यूनिकवि गुलशन सुखलाल के एक मित्र विनय गूदारी का ईमेल मिला कि गुलशन सुखलाल पिछले १ हफ़्ते से छुट्टी पर हैं और एक साथ दो बड़ी खुशियों के सरताज़ बने हैं। पहली खुशी तो ये कि पिता हो गये हैं और दूसरी कि हिन्द-युग्म के यूनिकवि। विनय ने बताया कि गुलशन आने वाले सोमवारों को अपनी कविता भेजना चाहते हैं, मगर रिमाइंडर भेजने के बाद भी कल शाम तक उनकी कविता नहीं प्राप्त हुई। इसलिए दूसरे स्थान के कवि प्रेमचंद सहजवाला से हमने निवेदन किया। प्रेमचंद सहजवाला विश्व पुस्तक मेला में मिला एक हीरा हैं जो बहुत बढ़िया-बढ़िया ग़ज़लों से हमें नवाज़ रहे हैं।
हरेक राह नज़र आते राह्बर क्यों हैं
ज़मीं पे इतने गरीबों के मोतबर क्यों हैं
तुम्हारे शहर का हर बाग़ लहलहाता है
हमारे गांव के सूखे हुए शजर क्यों हैं
उड़ान तय हुई थी आसमाँ तलक लेकिन
यहाँ परिंदों के कटते हुए ये पर क्यों हैं
तुम्हीं से हम को खुदा बेपनाह मुहब्बत है
हमारी आहें भला फिर भी बे असर क्यों हैं
नहीं थे ख्वाब कभी दह्शतों के आँखों में
वतन के नक्शे पे उजड़े हुए नगर क्यों हैं
हुई है रात जवाँ पांव थरथराने लगे
ये लोग नाचते यूँ रात रात भर क्यों हैं
कोई चमकता सा मंज़र नज़र नहीं आता
ये मेरी ऑंखें हुई ऐसी कमनज़र क्यों हैं
-प्रेमचंद सहजवाला
(राहबर = मार्गदर्शक, मोतबर = विश्वसनीय, शजर = पेड़, तलक = तक, दहशत = आतंक, मंज़र = दृश्य, कमनज़र = कमज़ोर दृष्टि)
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
pehle to gulshan ji ko dohri badhai
sahajwala ji
तुम्हीं से हम को खुदा बेपनाह मुहब्बत है
हमारी आहें भला फिर भी बे असर क्यों हैं
नहीं थे ख्वाब कभी दह्शतों के आँखों में
वतन के नक्शे पे उजड़े हुए नगर क्यों हैं
हुई है रात जवाँ पांव थरथराने लगे
ये लोग नाचते यूँ रात रात भर क्यों हैं
aur ek khusurat gazal ke liye bahut badhai
तुम्हीं से हम को खुदा बेपनाह मुहब्बत है
हमारी आहें भला फिर भी बे असर क्यों हैं
नहीं थे ख्वाब कभी दह्शतों के आँखों में
वतन के नक्शे पे उजड़े हुए नगर क्यों हैं
बेहतरीन गज़ल..
***राजीव रंजन प्रसाद
गुलशन जी को उनके पिता बनने पर बहुत बहुत बधाई..
और सहजवाला जी की गजल बहुत भयी आपको भी बहुत बहुत बधाई..
यह कितना सुखद संयोग है की इधर हिन्दयुग्म ने पिता विशेषांक निकला और उधर गुलशन जी पिता बन गए. उन के गुलशन में एक सुंदर पुष्प खिल गया. मेरी ओर से हार्दिक बधाई. उम्मीद करता हूँ की शीघ्र ही उनकी ग़ज़लें/कवितायें पढने का सौभाग्य प्राप्त होगा. धन्यवाद.
बहुत ही खूसूरत ग़ज़ल है...मैं और क्या कहूँ....
"नहीं थे ख्वाब कभी दह्शतों के आँखों में
वतन के नक्शे पे उजड़े हुए नगर क्यों हैं"
निखिल
प्रेमचंदजी--आपकी यह गजल मुझे बहुत अच्छी लगी। या ये कहूँ कि आज तक आपकी हिन्द-युग्म में पढ़ी सभी गजलों से अच्छी लगी तो गलत न होगा। वैसे यह मेरी पंसद और मेरी समझ है औरों की राय इससे भिन्न हो सकती है।
----तुम्हारे शहर का हर बाग लहलहाता है
हमारे गॉव के सूखे हुए शजर क्यों हैं
उड़ान तय हुई थी आसमाँ तलक लेकिन
यहाँ परिंदों के ये उड़ते हुए पर क्यों हैं।
--------------वाह! इसे पढ़कर तो मजा आ गया।--देवेन्द्र पाण्डेय।
हरेक राह नज़र आते राह्बर क्यों हैं
ज़मीं पे इतने गरीबों के मोतबर क्यों हैं
प्रेम जी आप की कलम बेहतरीन गज़लें बिखेर रहीं हैं....और हिंद युग्म उन्हें सहेज रहा है ...
प्रेमचंद जी ,
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने, बधाई
तुम्हारे शहर का हर बाग़ लहलहाता है
हमारे गांव के सूखे हुए शजर क्यों हैं
^^पूजा अनिल
Very nice gajal, Radeef ka achha prayog kiya gaya hai, badhai.
Adbhut
नहीं थे ख्वाब कभी दह्शतों के आँखों में
वतन के नक्शे पे उजड़े हुए नगर क्यों हैं
बहुत ही भावपूर्ण
आप बहुत बढ़िया ग़ज़लकार हैं। हम आपको पाकर धन्य हैं। आप शे'रों में मुद्दे परोसते हैं, ये बहुत कम लोग कर पाते हैं।
तुम्हीं से हम को खुदा बेपनाह मुहब्बत है
हमारी आहें भला फिर भी बे असर क्यों हैं
वाह!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)