कितना मुश्किल है अँगारा हो कर जीना
क्यों समझते नहीं यह् आग लगाने वाले
बेकाबू जूबाँ से हुये दिल के टुकडे टुकडे
लफ्जे-मरहम दे मुझको बात बनाने वाले
दिले-बरबाद को अब किसी से आस नहीं
कब के रुखसत हुये उम्मीद जगाने वाले
साँस बाकी है कि नहीं,किसी ने देखा नही
सामान लूटा किये, मदद को आने वाले
दिल के साज से निकलती कोई आवाज नही
कब के खामोश हुये नगमे-वफा गाने वाले
जिन्दगी धूप हुई दूर तलक कोई साया नहीं
मौसमे-बारिश के हैं छींटे आग लगाने वाले
जो भी देखे है कहे कि तेरा हाल ठीक नहीँ
वक्त बहुत कम, हैं दुनिया से हम जाने वाले
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहिन्दर जी
गज़ल तो अच्छी लिखी है पर इसमें निराशा क्यों दिखाई दे रही है ? कहीं गज़ल विधा ही
की ये करामात तो नहीं ? वैसे वास्तविकता तो समाज की यही है फिर भी मुझे लगता
है जीजिविषा नहीं खत्म होनी चाहिए । कुछ शेर बहुत प्रभावित करने वाले हैं -
कितना मुश्किल है अँगारा हो कर जीना
क्यों समझते नहीं यह् आग लगाने वाले
शुभकामनाओं सहित
मोहिंदर कुमार जी ग़ज़ल लग तो रही है ग़ज़ल जैसी पर फिर भी किसी बात की कमी सी लगी |
यह वह प्रभाव उत्पन्न नही कर पाई जिसकी हमे आपसे आशा रहती है |
कुछ शेर अत्यंत ही साधारण से बन पड़े हैं !
वज़न की कमी कहीं कहीं सॉफ दिखाई दे रही है |
दिल के टुकडे, दिले-बरबाद, दिल के साज ,नगमे-वफा यह सब बड़े परंपरागत से लगते हैं और कुछ नये और विशिष्ट की चाहत अधूरी रह जाती है |
यह शेर विशेष अच्छा लगा ..
"जिन्दगी धूप हुई दूर तलक कोई साया नहीं
मौसमे-बारिश के हैं छींटे आग लगाने वाले"
जिन्दगी धूप हुई दूर तलक कोई साया नहीं
मौसमे-बारिश के हैं छींटे आग लगाने वाले
डा० कुंअर बेचैन की गज़ल का शेर याद आ गया
ज़िन्दगी यूँ भी जली यूँ भी जली मीलों तक
चाँदनी चार कदम, धूप चली मीलों तक
मतला पूरी तरह नहीं है
सही है, मोहिन्दर भाई. जारी रहें.
बहुत अच्छी ग़ज़ल है मोहिंदर जी सबसे पहला शेर, सबसे कमाल है वाह
कितना मुश्किल है अँगारा हो कर जीना
क्यों समझते नहीं यह् आग लगाने वाले
और ये कुछ कम नही जनाब -
साँस बाकी है कि नहीं,किसी ने देखा नही
सामान लूटा किये, मदद को आने वाले
दिल के साज से निकलती कोई आवाज नही
कब के खामोश हुये नगमे-वफा गाने वाले
अच्छा लगा इस को पढना मोहिन्दर जी
दिले-बरबाद को अब किसी से आस नहीं
कब के रुखसत हुये उम्मीद जगाने वाले
बहुत ख़ूब ...
जिन्दगी धूप हुई दूर तलक कोई साया नहीं
मौसमे-बारिश के हैं छींटे आग लगाने वाले
सुंदर है यह बहुत बधाई
कितना मुश्किल है अँगारा हो कर जीना
क्यों समझते नहीं यह् आग लगाने वाले
जिन्दगी धूप हुई दूर तलक कोई साया नहीं
मौसमे-बारिश के हैं छींटे आग लगाने वाले
मोहिन्दर जी,
रुक रुक कर आपकी यह गज़ल पढी है, और महसूस कर कर कर स्पंदित हुआ हूँ। आपने बहुत सुन्दर रचना प्रस्तुत ही है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मोहिन्दर जी!
बेहद खुबसूरत भावाभिव्यक्ति से परिपूर्ण गज़ल है. मगर फिर भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाई जिसकी उम्मीद इतने खूबसूरत खयाल से होनी चाहिये. यद्यपि बहर की पाबंदी आज के दौर में इतनी अहम नहीं मानी जाती, मगर लयात्मकता तो गज़ल में होनी ही चाहिये. आपकी गज़ल में कुछ स्थानों पर लयभंग ही शायद इसके प्रभाव को कम कर रहा है.
खूबसूरत ख्याल के लिये बधाई!
मोहिन्दर जी,
सुन्दर भाव हैं। प्रारंभ ही इतना मादक है कि अंत तक पाठक इससे जुड़ा रहता है।
दिले-बरबाद को अब किसी से आस नहीं
कब के रुखसत हुये उम्मीद जगाने वाले
वाह! बधाई।
बहुत खूब !!!!!
वाह!
दिले-बरबाद को अब किसी से आस नहीं
कब के रुखसत हुये उम्मीद जगाने वाले,
"जिन्दगी धूप हुई दूर तलक कोई साया नहीं
मौसमे-बारिश के हैं छींटे आग लगाने वाले"
बहुत ख़ूब ...
मोहिन्दर जी
बधाई।
बहुत सुन्दर रचना है मोहिन्दर जी
शानू
कितना मुश्किल है अँगारा हो कर जीना
क्यों समझते नहीं यह् आग लगाने वाले
साँस बाकी है कि नहीं,किसी ने देखा नही
सामान लूटा किये, मदद को आने वाले
जिन्दगी धूप हुई दूर तलक कोई साया नहीं
मौसमे-बारिश के हैं छींटे आग लगाने वाले
सुंदर गज़ल है मोहिन्दर जी। भाव परिपूर्ण एवं खालिस हैं। लेकिन मतले की कमी खल रही है। कृप्या इस ओर भी ध्यान दें।
-विश्व दीपक'तन्हा'
कितना मुश्किल है अँगारा हो कर जीना
क्यों समझते नहीं यह् आग लगाने वाले
जो भी देखे है कहे कि तेरा हाल ठीक नहीँ
वक्त बहुत कम, हैं दुनिया से हम जाने वाले
बहुत अच्छी गज़ल है मोहिन्दर जी। मुझे बहुत पसन्द आई।
मैं अजय यादव जी से सहमत हूँ।
दूसरी बात , ग़ज़लों मैं या तो नई बातें या पुरानी बातों को नये कलेवर में खोजता हूँ। मगर यह कविता मेरी खोज पूरी नहीं करती। समझ रहे हैं ना!
कितना मुश्किल है अँगारा हो कर जीना
क्यों समझते नहीं यह् आग लगाने वाले
साँस बाकी है कि नहीं,किसी ने देखा नही
सामान लूटा किये, मदद को आने वाले
Mohinderji, yah lines particularly bahot hi achhi lagi. vaise puri ghazal hi badhiya hai lekin kuchh nirasha bhi jhalak rahi hai kuchh panktiyon se
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