पापा की तरह,
वो हँस रहा था,
और मुझे भी हँसा रहा था,
मैंने कहा-अंकल!
मुझे वो चाहिए जॉकर,
जो मेरे पापा की भाँति,
मुझे प्यार दे रहा था।

--गोविन्द शर्मा


प्यारे पापा

प्यारे पापा सच्चे पापा,
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बच्चों के संग बच्चे पापा|
करते हैं पूरी हर इच्छा,
मेरे सबसे अच्छे पापा|

पापा ने ही तो सिखलाया,
हर मुश्किल में बन कर साया |
जीवन जीना क्या होता है,
जब दुनिया में कोई आया |

उंगली को पकड़ कर सिखलाता,
जब पहला क़दम भी नहीं आता |
नन्हे प्यारे बच्चे के लिए ,
पापा ही सहारा बन जाता |

जीवन के सुख-दुख को सह कर,
पापा की छाया में रह कर |
बच्चे कब हो जाते हैं बड़े,
यह भेद नहीं कोई कह पाया |

दिन रात जो पापा करते हैं,
बच्चे के लिए जीते मरते हैं |
बस बच्चों की ख़ुशियों के लिए,
अपने सुखो को हर्ते हैं |

पापा हर फ़र्ज़ निभाते हैं,
जीवन भर क़र्ज़ चुकाते हैं |
बच्चे की एक ख़ुशी के लिए,
अपने सुख भूल ही जाते हैं |

फिर क्यों ऐसे पापा के लिए,
बच्चे कुछ कर ही नहीं पाते |
ऐसे सच्चे पापा को क्यों,
पापा कहने में भी सकुचाते |

पापा का आशीष बनाता है,
बच्चे का जीवन सुखदाई ,
पर बच्चे भूल ही जाते हैं ,
यह कैसी आँधी है आई |

जिससे सब कुछ पाया है,
जिसने सब कुछ सिखलाया है |
कोटि नम्न ऐसे पापा को,
जो हर पल साथ निभाया है |

प्यारे पापा के प्यार भरे'
सीने से जो लग जाते हैं |
सच्च कहती हूँ विश्वास करो,
जीवन में सदा सुख पाते हैं |

--सीमा सचदेव


पिता जी

आपकी अंगुलियों के सहारे
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हमने चलना शुरू किए.
कदम-कदम पर आपने ऊर्जा दी
तभी आज हमने बड़े हुए।

आज हमने जो कुछ पाया
बस आपकी दुआ है,
दीपक जलाये आपने हृदय में
तभी जिंदगी आज रौशन हुई है।

पानी या मिट्टी भला क्या जाने
किस आकार में उसे ढलना है,
धागा या फूल भला क्या जाने
किस गले का हार उस बनना है।

एक कुशल कुंभकार या बागबां सा
हमको गर्विला रूप आपने दिये है,
धूप में छाया, बारिश में छतरी,
जाड़े में कंबल की जगह आपने लिये हैं।

जब कभी हाथ जोड़ा हूँ कुदरत के सामने
माँगता हूँ भीख मैं आपकी सलामती के लिए,
नहीं चाहिये धन-दौलत या कुछ और
करता हूँ प्रार्थना उनसे, सिर्फ आपकी खुशी के लिए।

- सुनील कुमार सोनू


एक पिता की वसीयत

माना कि मौत पर वश नहीं अपना
पर प्रश्न है कि क्या जिंदगी सचमुच अपनी है ?
हर नवजात के अस्फुट स्वर
कहते हैं कि ईश्वर इंसान से निराश नहीं है
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पंखुड़ी कुमारी
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हमें जूझना है जिंदगी से और
बनाना है जिदगी को जिंदगी
इसलिये मेरे बच्चों
अपनी वसीयत में
देकर तुम्हें चल अचल संपत्ति
मैं डालना नहीं चाहता
तुम्हारी जिंदगी में बेड़ियाँ
तुम्हें देता हूँ अपना नाम
ले उड़ो इसे स्वच्छंद
खुले आकाश में जितना ऊपर उड़ सको
सूरज की सारी धूप
चाँद की सारी चाँदनी
हरे जंगल की शीतल हवा
और झरनों का निर्मल पानी
सब कुछ तुम्हारा है
इसकी रक्षा करना
इसे प्रकृति ने दिया है मुझे
और हाँ किताबों में बंद
ज्ञान का असीमित भंडार
मेरे पिता ने दिया था मुझे
जिसे हमारे पुरखो ने संजोया है
अपने अनुभवों से
वह सब भी सौंपता हूँ तुम्हें
बाँटना इसे जितना बाँट सको
और सौंप जाना कुछ और बढ़ाकर
अपने बच्चों को
हाँ एक दंश है मेरी पीढ़ी का
जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता
वह है सांप्रदायिकता का विष
जिसका अंत करना चाहता हूँ मैं
अपने सामने अपने ही जीवन में।

--विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'


प्रिय पिता ,
आदरणीय तो आप हैं ही
परन्तु इस आदर के साथ
मेरे मन में आप के प्रति खौफ नहीं बैठा
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रचना श्रीवास्तव
कमला भंडारी
महक
तपन शर्मा
गोविन्द शर्मा
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सुनील कुमार सोनू
विवेक रंजन श्रीवास्तव
कमलप्रीत सिंह
देवेन्द्र पाण्डेय
श्यामसखा 'श्याम'
आशीष जैन
डॉ॰ अनिल चड्डा
डॉ॰ श्री कृष्ण मित्तल
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
डा. महेंद्रभटनागर
अनिरुद्ध सिंह चौहान
पूजा अनिल
मंजू महिमा भटनागर
मीना जैन
बेला मित्तल
धर्म प्रकाश जैन
पंखुड़ी कुमारी
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मैं आपको जानता हूँ तबसे
जबसे मैंने अपने आस-पास को
पहचानना शुरू किया था
और बोलना प्रारम्भ करते ही
तुतलाते से शब्दों में
पा ...पा का संबोधन दिया था
और बड़ा हुआ धीरे-धीरे
आप के आदर्श स्वरूप तले
समय समय पर आप द्वारा
दी गयी नसीहतों को
मैं ने यथासंभव
हकीकत में बदलने का प्रयास किया
परिश्रम और संजीदगी
का अनुप्रेरण
आज मेरे जीवन का
अभिन्न अंग बन गया है
आप के असीम प्यार के साथ
फटकार से सहम ज़रूर जाता
लेकिन प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कह्ता
मैं समझ सकता हूँ
की आप के लिए मैं
आज भी वही नन्हा सा
अबोध बालक हूँ
जिसे ज़िंदगी की सच्चाइयों
और हकीकतों के प्रति
आगाह किया जाना ज़रूरी है
आप की अपनी ज़िंदगी के अनुभव के अनुसार
आप मेरे परम मित्रों में से हैं
इस बात का मुझे यदा-कदा गर्व हो आता है
सभी सुख-दुःख हँसी और खुशी
बांटे हैं आप ने मुझ से
परन्तु मेरे अलावा भी तो
आप पर दायित्वों का बोझ है
आप के सारे प्यार का भाजन बन
आप पर एकाधिकार तो नहीं जता सकता न -
मेरे हिस्से से कहीं ज़्यादा प्यार
और खुशियाँ -मुझे दीं है आपने
एक परम हितैषी के रूप में
फिर नाराज़ होने का हक भी तो है आपको
परन्तु क्रोध का ज्वार उतर जाने पर
आपने पुनः अपने आपको
सहेजा और स्वीकारा है
ऐसा करने का साहस तो बहुत बार
अनन्य मित्र भी नहीं करते
आप ने मेरे आंसुओं-मेरी निराशा को
बड़े क़रीब से देखा और समझा है
और इसके निवारण के उपाय
अपनी पूरी संवेदनशीलता के साथ
सभी व्यहवारिक रूपों में सुझाये हैं
आप की मेहनत भरी सींच से
आज इस पेड़ पर फल आए हैं
जो कभी आप तक पहुँच पाते हैं
आपके शुभाशीषों की छाया में
मैं निरंतर
प्रगति की राह पर अग्रसर होता
अपने कर्तव्यों से कभी न डिग जाऊं
आशीर्वाद दें।।

