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लहू सभी का है जब एक तो ये मज़हब क्या


क्यों अपने शहर के माहौल से हिरासाँ हूँ
ख़ुद अपने साए से लोगो रहा पशेमाँ हूँ

कहीं पे कोई ठिकाना नहीं मिला मुझ को
सबब ये कह रहे हैं सब कि मैं मुसलमाँ हूँ

जवाब जिन के न दे पाये हैं मसीहा भी
उन्हीं सवालों से अक्सर रहा गुरेज़ाँ हूँ

शह्र में घूमना फिरना है मेरी फितरत पर
यूँ अपने आप में चलता हुआ सा ज़िन्दाँ हूँ

हरेक शख्स के मज़हब से यूँ तो उल्फत है
ये कह रहे हैं खिरदमंद बहुत नादाँ हूँ

धुआँ ये नफरतों का ता-फलक पहुँचता देख
मैं अपनी आंखों से किस कद्र तो परेशाँ हूँ

लहू सभी का है जब एक तो ये मज़हब क्या
इसेक बात पे मैं अज़ल से ही हैराँ हूँ

खलल में डाल दी जिस ने तेरी इबादत तक
मुझे लगा है मसीहा कि मैं वो शैताँ हूँ

(अर्थ: हिरासाँ = भयभीत, पशेमाँ = शर्मिंदा, गुरेज़ाँ = भागा हुआ, फितरत = स्वभाव, ज़िन्दाँ = जेल, खिरदमंद = अक्लमंद, ता-फलक = आसमान तक, लहू = रक्त, अज़ल = सृष्टि रचना काल, खलल = विघ्न, )

--प्रेमचंद सहजवाला

ये भी क्या जिन्दगी हुई साहिब


घर जला, रोशनी हुई साहिब
ये भी क्या जिन्दगी हुई साहिब

है न मुझको हुनर इबादत का
सर झुका, बन्दगी हुई साहिब

भूलकर खुदको जब चले हम, तब
दोस्ती आपसे हुई साहिब

तू नही और ही सही कहना
क्या भला आशिकी हुई साहिब

खुद से चलकर तो ये नहीं आई
दिल दुखा, शायरी हुई साहिब

जीतकर वो मजा नहीं आया
हारकर जो खुशी हुई साहिब

तुम पे मरकर दिखा दिया हमने
मौत की बानगी हुई साहिब

'श्याम' से दोस्ती हुई ऐसी
सब से ही दुश्मनी हुई साहिब

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन

--डॉ॰ श्याम सखा 'श्याम'

समझेगा कुरान की वो खामोशियाँ कैसे


Surendra Kumar Abhinnaयूनिकवि प्रतियोगिता के तीसरे स्थान पर हम सुरेन्द्र कुमार अभिन्न की कविता लेकर आये हैं। यमुना नगर (हरियाणा) में जन्मे अभिन्न अंग्रेजी भाषा और साहित्य में स्नातकोत्तर (एम.ए. व एम फिल्. ), यात्रा एवं पर्यटन प्रबंधन में स्नातकोत्तर (एम.टी.ए.) जैसी शिक्षाएँ ली हैं और आबकारी एवं कराधान अधिकारी के रूप में सेवारत हैं। सुरेन्द्र को अच्छा साहित्य (विधा चाहे कोई भी हो) पढना और उस पर चिंतन-मनन करना पसंद है।

पुरस्कृत कविता- अपने खिलाफ़

उजालों में पड़ी सच्चाई से मुंह मोड़ने वाले,
खोजेगा ख़ुद को अंधेरों के दरमियाँ कैसे

सुनाई न दी चीख जिसे मजलूम की,
समझेगा कुरान की वो खामोशियाँ कैसे

तोड़ेगा जब शाख से परिंदों के घोसले ,
बचायेगा मुसीबतों से अपना आशियाँ कैसे,

मैं ही गवाह हूँ अपने गुनाहों का चश्मदीद,
खोलूं खिलाफ अपने अपनी जुबान कैसे

पूछा न करो ख़त में के हम यहाँ कैसे,
समझ लो अपने शहर के हालत वहाँ कैसे



प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ५, ६, ६॰८, ७
औसत अंक- ५॰९६
स्थान- चौथा


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ७, ५॰९६ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰६५३
स्थान- तीसरा


पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'समर्पण' भेंट करेंगे।

रास्तों से गपगपाते चल दिये


ग़ज़ल- प्रेमचंद सहजवाला

रास्तों से गपगपाते चल दिये
बारहा ठोकर भी खाते चल दिये

हमसफ़र कोई मिला तो खुश हुए
राग उल्फत का सुनाते चल दिये

वक़्त जब बोला कि मंज़िल दूर है
बेवजह हम खिलखिलाते चल दिये

गर्मियों में छांव में बैठे कहीं
सर्द रुत में थरथराते चल दिये

हर हकीक़त से गले मिलते रहे
ख़्वाब से भी तो निभाते चल दिये

हाथ में परचम तमन्ना के लिए
ये कदम आगे बढ़ते चल दिये

---प्रेमचंद सहजवाला

मत कहो रोशनी की जरूरत है क्या


अरूण मित्तल अद्भुत हिन्द-युग्म में लम्बे समय से दिलचस्पी ले रहे हैं और हमारे आयोजनों में लगातार शिरकत कर रहे हैं। पिछले माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में भी इन्होंने भाग लिया था और इनकी गज़ल छठवें पायदान पर थी। आइए पढ़ते हैं-

पुरस्कृत कविता- ग़ज़ल

देखिये न ये उनकी शरारत है क्या
पूछते हैं वो मुझसे मुहब्बत है क्या

आ गया तुमको चलना अंधेरे में पर
मत कहो रोशनी की जरूरत है क्या

हमको सारे वफ़ा करने वाले मिले
इतनी उम्दा हमारी भी किस्मत है क्या

सर झुकाता है जिसको ये सारा जहाँ
उस खुदा से भली कोई सूरत है क्या

दे चुका हूँ मैं सब तुमको अपना सुनो
दुनिया वालो तुम्हें अब शिकायत है क्या

तुमने सच को हमेशा कहा चीखकर
तुमको ख़ुद से ही 'अद्भुत' अदावत है क्या



प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ५, ७॰४, ७॰२५
औसत अंक- ६॰४१२५
स्थान- छठवाँ


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ६, ५, ६॰४१२५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰६०३१२५
स्थान- छठवाँ


पुरस्कार- शशिकांत 'सदैव' की ओर से उनके शायरी-संग्रह दर्द की क़तरन की स्वहस्ताक्षरित प्रति।

हमारे गांव के सूखे हुए शजर क्यों हैं


यूनिकवि गुलशन सुखलाल के एक मित्र विनय गूदारी का ईमेल मिला कि गुलशन सुखलाल पिछले १ हफ़्ते से छुट्टी पर हैं और एक साथ दो बड़ी खुशियों के सरताज़ बने हैं। पहली खुशी तो ये कि पिता हो गये हैं और दूसरी कि हिन्द-युग्म के यूनिकवि। विनय ने बताया कि गुलशन आने वाले सोमवारों को अपनी कविता भेजना चाहते हैं, मगर रिमाइंडर भेजने के बाद भी कल शाम तक उनकी कविता नहीं प्राप्त हुई। इसलिए दूसरे स्थान के कवि प्रेमचंद सहजवाला से हमने निवेदन किया। प्रेमचंद सहजवाला विश्व पुस्तक मेला में मिला एक हीरा हैं जो बहुत बढ़िया-बढ़िया ग़ज़लों से हमें नवाज़ रहे हैं।

हरेक राह नज़र आते राह्बर क्यों हैं
ज़मीं पे इतने गरीबों के मोतबर क्यों हैं

तुम्हारे शहर का हर बाग़ लहलहाता है
हमारे गांव के सूखे हुए शजर क्यों हैं

उड़ान तय हुई थी आसमाँ तलक लेकिन
यहाँ परिंदों के कटते हुए ये पर क्यों हैं

तुम्हीं से हम को खुदा बेपनाह मुहब्बत है
हमारी आहें भला फिर भी बे असर क्यों हैं

नहीं थे ख्वाब कभी दह्शतों के आँखों में
वतन के नक्शे पे उजड़े हुए नगर क्यों हैं

हुई है रात जवाँ पांव थरथराने लगे
ये लोग नाचते यूँ रात रात भर क्यों हैं

कोई चमकता सा मंज़र नज़र नहीं आता
ये मेरी ऑंखें हुई ऐसी कमनज़र क्यों हैं

-प्रेमचंद सहजवाला

(राहबर = मार्गदर्शक, मोतबर = विश्वसनीय, शजर = पेड़, तलक = तक, दहशत = आतंक, मंज़र = दृश्य, कमनज़र = कमज़ोर दृष्टि)