--कमलप्रीत सिंह


पिता

चिड़ियाँ चहचहाती हैं
फूल हँसते हैं
सूरज निकलता है
बच्चे जगते हैं
बच्चों के खेल-खिलौने होते हैं
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गोविन्द शर्मा
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सुनील कुमार सोनू
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कमलप्रीत सिंह
देवेन्द्र पाण्डेय
श्यामसखा 'श्याम'
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अनिरुद्ध सिंह चौहान
पूजा अनिल
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मुट्ठी में दिन
आंखों में कई सपने होते हैं
पिता जब साथ होते हैं।

पिता जब नहीं होते
चिड़ियाँ चीखती हैं
फूल चिढ़ाते हैं
खेल-खिलौने कुछ नहीं रहते
सपने धूप में झुलस जाते हैं
बच्चे
मुँह-अंधेरे काम पर निकल जाते हैं
सूरज पीठ-पीठ ढोते
शाम ढले
थक कर सो जाते हैं।

पिता जब होते हैं
तितलियाँ
उंगलियों में ठिठक जाती हैं
मेंढक
हाथों में ठहर जाते हैं
मछलियाँ
पैरों तले गुदगुदाती हैं
भौंरे
कानों में सरगोशी से
गुनगुनाते हैं
इस उम्र के अनोखे जोश होते हैं
हाथ डैने
पैर खरगोश होते हैं
पिता जब साथ होते हैं।

पिता जब नहीं रहते
जीवन के सब रंग तेजी से बदल जाते हैं
तितलियाँ, मेंढक, मछलियाँ, भौंरे
सब होते हैं
लेकिन इस मोड़ पर
बचपने कहीं खो जाते हैं
जिंदगी मुट्ठी से रेत की तरह
फिसल जाती है
पिता जब नहीं रहते
उनकी बहुत याद आती है।

पिता के होने और न होने में
एक फर्क यह भी होता है
कि पिता जब साथ होते हैं
समझ में नहीं आते
जब नहीं होते
महान होते हैं।

--देवेन्द्र पाण्डेय


पिता

पिता
जब तक रहे
मैं
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तपन शर्मा
गोविन्द शर्मा
सीमा सचदेव
सुनील कुमार सोनू
विवेक रंजन श्रीवास्तव
कमलप्रीत सिंह
देवेन्द्र पाण्डेय
श्यामसखा 'श्याम'
आशीष जैन
डॉ॰ अनिल चड्डा
डॉ॰ श्री कृष्ण मित्तल
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
डा. महेंद्रभटनागर
अनिरुद्ध सिंह चौहान
पूजा अनिल
मंजू महिमा भटनागर
मीना जैन
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उनसे डरता रहा
क्यों ?
ठीक से कहना
मुमकिन नहीं है
शायद
उसका कारण
जाने-अनजाने में
माँ, रही थी
कहती रही माँ
मेरे पूरे बचपन
व किशोरावस्था में
‘आने दो तुम्हारे पिता को घर
फिर देखना’
हालांकि
याद नहीं कि
माँ ने उन्हें कभी कहा भी या नहीं
मगर
माँ का यह कहना
ही काफी था
और मैं
पिता से डरता रहा
सायास उनके सामने आने से
जितना बच सकता था
बचता रहा

अब
जब पिता, नहीं रहे
तो
जाना मैंने
कि उनका वह
अनुशासन ही
तो है, मेरी सफलता का
असली राज़
और
उनकी बरगदी छाया ने
कब
होने दिया
असफलता की
धूप का अहसास

अब
वक्त बदल गया है
बेटा, मेरा इकलौता
बेटा
न तो मुझसे डरता है
न ही
मुझे मानता है
वट वृक्ष ही मुझे
उसका
संसार तो हैं
उसके हम उम्र दोस्त
पर मैं
अबकी बार
नहीं ठगा जाऊंगा

अब मैं
बन रहा हूं फिर से
किशोर
और सीख रहा हूं
नेट-सर्फिंग
अपने बेटे से
हालांकि
खीज उठता है
बेटा सीखने की मेरी धीमी गति से
मैं
सीख रहा हूं
अपने बेटे-गुरु से
ब्रेक डांस के स्टेप्स
ठीक वैसे ही
जैसे उसने
सीखा था
मेरी उंगली पकड़ कर चलना
बहुत मज़ा आ रहा है
मुझे
बेटे का बेटा बनकर
धीरे-धीरे
मिट रहा है
जेनरेशन -गैप

--श्यामसखा‘श्याम’


पिता हैं वे मेरे

पिता हैं वे मेरे
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महक
तपन शर्मा
गोविन्द शर्मा
सीमा सचदेव
सुनील कुमार सोनू
विवेक रंजन श्रीवास्तव
कमलप्रीत सिंह
देवेन्द्र पाण्डेय
श्यामसखा 'श्याम'
आशीष जैन
डॉ॰ अनिल चड्डा
डॉ॰ श्री कृष्ण मित्तल
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
डा. महेंद्रभटनागर
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पूजा अनिल
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पर दोस्त से लगते हैं।
हर पल मेरे साथ साए से बने रहते हैं।
दर्द में, खुशी में या किसी डर में
मैं सदा उनकी उंगली थामे रहता हूं।

पिता हैं वे मेरे
पर प्यार जैसे लगते हैं।
जब कभी लगाते हैं गले से
लगता है मैं मैं ना रहा।
गले मिलकर भूल जाता हूं सारा जहां।

पिता हैं वे मेरे
लगते हैं गुरु जैसे।
जब-तब डांट देते हैं मुझे
लगता है सीख रहा हूं दुनिया की गणित
बताते हैं क्या भला है क्या बुरा।

पिता हैं वे मेरे
लगते हैं पुत्र से मेरे।
जब कभी जरूरत होती है
मैं ही देता हूं उन्हें सहारा।
सुनता भी हूं उनकी बात पूरी।

पिता हैं वे मेरे
लगता है हर रिश्ते से परे
बस वे पिता हैं मेरे।

--आशीष जैन


जलता ही रहूँगा!

ऐ मेरे पूज्य पिता
तुम्हें जब
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अंतिम समय
मैंने
चिता पर सोये देखा
तो इस एहसास ने
कि अब मैं
तुम्हें देख न पाऊँगा
जीवन भर
और
कोई शिकायत
नहीं कर पाऊँगा
ता-उम्र
मेरे अंतर्मन को
झकझोर दिया
और मैं अवश
तुम्हारे पार्थिव शरीर को
मिट्टी में लीन होते
देखता ही रहा
पर वो शिकायतें
जो तुम
अपने मन में ही
ले कर चल दिये
उन्हें
कैसे जान पाऊँगा मैं
पर फिर भी
एहसास तो हो ही रहा है
कि तुम तो
मेरी शिकायतें सुनते रहे
और दूर करते रहे
मेरी कमियों को
नज़र-अंदाज करके
मुझे सीने से लगा
मेरी ज़रूरतें पूरी करने में
ता-उम्र लगे रहे
मैं तो
तुम्हे बदले में
कुछ दे नहीं पाया
सिवा इस अंतिम अग्नि के
शायद इसी उम्मीद में
कि तुम मुझे
कभी तो माफ कर दोगे
पर इस अंतिम आग की गर्मी
जलाती ही रहेगी
मुझे ता-उम्र !
और मैं
जलता ही रहूँगा ता-उम्र !!

--डा0 अनिल चड्डा


बापू को नमन

पिता के रूप में राष्ट्रपिता का स्मरण करता हूँ
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आजादी की सांस ले रहा हूँ नमन करता हूँ

हे युग पुरुष अगर तुम आज होते
हम एक-दूसरे के कांधे पर सिर रख रो रहे होते

क्या आजादी का परचम इस लिए लहराया था
देश में काले अंग्रेजों का शासन क्या तुमने चाहा था?

तुझे आज अफ्रीका भी नमन करता है
वंशवाद, रंगभेद छोड़ वह लोकतंत्र में विचरता है

नमन करता हूँ तेरी गोलमेज सम्मेलन की तस्वीर को
नीलों से संग्राम और जेल की तदबीर को

चौरीचौरा पे तूने अहिंसा का सन्देश दिया
तेरी हिम्मत थी जो तूने आन्दोलन वापिस लिया

'हे राम!' के तेरे शब्द आज भी गूंजते कान में
कwन याद करता गोडसे स्वर्ग से क्षमादान दे

सत्य अहिंसा बकरी चरखा तेरे निशान थे
पूरे देश के भ्रमण ने दिए तुझे अनुमान थे

तिलक गोखले पटेल नहरू ने तुझे सरहाया था
अंग्रेजों को तेरे असहयोग आन्दोलन ने थर्राया था

प्यारे बापू - देख तेरे चेले तुझे भूल गए
खादी भूली चरखा भूला गाय बैल बछड़ा भूल गए

जाति नस्ल आतंक का बवंडर छा गया है
देश कर्जदार हो गया किसान आत्महत्या कर रहा है

हे बापू आज पितृदिवस पर हम तुम्हें नमन करते हैं
हे बापुओं के बापू तेरे आशीर्वाद की कामना रखते हैं।

-डॉ॰ श्री कृष्ण मित्तल


निछावर

बाप मताई नें न समझो,
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मूढ़े मोरें धर दयो ।
जनम मोरो कर्जा चुकावे भयो ।।

कर्जा लेकें पालोपोसो,
भारी कर्जा कर दयो ।
कर्जा में जब भारी गुथ गये,
गाने घर है धर दयो ।।
जनम मोरो---------------



भये सियाने होश समारी,
हमें रयो न गयो ।
हल्के-हल्के भाई-वहिन हाँ,
जुम्मे अपने कर लयो ।।
जनम मोरो------------------

पढाओ-लिखाओ ब्याव कराओ,
एक सें दो कर दयो।
नाम बडे और दर्शन छोटे,
घर में ऐसो कर दयो ।।
जनम मोरो------------------

शान शौकत रखवे,
मोये गाने दर दयो ।
मैं जब जब कछू बोलो चालो,
तार-तार कर दयो ।।
जनम मोरो------------------

भाई का है फ़र्ज बताकें,
मोसे ऐसो कह दयो ।।
कुल अपने की लाज बचावे,
मैं सहमों सो रह गयो ।।
जनम मोरो------------------

घर के मुखिया पे जो बीते,
धर सामने दयो ।
बाप-मतारी के करमन नें,
बँधुआ मोहाँ कर दयो ।।
जनम मोरो------------------

भये सियाने भाई-वहिन जब,
बोले मोहाँ का कर दयो ।
बाप मतारी ताने देवें,
वहुयें कहें सब धर लयो ।।
जनम मोरो------------------

ऐसो सब को कहवो,
मन में मोरें गढ गयो ।
जी के लानें मैनें अपनो
जीवन निछावर कर दयो ।।
जनम मोरो------------------

बच्चे मोसें पूछें दद्दा,
मोहाँ का कर दयो ।
जबाब उन्हें मैं दे न पाओ
दिल पै पथरा धर लयो ।।
जनम मोरो------------------

--देवेन्द्र कुमार मिश्रा


पिता के नाम कुछ चतुष्पद्यियाँ
[१]
तुम गये जगत से रवि-किरणों पर चढ़ कर
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देकर कभी न भरने वाला सूनापन,
पाने बहुमूल्य तुम्हारी निर्भर छाया
अब तरसेंगे हतप्राण विकल हो प्रतिक्षण!

[२]
तुम गये कि जग-जीवन से उल्लास गया
लगता जैसे जीवन में कुछ सार नहीं,
नश्वर सब, हर वस्तु पराई है जग की
अपना कहने को अपना घर-बार नहीं!

[३]
हे दुर्भाग्य! पिता को छीन लिया तुमने
पर, मेरा जीवन-विश्वास न छीनो तुम,
चारों ओर दिया भर शीतल गहरा तम
पर, अरुण अनागत की आस न छीनो तुम!