राम भक्तों का बहुत होने लगा 'ड्रामा' यहाँ


६३ वर्षीय प्रेमचंद सहजवाला गद्य लेखन को पीछे छोड़ते हुए आजकल ग़ज़ल से प्रेम कर बैठे हैं और इस नाते हिन्द-युग्म के पाठकों का प्रेम भी पा रहे हैं। आज हम ईनामी कविता के रूप में इस माह प्रकाशित इनकी तीसरी ग़ज़ल लेकर आये हैं (प्रत्येक ग़ज़ल रु १०० के हिसाब से नकद ईनाम भी जीत रहे हैं)।

ग़ज़ल

छोटी छोटी बात पे होता है हंगामा यहाँ
चाहे कुर्ता तंग या छोटा हो पाजामा यहाँ

खौफ का माहौल है अब नींद कैसे आएगी
रोज़ सपनों में खड़ा रहता है ओसामा यहाँ

इस जग्ह मन्दिर बने और उस जग्ह सेतु रहे
राम भक्तों का बहुत होने लगा 'ड्रामा' यहाँ

लाठियों के ज़ोर पर ही हम विचरते मुल्क में
सभ्यता को हम ने ही कांधों पे है थामा यहाँ

हथकडी में तूलिका ले कर बनाओ चित्र सब
चित्रकारों से कहो लिक्खें हलफनामा यहाँ

भूख से भी है बड़ा ऐ दोस्त वंदे मातरम्
यह बताने के लिए आया हुक्मनामा यहाँ

आज पंचों ने दिया है गोत्र पर ये फ़ैसला
बाप ही कहलायेगा बेटे का अब मामा यहाँ

जल गयी मजबूर सी वह प्यार कर के भूल से
किस कदर बेबस हुई हर गांव की वामा यहाँ

-प्रेमचंद सहजवाला

गज़ल


कितना मुश्किल है अँगारा हो कर जीना
क्यों समझते नहीं यह् आग लगाने वाले

बेकाबू जूबाँ से हुये दिल के टुकडे टुकडे
लफ्जे-मरहम दे मुझको बात बनाने वाले

दिले-बरबाद को अब किसी से आस नहीं
कब के रुखसत हुये उम्मीद जगाने वाले

साँस बाकी है कि नहीं,किसी ने देखा नही
सामान लूटा किये, मदद को आने वाले

दिल के साज से निकलती कोई आवाज नही
कब के खामोश हुये नगमे-वफा गाने वाले

जिन्दगी धूप हुई दूर तलक कोई साया नहीं
मौसमे-बारिश के हैं छींटे आग लगाने वाले

जो भी देखे है कहे कि तेरा हाल ठीक नहीँ
वक्त बहुत कम, हैं दुनिया से हम जाने वाले

इसके सिवा क्या है






मेरे हाथों में अपने मुस्तक़बिल की तलाश है तुमको
मेरी हथेली में सूर्ख छालों के सिवा कुछ भी नहीं

तेरी कातर निगाहें माँगती हैं मुझ से जवाब कितने
और मेरे पास नामुराद सवालों के सिवा कुछ भी नहीं

दिल चाहता है तेरी मांग, मुसर्रत के रंगों से भर दूं
क्या करूं मेरे पास मलालों के सिवा कुछ भी नहीं

क्या हो, कोई पूछे मुझ से, कौन तुझे पहचानता है
मेरे पास तो, गुमनाम हवालों के सिवा कुछ भी नहीं

वो नजारे, जो दिलकश नज़र आते हैं, खुशी में तुम को
वही रंज में, बिखरे हुये ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं


शब्दार्थ-
मुस्तक़बिल- भविष्य, आनेवाला कल/काल
नामुराद- अभागा
मुसर्रत- प्रसन्नता, खुशी