--डा. महेंद्रभटनागर


पिता

जनम दिया इक जननी मां ने ,पाला एक पिता ने है,
एक आध था एक पोन था ,कुल मिलाके मैं अपूर्ण था ,
कड़ी धूप मैं छाओं का एहसास पिता है ।
जीवन की दौड़ मैं एक ठाओं पिता है,
रोके कोई रास्ता तो, नया मार्ग पिता है,
रोके जीवन की साँस तो ताजी साँस पिता है।
भटकती हो सन्तान तो मार्ग दिखाता पिता है।
प्यास से तड़पती सन्तान की, शीतल बूँद पिता है।।

--अनिरुद्ध सिंह चौहान


लौट आओ तुम बाबा

लौट आओ तुम बाबा,
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अब कोई गुड़िया, बिट्टू नहीं जाते,
दौड़कर दरवाजा खोलने को ,
तरस गया है यह दरवाजा
अब वो खिलखिलाहट सुनने को....

तुम लौट आओ बाबा,
तुम्हारी कुर्सी अब भी खाली है,
माँ रख देती है सुबह का ताज़ा अखबार ,
और भूल जाती है कि
चूल्हे पे चढ़ा आई है चाय का पानी,
खौलता रहता है पानी,
बरसती रहती हैं आँखें....

तुम लौट आओ बाबा,
अब दूध वाला भी नहीं पूछता
कि बाबूजी कहाँ हैं और
दादी के मोटे चश्मे के भीतर
अब भी तुम्हारी तस्वीर टंगी रहती है,
पनीली नज़र को याद ही नहीं कुछ और...

तुम लौट आओ बाबा
बगिया के फूलों को अब भी लगता है कि
तुम आओगे, और अपने स्नेहिल स्पर्श से,
नन्ही कलियों को सहलाओगे....

मैं कह नहीं पाती इनसे कि
बाबा अब नहीं आयेंगे ....
तुम लौट आओ बाबा ,
बस एक बार ,
तुम लौट आओ बाबा

--पूजा अनिल


पिता क्या है?

पिता,
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जो गम पीता है,
खुशियाँ बाँटता है,
जो अपने लिये नहीं,
हमारे लिए जीता है,
वह है पिता.

बनने की कोशिश में,
कल्पवृक्ष अपने बच्चों का,
करता रहता अपने को स्वाहा,
पहना कर नए कपड़े,
खुद फटे कपड़ों में जो है जीता ,
वह है पिता.

निभाते हुए अपने फ़र्ज़,
नहीं करते अपने को बयाँ,
नीचे रह कर भी जो,
बच्चे को ऊपर उठाता है,
वह है पिता.

जीवन को जीने की कला,
मुसीबतों से करना सामना,
सिखाते हुए
अल्लादीन का चिराग जो बन जाता ,
वह है पिता.

एक ठोस आधार,
विचारों का सन्सार,
अनुशासन का जो अहसास है दिलाता,
वह है पिता.

--मंजू महिमा भटनागर


बाबूजी

खोजती तुमको यहाँ-वहाँ
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कहीं न दिखते बाबूजी !
चुपके से चल दिये शायद
माँ से मिलने बाबूजी !

बड़े से फोटो फ्रेम में
झाँकता चेहरा तुम्हारा बाबूजी !
आदर्श जो थे कभी तुम्हारे
बन गये वो मेरे बाबूजी !

मेरे घर न आये तुम
मन में साध रह गई बाबूजी !
तुम्हारा दुलार, तुम्हारा प्यार
याद बनकर रह गई बाबूजी !

आज की दुनिया कितनी बदली
पर बिटिया बिलकुल न बदली
तुमसे ही तो सीखा था
सादगी से रहना बाबूजी !

जब कभी कठिन समय आ जाता
घबराकर मन व्याकुल हो जाता
सच कहती हूँ उस क्षण मुझको
बहुत खलती है कमी तुम्हारी बाबूजी !

तुमने सिखाया लिखना-पढ़ना
बस पढ़ती-लिखती रहती हूँ
आरती के दीपक की लौ में
दिखती छवि तुम्हारी बाबूजी।

--मीना जैन


डीयरेस्ट पापा

'पापा वी लव'
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अंग्रेज़ी के ये तीन शब्द
कह जाते कथा अनंत
भावों को करते अभिव्यक्त !

'लव' में केवल प्यार नहीं
है आदर और आभार
जब भी सोचा इश्वर को
आप हो जाते साकार !

'पा' मूर्त रूप पावन का
निहित है कल्याण हमारा
'पा' पारसमणि जैसा
करते हैं उद्धार हमारा

पापा सबके होते हैं
पर आप जैसा कोई नहीं
सुख-दुःख में स्वयं व्यथी
आपसे बढ़कर कोई नहीं

चिंताओं से मुक्त हो जाते
सुनते जब आपकी बात
व्याधि स्वयं उपचार बन जाता
पाकर आपका सान्निध्य और साथ !

शब्दकोश में शब्द हैं कम
क्या बयां करूं हृदय के उदगार
न ही कोई रंग तूलिका जानू
जो चित्रित कर दे मन की बात !

प्रार्थना यही निश दिन करूं
जीवन में रहे सदा आपका साथ
चाह जीवन में कुछ कर सकूं
जो आपको दे खुशियाँ अपार

सदैव आपसे पाते हैं
दिया कभी न कोई सौगात
आज भी याचक बनकर
मंगाते आपका आशीर्वाद !

बस अर्ज यही ईश से
रखे आपको स्वस्थ सबल
आप जियें हजारों साल
और बने हमारे जीवन का संबल

--बेला मित्तल


आप नहीं हैं

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श्यामसखा 'श्याम'
आशीष जैन
डॉ॰ अनिल चड्डा
डॉ॰ श्री कृष्ण मित्तल
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
डा. महेंद्रभटनागर
अनिरुद्ध सिंह चौहान
पूजा अनिल
मंजू महिमा भटनागर
मीना जैन
बेला मित्तल
धर्म प्रकाश जैन
पंखुड़ी कुमारी
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यह सच है
अंकगणित की भाषा में
आप अकृत और शून्य हैं
किंतु आप एक अत्यधिक प्रभावशाली अंक हैं
और वह एक सशक्त प्रतिच्छाया की तरह
चल रहा है
सदैव मेरे साथ साथ
मैं आपको देखता हूँ
शुभ चन्दन की भांति
अपने शैशव की अनेक आयामों की स्मृतिओं में
मैं आपको अपने सामने खड़ा हुआ पाता हूँ
फलों से लदे दरख्त की तरह
मैं दौड़ता हूँ
भूमि से सागर की ओर
और अतिक्रूर घोरतम जंगलों से पर्वत श्रंखला की तरफ
और समूचे रास्तों पर
मैं आपको खड़े हुये पाता हूँ
हाथों में आशावादी रेखाचित्रों को लिये हुए
आप उस संयुक्त अंक के काल्पनिक भाग हैं
जिसको आप और मैं पूर्ण करते हैं
और जिससे न आपको या मुझको
अलग किया जा सकता
मैं जानता नहीं
इस अमूर्त्त की संरचना में
मै आपका कैसे वर्णन करूँ
यदि मैं एक असंतत वास्तविक अंक हूँ
आप मेरे अचेत विचारों के संसार के सुन्दर संयोजन में अनंत हैं।

--धर्म प्रकाश जैन


जी चाह रहा

बचपन के वो सुगंध अब तक
जिन्दगी को महकाते हैं
पापा आप हर कदम पे
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हर वक्त ही याद आते हैं

सौ रुपये ज्यादा मांगने पे
आपके सौ सवाल याद आते हैं
जब महीना रह जाता
और पैसे ख़त्म हो जाते हैं

कहीं जाने से पहले क्यों होती
थी इतनी सारी जांच-पड़ताल
समझ आया जब नजदीक से देखी
लोगों की नीयत और दुनिया के ढंग-चाल

पढ़ाई के वक्त टीवी बंद नहीं होता
तो शायद ये रस्ते खुले न होते
वक्त पे काम करने को डाँट न पड़ती
तो शायद हम वक्त से बहुत पीछे पड़े होते

पैसे को कभी पोस्ट नहीं किया
बहाने से शायद ख़ुद आते थे
होस्टल मे औरों के पैसे तो बहुत
पर हर महीने पापा नहीं आते थे

अब पैसे तो पहली को आ जाते
पर कोई साथ नहीं आता है
जाने इन्सान कुछ पाने की
इतनी बड़ी कीमत क्यों चुकाता है

अब तो सुबह और रात होती है
काम में शाम का पता ही नहीं चलता
पर वो शाम कभी यादों से नहीं जाती
जब आपके बहाने खाते थे अपनी पसंद का नाश्ता

अब सोने से पहले
कोई नहीं कहता कहानी सुनाने को
सुनाने भी लगती तो कोई
हर पंक्ति के बाद हामी नहीं भरता

गर्म दूध ठंढा होते-होते
आंख लग गई और सवेरा हो गया
अवचेतन मन को इंतज़ार था
आप माँ से हमे उठवाओगे शायद

अब हर मौसम हर फल मिलने लगे
पर वो मौसम का पहला फल न मिला
वक्त से करूँ मैं इसकी शिकायत या
अपनी उम्र से करूँ मैं इसका गिला

अक्सर ही खाने के समय अपनी वो
अधजली अधफुली रोटी याद आती है
जिसे आपने बड़े चाव से खाया था
जब सबने उसे भारत का नक्शा बताया था

सुबह फुलवारी में पानी डालने को जी चाह रहा
रात को आपकी उंगली बजाने को जी चाह रहा
आपके दोस्तों के लिए चाय बनने को जी चाह रहा
जो किया था बेमन से मन से करने को जी चाह रहा

आज फिर से अतीत में गोते लगाने को जी चाह रहा
चलती ट्रेन से भागती सड़क पे रुक जाने को जी चाह रहा

--पंखुड़ी कुमारी


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37 कविताप्रेमियों का कहना है :

mehek का कहना है कि -

har baar maa par hi bahut kuch likha,kavita ,muktak,kabhi sher bhi,magar hind yugm ke is sarahniya prayas se hamne bhi apne baba par kavita likhi.

har kavi ke apne pita ke liye sneh bhare bhav padhkar man bhavanao se vibhor ho gaya,har kavita apni hi kuch dastan kehti,bahut hi sundar kavitayein,sabhi ko bahut badhai,aur khas kar hind yugm ko ye kadam uthane ke liye.

रंजू भाटिया का कहना है कि -

सबने बहुत अच्छा लिखा है दिल को छू लेने वाली है हर रचना ..पिता से जुड़े हुए जज्बात है हर रचना में जो हर किसी के दिल के करीब हैं .. हिंद युग्म की साज सज्जा बहुत अच्छी लग रही है आज ..पिता के प्यार से भरी पूरी .बधाई

Sajeev का कहना है कि -

युग्म का कविता कोष कमल की दिशा में जा रहा है, नियंत्रक और युग्म परिवार इसके लिए बधाई के पात्र हैं, गौरव की कविता बहुत दिनों बाद पढी आज भी भर आई ऑंखें, कैसा जादू होता है शब्दों में...बाकि सब रचनाएँ भी भाव पूर्ण है, आज के दिन को सार्थक करती, "बीडी फूंकते पिता " कविता को भी संग्रह का हिस्सा होना चाहिए था

Alpana Verma का कहना है कि -

अति उत्तम! पिता से संबंधित कविताओं का अद्भुत संग्रह...शायद नेट पर ढूँढने से कहीं और नहीं मिलेगा...हिन्दयुग्म के नए नए क़दम सराहनीय हैं ! सभी कवियों और हिन्दुयुग्म की टीम को बहुत बहुत बधाई...सभी की कवितायें भाव पूरण हैं और बहुत अच्छी हैं...

मीनाक्षी का कहना है कि -

सबकी कविताएँ पिता के प्रेम रस में डूबी बहुत अच्छी लगी..... सबको बधाई और शुभकामनायें ...
हिंद युग्म को विशेष रूप से बधाई जो जानते हैं कि कवि के उर्वर मन से जीवन से जुड़े भिन्न भिन्न भाव कैसे बाहर लाने हैं... हिंद युग्म का हर रूप सुंदर और नए नए कदम उसे और निखारते जा रहे हैं....

KAMLABHANDARI का कहना है कि -

sabki kavitaaye bahut hi acchi hai dil ko chhuti hui .pita vishay par kavitaao ka anokha sangrahalay ban gaya hai hindyugm. sabko dhero badhaiya.

Nikhil का कहना है कि -

हिन्दयुग्म बाकी ब्लोग्स से बेहतर और अलग इसीलिए है हम पाठकों के मन तक पहुँचते हैं..पिता पर यह विशेषांक इसी का सबूत है...सभी रचनाएं व्यक्तिगत हैं, इसीलिए पठनीय भी हैं..
हिन्दी जिन्दाबाद....

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

अंक सफल रहा |
जितनी भी रचनाएं है बिल्कुल सच है |
कुछ बहुत बहुत अच्छे है -

१. दुनिया में कदम रखा
तब अजनबी हाथों में खुद को पाकर
बहुत रोया दिल
आपका हल्का सा स्पर्श गालों पर
मुस्कान छाई थी झूले में
मुझे याद है
आप ही थे न बाबा जिन्होंने
माँ से भी पहले
गोद में उठाया था
सहलाया था |


२. संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
पुरी कविता ही बेमिशाल है !