तुम अकेले नहीं


तुम अकेले नहीं, और भी हैं इस दुनिया में सताये हुये
होंठों पर तब्बसुम लिये मगर दिल पर चोट खाये हुये

तुम्हारी बात से कयामत के बाद फ़िर दिल में दर्द उठा
इक ज़माने से दुनिया से थे ये जख़्म हम छिपाये हुये

धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी में कोई आग हो क्या ज़रूरी है
जले तो हैं मगर न जाने कौन सी आग के जलाये हुये

सफ़र में अब भी हूँ मगर नहीं तलाश मंज़िलों की मुझे
वजह वो लोग हैं हमसफ़र मेरे बाद मंजिलों को पाये हुये

क्या कहूँ आज मैं कैसी उलझनों में हूँ यहाँ आकर फँसा
यह सारे जाल खुद हैं मेरे अपने हाथों से बनाये हुये

बिछड़ रहे हो अगर तो कोई दुश्मनी की बात न करना
क्या ख़‌बर कौन महफ़िल में आ जाये बिन बुलाये हुये

तो कोई बात नहीं




तुम्हारे नाम के साथ जुड़ने लगा है नाम मेरा
तुम्हें नहीं है फ़िकर, तो कोई बात नहीं

तमाम शहर में रुसवाइयों का मेरी चर्चा है
तुम्हें लगी न खबर, तो कोई बात नहीं

तेरी जफ़ाओं का कब किसी से जिक्र किया मैंने
अगर कहीं सुनी है,ये बात, तो कोई बात नहीं

यही वो दिल है जहां रहे तुम बरसों अपनी मर्जी से
गर नहीं पहचानते आज ये घर, तो कोई बात नहीं

ज़र्रा-ए-ख़ाक सही, परवाज की हसरत थी दिल में,
तेज हवाओं का मिला न साथ, तो कोई बात नही

कोई पहरा, कोई ताला नहीं घर के दरवाजे पर
आदतन तुम ही न आओ, तो कोई बात नहीं

अभी बीच राह में हूँ, खत्म नहीं हुआ है सफ़र
तुम्हें बदलनी है राहे गुजर, तो कोई बात नहीं

फ़िकर = चिन्ता
जिक्र = चर्चा
रुसवाइयों = बदनामी
जफ़ाओं = बेरुखी, साथ न देना,
ज़र्रा-ए-ख़ाक = रेत या मिट्टी का कण
परवाज = उडान
हसरत = इच्छा
आदतन = आदत से मजबूर

अब नहीं कोई सवाल, अब जवाब चाहिये


अब नहीं कोई सवाल, अब जवाब चाहिये
मुझे मेरे आँसुओं का, अब हिसाब चाहिये

खो गया जो कहीं, वादियों में इन्तज़ार की
मुझे वही फिर से मेरा, खोया शबाब चाहिये

वर्क़ा-वर्क़ा, रो-रो के, आँसुओं से है लिखी
मेरे ख़्वाबों की तामीर जो, वो किताब चाहिये

बिसरे किसी ख़्याल ने, है फिर मुझे रुला दिया
भूल जाऊँ माजी को मैं, इक अजाब चाहिये

चांदनी है खिली हुयी, हम गम से सराबोर हैं
ढक ले जो मुक्कमिल वज़ूद, वो हिजाब चाहिये

था शाख से तोड़ कर, ख़ाक में मिला दिया
चमन की दरकार है, नहीं एक गुलाब चाहिये

अब नहीं कोई सवाल, अब जवाब चाहिये
मुझे मेरे आँसुओं का, अब हिसाब चाहिये


शब्दार्थः-

शबाब = खूबसूरती, सुन्दरता (beauty)
वर्का-वर्का =वरक़, एक एक पन्ना, सफ़ा (page)
ख्वाबों = सपनों (dream)
तामीर = इमारत, पूर्णता, (completion, building)
अजाब= अज़ायब, अनोखा, अजूबा, चमत्कार (Rare, Strange, Wonder)
माजी= भूतकाल, बीता हुआ समय (past)
मुक्कमिल = मुक़म्मल, पूरा, पूर्ण (complete)
हिजाब = पर्दा, रात (curtain, night, shyness)
दरकार = आवश्यकता, ज़रूरत (needed)