३. हर बेटा अपनी उम्र के
पचासवें बरस में
यह कविता लिखता है
यही जीवन क्रम है |

शेष सभी सुंदर है |

सभी को बधाई |

-- अवनीश तिवारी

Unknown का कहना है कि -

रचना जी,
बहुत सुंदर ढंग से आपने अपने विचारों को व्यक्त किया है पर अंत मे कही गई ये पंक्तियाँ वाकई मे कविता को सार्थक बना देती हैं.
पहले समझ न पाए उन के प्यार को हम आज हुआ अहसास जब ख़ुद
बने हैं पिता
माँ कहती रही पर माना नहीं हमने
बहती रहीं अँखियाँ जब चले गए पिता
----------शुभकामनाओं सहित
मैत्रेयी बनर्जी

Unknown का कहना है कि -

आदरणीय गोविन्द जी ,
सच कहते हुए शर्माउन्गी नही कि आपकी कविता को पढ़ते हुए मुझे अटपटा सा लग रहा था कुछ समझ नही आ रहा था परन्तु जब आखरी दो पंक्तियों को पढा तो भाव को समझते ही आँखें छलछला आई.सच मे अधिकतर पिता हमेशा बेटे की खुशी के लिए सबकुछ भूलकर जोकर बनकर ही रह जाते हैं.
भाव पूर्ण कविता है
शुभकामनाओं सहित
मैत्रेयी बनर्जी

सीमा सचदेव का कहना है कि -

हिंदयुग्म लेखकों पाठको और जन जन की भावनाओं को समझने मे अग्रणी रहा है ,इसी लिए पितृ दिवस से एक सप्ताह पहले ही पिता पर सुंदर भावुक कवितायेँ पढ़ने को मिली है | सच मे माँ पर तो हर कोई अपनी भावनाएं बहाता रहा है लेकिन पिता के प्रेम और उसके प्रति अपनी भावनाएं प्रकट करने का अवसर हिन्दयुग्म द्वारा दिया गया | मुझे याद है हिन्दयुग्म पर जब मैंने प्रवेश किया था तो मेरी पहली कविता नारी दिवस पर प्रकाशित हुई थी और फ़िर हिन्दयुग्म द्वारा नारी सप्ताह मनाने का निर्णय लिया गया और लेखकों और पाठको मे गजब का उत्साह देखने को मिला था | मैं हिन्दयुग्म से आग्रह करुँगी की पिता की महत्ता ,प्रेम और भावना को समझते हुए पितृ दिवस को भी पितृ सप्ताह के रूप मे मनाया जाए ताकि हिन्दयुग्म से जुड़े सभी लेखकों /पाठको को अपनी भावनाएं प्रकट कराने का सुअवसर मिल सके सभी को पितृ दिवस की बधाई |सधन्यवाद......सीमा सचदेव

anju का कहना है कि -

माँ की ममता और पापा का प्यार होता है
सबसे पहले मैं सभी को पितृ दिवस की बधाईयाँ देती हूँ
और हिंद युग्म कभी भी ऐसे पवित्र दिनों को नही भूलता और इसके सभी सहयोगियों का हमेशा हार्दिक धन्यवाद और नमन उनकी लेखनी को
बहुत खूब सभी कवितायेँ अच्छी लगी सबने अपनी श्रद्धा दिखाई बहुत खूब

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

सर्वप्रथम तो मैं हिन्द-युग्म को पिता दिवस पर इतनी सारी कविताएं प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ । आज पिता दिवस है या नहीं यह मैं नहीं जानता पर इतना जानता हूँ कि आज ही के दिन २८ वर्ष पहले ८जून -सन-१९८० को मेरे पिता का देहांत हुआ था। यह तारीख भी हिन्दयुग्म पर कविताएँ पढ़ते-पढ़ते अचानक याद आ गई। अब आप समझ सकते हैं कि कविता पढ़कर मैं कितना रोमांचित हुआ हुँगा। हिन्दी मास-तिथि के अनुसार वार्षिक तिथि भिन्न है।
सभी कवियों ने पिता पर श्रद्धा-सुमन चढ़ाए हैं---सभी की कविताएं भावुक कर देने वाली हैं। तारीफ पढ़कर मैने गौरव सोलंकी की कविता भी पढ़ी। वाकई कविता को माँ सरस्वती का विशेष आशीष प्राप्त है। बार-बार पढ़ने पर शक्ति मिलती है।---------कभी घूमने का मन करे तो बताना तम्हारे साथ पैदल चॉद तक चलने का मन करता है। -इन पंक्तियों को पढ़कर आंखें नम हो जाएं तो क्या आश्चर्य है। मैने भी पिता पर एक कविता लिखी है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है। मगर वह कविता कम्यूटर पर ही लिखी थी और मेरी पूरी कविता की फाइल उड़ गई है।-यदि मिली तो अवश्य भेजुंगा।------देवेन्द्र पाण्डेय।

Rama का कहना है कि -

हिन्द-युग्म का पिता दिवस पर यह अंक सचमुच सराहनीय है....एक साथ विविध रंगों से सजी सभी कविताएं बहुत सुन्दर हैं....सभी कवि भाईयों एवं कवयित्रियों को हार्दिक शुभकामनाएं.....


डा. रमा द्विवेदीsaid...


हिन्द युग्म का यह प्रयास निश्चित ही विशिष्ठ है....हिन्द युग्म दिन प्रति दिन इसी प्रकार सफलता के क्षितिज स्पर्श करता रहे ...यही हमारी हार्दिक अभिलाषा है...सभी को पुन: बधाई....

दूर दराज देशों में रह रहे सभीं पिताओं को हमारी शुभकामनाएं और मुबारकवाद....

Vivek Ranjan Shrivastava का कहना है कि -

पिता पर इतनी अच्छी रचनायें पढ़ी ,अच्छा लगा ."पिता की वसीयत" मेरी भी एक रचना है , प्रस्तुत है

एक पिता की वसीयत

माना कि मौत पर वश नही अपना
पर प्रश्न है कि क्या जिंदगी सचमुच अपनी है ?
हर नवजात के अस्फुट स्वर
कहते हैं कि ईश्वर इंसान से निराश नहीं है
हमें जूझना है जिंदगी से और
बनाना है जिदगी को जिंदगी
इसलिये मेरे बच्चों
अपनी वसीयत में
देकर तुम्हें चल अचल संपत्ति
मैं डालना नहीं चाहता
तुम्हारी जिंदगी में बेड़ियाँ
तुम्हें देता हूँ अपना नाम
ले उड़ो इसे स्वच्छंद
खुले आकाश में जितना ऊपर उड़ सको
सूरज की सारी धूप
चाँद की सारी चाँदनी
हरे जंगल की शीतल हवा
और झरनों का निर्मल पानी
सब कुछ तुम्हारा है
इसकी रक्षा करना
इसे प्रकृति ने दिया है मुझे
और हाँ किताबों में बंद
ज्ञान का असीमित भंडार
मेरे पिता ने दिया था मुझे
जिसे हमारे पुरखो ने संजोया है
अपने अनुभवों से
वह सब भी सौंपता हूँ तुम्हें
बाँटना इसे जितना बाँट सको
और सौंप जाना कुछ और बढ़ाकर
अपने बच्चों को
हाँ एक दंश है मेरी पीढ़ी का
जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता
वह है सांप्रदायिकता का विष
जिसका अंत करना चाहता हूँ मैं
अपने सामने अपने ही जीवन में .

Prem Chand Sahajwala का कहना है कि -

जहाँ एक तरफ़ महक की अपने पापा के प्रति भावना की अभिव्यक्ति अत्यन्त मार्मिक है :

(चाहे हम जितने बड़े हो जाए
आपके ममता का स्पर्श
हमेशा महसूस करेंगे
भावनाओ में
अब भी ज़रूरत है
उस स्पर्श के छाँव की
और जीवन भर रहेगी…|)

वहीं सीमाजी पिता के प्रति कर्तव्य भावना को सशक्त तरीके से अभिव्यक्त करती हैं.
(जिससे सब कुछ पाया है,
जिसने सब कुछ सिखलाया है |
कोटि नम्न ऐसे पापा को,
जो हर पल साथ निभाया )
दोनों को बधाई. अन्य कवितायें शीघ्र पढूंगा व अपने विचार लिखूंगा.

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

हिन्द युग्म का एक और सराहनी प्रयास...बधाई सभी रचनाकारों को।

***राजीव रंजन प्रसाद

kunvarsaheb का कहना है कि -

हर कवि ने अपने तरीके से पिता की महिमा को दर्शाया है, हर किसी की अपनी अपनी सोच है पिता के लिए, बस इतना ही कहना चाहूँगा की पिता की महिमा को जितना भी कोई कहे वह हमेशा कम ही होगा - आदित्य प्रताप सिंह

Pooja Anil का कहना है कि -

पिता को समर्पित सभी कविताएँ अच्छी लगी , सभी को बहुत बहुत बधाई

^^पूजा अनिल

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

पिता संकलन बहुत ही बहतरीन, सभी साथियों को पित्रप्रेम के लिये हार्दिक बधाई..
माँ की ममता वात्सल्य से ओतप्रोत होती है इसलिये बालक खुद को माँ के करीब ज्यादा पाता है क्यूकि वहाँ पर डांट फटकार की प्रायिकता कम होती है परंतु पिता भी उतना ही करीब होता है जितनी माँ फर्क यह है कि पिता का प्रेम माँ की तुलना में परिलक्षित कम होता है इसी कारण माँ पर कवितायें अधिकता में मिलती है..

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

मैंने पिछले जून अथवा जुलाई में गौरव जी की कविता पढी थी..बस तभी से मैं उनका प्रशंसक हूँ..
आज भी जब सारी कवितायें पढी तो उसको कैसे भूल सकता था...कोई विरला ही होगा जिसे ये कविता पढकर आँसू न निकलें..मैंने भी भावुकता में एक कविता लिख कर युग्म को भेज दी.. माँ और पिता दोनों का ही महत्त्व बराबर का ही है..हिन्दयुग्म के ऐसे प्रयास रिश्तों को याद करने और उन्हें और मजबूत बनाते हैं...

आप ऐसे प्रयास जारी र्खें

Anonymous का कहना है कि -

विनयजी,
मैंने अपनी आंखे बन कर अपने आप को ५० बरस का बेटा माना |
फ़िर इस कविता को पढ़ा | बहुत ही गहरी कविता दो तीन बार पढ़ा तब समझ मे आई |
बहुत बहुत बधाई |
हर्षवर्धन

Anonymous का कहना है कि -

पित्र दिवस पर इस प्रकार का विशेषांक निकालना निश्चय ही हिन्द-युग्म का मौलिक विचार रहा है, जिसने न केवल पाठ्कों को कवितायें दी हैं वरन कलमकारों की कलम को दिशा भी दी है. सीमाजी ने पित्र्त्व सप्ताह की सलाह देकर इस रचनात्मक कार्य को और भी विस्तार दिया है. हिन्द-युग्म और सीमाजी का बहुत-बहुत आभार.माता और पिता पर लिखी हुईं रचनाओं की भावनात्मक उच्चता पर टिप्प्णी करना तो सूरज को दीपक दिखाना होगा.

Anonymous का कहना है कि -

नई-पुरानी पीढी की पिता पर लिखी कविताएं पढ़ कर न केवल आनन्द की अनुभूति हो रही है अपितू मिलेजुले अहसासों के दर्शन कर भविष्य के प्रति आशा बंधती है।सभी भागीदारों[लेखकों-पाठकों]को बधाई श्याम’

Anonymous का कहना है कि -

Pita Saptah mein meree kavita ke prakashan ke liye dhanyavad.
Kya sheershak saath hee chhapne ke liye uska kavita saath hee likha jana avashyak hai? bhavishya mein bina sheershak prakashan se bachne ke liye jaanana chaahoonga.
Dhanyavad
Saadar
Kamalpreet Singh

Dr SK Mittal का कहना है कि -

हिंदयुग्म के संयोजकों को लेखकों, पाठको और जन जन की भावनाओं को लिपिबद्द कर मन के छिपे उदगारों को मंच प्रदान करने के लिए साधुवाद.
पितृ दिवस के संदर्भ में पिताश्री पर सुंदर भावुक कवितायेँ पढ़ने को मिल रही है | जैसे पितृपक्ष में हर रोज श्रधांजलि अर्पण हो रहा है. देशभ्रमण, आतंक, करुणा यानी हास्य, वीररस आदि विभिन्न आयामों पर कितने ही अछूते विषय हैं जिन पर हिंदी युग्म आने वाले समय में भावना अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान कर सकता है.
जिस प्यार लगन और सद्भावना से आदरणीय शैलेश जी और साथी लेकिन होम में आहुति दे रहे हैं वह अति सराहनीय है इनसे हुए वार्तालाप से मुझे विश्वास है की हिंदी का स्वर्णयुग पुनः: आने वाला है .

हिन्दयुग्म पर जब मैंने प्रवेश किया था तो मेरी पहली कविता जयपुर का नर संहार प्रकाशित हुई थी जो मेरे लिए एक नया अनुभव रहा. आज पुनः 'बापू को नमन' आप सबके सामने लाने के लिए हिन्दयुग्म को धन्यवाद . पितृदिवस पर बापू को याद कर पूरे राष्ट्र पिता नहीं बल्कि पूर्ण पितृ देवों को श्र्धांजलि देने का प्रयास किया है.
हिंदी युग्म क शस्क्त माध्यम से नए साथिओं से संवाद का अवसर प्राप्त हो रहा है . उनके सोच विचार से ओतप्रोत हो कर काव्य सरिता में तैरने का आनंद मिल रहा है.

सभी को पितृ दिवस कीबधाई|सधन्यवाद .....डॉ. श्रीकृष्ण मित्तल

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

हिन्द युग्म का युनी-प्रशि, युनी कवि प्रतियोगिता, पिता-सप्ताह व पहली कविता बेमिशाल प्रयास हैं. मेरा निवेदन है कि वैचारिक लेखन को और प्रखरता प्रदान करने के लिये आलेख/निबन्ध लेखन पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये

विजयशंकर चतुर्वेदी का कहना है कि -

इस अंक में मेरी कविता 'बीड़ी सुलगाते पिता' याद करने के लिए आपका और आपकी टीम का बहुत-बहुत धन्यवाद!

कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिन्हें बड़ा-छोटा करके देखना अक्षम्य है. माता-पिता के रिश्ते ऐसे ही होते हैं. उनके साथ हमारे अनुभव और उनके संघर्ष के रूप भिन्न व्यक्तियों के लिए अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन संसार में सबके माता-पिता प्रणम्य हैं. समझ लेना चाहिए कि बच्चों के लिए माता-पिता ईश्वर का साक्षात और व्यावहारिक रूप होते हैं, लेकिन वे उस ईश्वर से भिन्न होते हैं जिसका परिचय बाद में हमारा समाज कराता है. मेरी उसी कविता में एक पंक्ति है- 'हमारी दुनिया में सबसे ताकतवर थे पिता.'

शायद इसीलिए कहा जाता है कि किसी भी कविता को पकड़ने के लिए कविता से परे जाना पड़ता है.

जिन कवियों-कवयित्रियों ने आपके इस आयोजन में अपना-अपना योगदान दिया है; दे रहे हैं, उनको और उनके पूज्य माताओं-पिताओं को मेरा प्रणाम है! इन सबकी भावनाएं पवित्र और स्तुत्य हैं.

आप महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. लेकिन चयन को थोड़ा और कसें.

Anonymous का कहना है कि -

bahut achhvhhi site hai

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

पिता विषय पर थोक भाव में कविताएँ प्रकाशित हो गईं। टिप्पणीकार परेशान हैं कि अलग-अलग कविता पर कितनी लम्बी टिप्पणी लिखी जाय! किसी ने सोंचा --चलो ऐसा करते हैं ---सभी अच्छी हैं ---लिख देते हैं। किसी ने सोंचा------- अभी तो इस स्तंभ पर टिप्पणी की थी ---फिर तीन कविताएं और प्रकाशित हो गईं !!तो क्या करें ---? एक ही स्तंभ के लिए बार-बार क्या लिखें ? परिणाम यह हुआ कि जो कवि अपनी कविता पर पाठकों की राय जानने के लिए व्याकुल थे---निराश हुए ।
सभी की कविताएं अलग-अलग प्रकाशित होतीं तो कमोवेश सभी पर एकाध टिप्पणी अवश्य मिल जातीं।
यह मेरी व्यक्तिगत राय है।--वैसे कविता के स्तर के लिहाज से यह संकलन संग्रहणीय है।---देवेन्द्र पाण्डेय।

Anonymous का कहना है कि -

Good,excellent very very heart touching,a good presentation for showing tribute to a father.really amazing...we should remember it always while talking to our father,.....Keep It Up.

Ravi Bhadoria का कहना है कि -

i love u all... thank u so much ki itni sundar kavitaye likhi..

archana का कहना है कि -

Itni sunder kavitayen hriday ko chhoo gai..dhanyawad archana

Anonymous का कहना है कि -

हम सरकार अनुमोदित कर रहे हैं और प्रमाणित ऋण ऋणदाता हमारी कंपनी व्यक्तिगत से अपने विभाग से स्पष्ट करने के लिए 2% मौका ब्याज दर पर वित्तीय मदद के लिए बातचीत के जरिए देख रहे हैं जो इच्छुक व्यक्तियों या कंपनियों के लिए औद्योगिक ऋण को लेकर ऋण की पेशकश नहीं करता है।, शुरू या आप व्यापार में वृद्धि एक पाउंड (£) में दी गई हमारी कंपनी ऋण से ऋण, डॉलर ($) और यूरो के साथ। तो अब एक ऋण के लिए अधिक जानकारी के लिए हमसे संपर्क करना चाहिए रुचि रखते हैं, जो लोगों के लागू होते हैं। उधारकर्ताओं के डेटा की जानकारी भरने। Jenniferdawsonloanfirm20@gmail.com: के माध्यम से अब हमसे संपर्क करें
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हम तुम से जल्द सुनवाई के लिए तत्पर हैं के रूप में अपनी समझ के लिए धन्यवाद।

ई-मेल: jenniferdawsonloanfirm20@gmail.com

usha का कहना है कि -

मैं अभिभूत हुई।
मेरे सर पर बरगद सा फैला साया है
मेरे पिता जहाँ की हर धूप से मुझे बचाया है।
मेरे जीवन के पहले नायक रग रग में स्नेह भरे
पहले खेल,पहली शक्ति भक्ति पहली पहले झूले
पहली कहानी मेरे पिता पहला जादू पहली सवारी
पहले गुरू पिता मेरे माँ की डर की आजादी
हर पल मेरी खुशियों ढूंढी अपनी पीर छुपाई
खुद की भूखप्यास न देखी मेरे हाथ मिठाई
अब भी अपने कष्ट छुपाकर खैर पूछते मेरी
मेरी मामूली सी पीडा नींद चैन पर भारी
माँ सा हृदय,सखा,गुरू,स्नेह पुरित मन है
आपके श्रीचरण स्वर्ग सम शत्शत् मेरा नमनहै।

santubhau का कहना है कि -

पिताजी जब चले जाते है पता नही क्यु हमारी ऊमर दुगुनी हुई जैसा महसुस होता है । हम कीतने भी बडे हो जाए ऊनके लीये तो बच्चे ही होते है ।

santubhau का कहना है कि -

पिताजी जब चले जाते है पता नही क्यु हमारी ऊमर दुगुनी हुई जैसा महसुस होता है । हम कीतने भी बडे हो जाए ऊनके लीये तो बच्चे ही होते है ।

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